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पत्थरों के सहारे चला रहे अपना जीवन, कई पुश्तों ने ऐसे ही किया गुजारा - पथरगामा और बोआरीजोर इलाकों

गोड्डा के पथरगामा में सड़कों के किनरे रहने वाले कुछ परिवार पत्थर के सहारे अपना जीवन बीता रहे है. पत्थर से सिल्ल पट्ट बनाकर उसे घरेलु काम में उपयोग करने का सामान बनाते है. जिसके बदले जो उन्हें रकम मिलती है उससे ही वो अपना गुजारा करते हैं.

पत्थरों के सहारे चला रहे अपना जीवन
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Published : Aug 10, 2019, 6:27 PM IST

गोड्डा: जिले के बोआरीजोर और पथरगामा के आस-पास सड़कों के किनारे ऐसे परिवार देखे जा सकते हैं, जो अपनी रोजी रोटी पत्थर के सहारे चलाने को मजबूर है. दरअसल, ये कहानी गोड्डा जिले की है जहां करीब सौ से दो सौ लोग पत्थरों को तोड़ कर उसे घरेलू काम में इस्तेमाल करने की वस्तुएं बनाते हैं.

देखें पूरी खबर

जिले के पथरगामा और बोआरीजोर इलाकों में सड़क किनारे हथौड़ी और छेनी से अनंगढ़ पत्थरों को आकार देकर उसे बेचते हैं. ऐसे कई परिवार हैं जो दिन रात मेहनत करके पत्थरों को तोड़कर कई रुप देते हैं. भले ही शहरों में आधुनिक दौर में मसाला पीसने से लेकर दाल निकलने तक के उपकरण आ गए हो. लेकिन गांव में आज भी वहीं प्रणाली के भरोसे व्यवस्था चल रही है.

जहां मसाला पीसने के लिए सिल्ल लोढ़ी, आटा पिसाई और दाल निकालने के लिए जाता और चावल निकलने के लोइये ऊखल का इस्तेमाल होता है. इनके बनाये समान झारखंड के कई जिलों के अलावा बिहार में पहुचाए जाते हैं. इन्हें इन सामानों के बेचने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता. उनका कहना है कि व्यापारी खुद आकर ले जाते. उनका कहना है कि उनकी कई पुश्ते यही काम करके अपना पेट पालती थी. जिनसे सिख कर अब ये लोग भी अपना गुजरा चला रहे. उनके बनए सिल्ल पट्ट से वो 300-400 रुपए कमाते हैं.

गोड्डा: जिले के बोआरीजोर और पथरगामा के आस-पास सड़कों के किनारे ऐसे परिवार देखे जा सकते हैं, जो अपनी रोजी रोटी पत्थर के सहारे चलाने को मजबूर है. दरअसल, ये कहानी गोड्डा जिले की है जहां करीब सौ से दो सौ लोग पत्थरों को तोड़ कर उसे घरेलू काम में इस्तेमाल करने की वस्तुएं बनाते हैं.

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जिले के पथरगामा और बोआरीजोर इलाकों में सड़क किनारे हथौड़ी और छेनी से अनंगढ़ पत्थरों को आकार देकर उसे बेचते हैं. ऐसे कई परिवार हैं जो दिन रात मेहनत करके पत्थरों को तोड़कर कई रुप देते हैं. भले ही शहरों में आधुनिक दौर में मसाला पीसने से लेकर दाल निकलने तक के उपकरण आ गए हो. लेकिन गांव में आज भी वहीं प्रणाली के भरोसे व्यवस्था चल रही है.

जहां मसाला पीसने के लिए सिल्ल लोढ़ी, आटा पिसाई और दाल निकालने के लिए जाता और चावल निकलने के लोइये ऊखल का इस्तेमाल होता है. इनके बनाये समान झारखंड के कई जिलों के अलावा बिहार में पहुचाए जाते हैं. इन्हें इन सामानों के बेचने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता. उनका कहना है कि व्यापारी खुद आकर ले जाते. उनका कहना है कि उनकी कई पुश्ते यही काम करके अपना पेट पालती थी. जिनसे सिख कर अब ये लोग भी अपना गुजरा चला रहे. उनके बनए सिल्ल पट्ट से वो 300-400 रुपए कमाते हैं.

Intro:कभी चलाते चाक अब तराशते है पत्थर औऱ बना लेते है घरेलू इस्तेमाल के सामान।ये काम पिछले छह पीढ़ियों से जारी है।गोड्डा के बोआरीजोर व पथरगामा के आस पस सड़को के किनारे ऐसे परिवार देखे जा सकते है।


Body:गोड्डा जिले में पथरगामा व बोआरीजोर के इलाकों में सड़क के किनारे हथौड़ी व छेनी से अनंगढ़ पत्थरो को आकार देने मशगूल कुछ लोगो दिन रात देखा जा सकता है।इन सुनसान पहाड़ो व चट्टानों के बीच अपनी दुनिया मे गुम सिर्फ एक आवाज के साथ राह से गुजरते लोगो का ध्यान अपनी ओर खींचती है।व्व आवाज चट्टानों पर होने वाले हल्के हल्के प्रहारों के है।
ऐसे में उनके करीब जाकर ये जानने की कोशिश करते है कि ये आप क्या कर रहे है।काम तो कुछ शिल्पियों वाला लगता है।संभवतः बेढब पत्थरो को कोई रूप दे रहे हैं।
तो वे कहते नही साहब यह कोई मूर्ति नही बन रही हम तो घरेलू इस्तेमाल का सामान बना रहे है।दर असल भले ही शहरों में आधुनिक दौर मसाला पीसने से लेकर दाल निकलने तक के उपकरण आ गए हो।लेकेन गांव में आज भी वही प्रणाली के भरोसे व्यवस्था चल रही है।जहाँ मसाला पीसने के लिए सिल्ल लोढ़ी, आटा पिसाई व दाल निकालने के लिए जाता व चावल निकलने के लोइये ऊखल का इस्तेमाल होता है।इनके बनाये समान झारखंड के कई जिलों के अलावा बिहार में पहुचाये जाते है।इन्हें इन सामानों के बेचने के लिए कही जाना नही पड़ता।कहते है व्यापारी खुद आकर ले जाते।
दो सौ परिवार मूल रूप कुम्भकार जाती के है।जो दूसरे इलाकों में आज भी मिट्टी के वर्तन बनाते है,लेकिन ये लोग पीसीजले कई पुश्तों से यही काम करते आ रहे है।।कहते है एक दिन में एक जोड़ा सिल्ल पट्ट अथवा जाता बना लेते है जिससे 300-400 कमा लेते है।
bt-बासुदेव पंडित
bt-महैश पंडित



Conclusion:भले ही इन परिवारों ने अपने लिए रोटी का जुगाड़ पत्थरो को तराश कर समान बनाने का गुर सिख कर लिए है।लेकिन सरकारी व्यवस्था की ये जिम्मेवारी नही बनती की इनके कौशल को और विकसित कर उन्हें संसाधन उपलब्ध कराया जाय ।जिससे वे ये काम सुरक्षित और कुशलता पूर्वक कर सके।क्योंकि ये के दफा दुर्घटना अथवा आंखों समेत बीमारियों के शिकार हो जाते है।आखिर करे भी तो क्या करे रोटी का जो सवाल है।
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