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हूल दिवस, जानिए अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों के संघर्ष की दास्तां

झारखंड में हूल दिवस मनाया गया. इस मौके पर रांची में कई कार्यक्रम आयोजित किए गए. सिदो कान्हू पार्क में जेएमएम, आजसू, बीजेपी समेत कई दलों के नेता सिदो कान्हू की प्रतिमा पर माल्यार्पण किया. 1855 में हुए हूल क्रांति को अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन की ओर पहला कदम माना जाता है. प्रत्येक साल 30 जून को मनाए जाने हूल क्रांति दिवस को इसी आंदोलन का प्रतीक माना जाता है.

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हूल दिवस
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Published : Jun 30, 2022, 7:30 AM IST

Updated : Jul 1, 2022, 6:12 AM IST

रांचीः झारखंड में 30 जून को हूल क्रांति दिवस मनाया गया. झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जिस दिन विद्रोह किया था उस दिन को हूल क्रांति का नाम दिया गया है और हूल क्रांति दिवस इसी का प्रतीक है. बता दें कि इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी थी. आजादी की पहली लड़ाई 1857 को मानी जाती है लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने 1855 में ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था. 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ संताल आदिवासियों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों का विरोध किया था.

सिदो-कान्हू ने रखी थी क्रांति की नींव: सिदो, कान्हू, चांद और भैरव इन चारों भाइयों के नेतृत्व में संथाल विद्रोह यानि हूल क्रांति की नींव रखी गई थी और 'करो या मरो अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो जमीन छोड़ो' का नारा दिया गया था. संथाल परगना का इलाका पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था. इस इलाके में रहने वाले पहाड़िया संथाल और अन्य निवासी खेती-बाड़ी करके अपना जीवन यापन करते थे और किसी को जमीन का राजस्व नहीं देते थे. लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व बढ़ाने के मकसद से जमींदारी फौज तैयार की जो पहाड़िया संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूलने लगी. लगान देने के लिए आदिवासियों को साहूकार से कर्ज लेना पड़ा. कर्ज में डूबे इन भोले भाले लोगों को अब साहूकार के भी अत्याचार का सामना करना पड़ रहा था, जिसके बाद एक अलग क्रांति का जन्म हुआ जिसे हूल क्रांति के रूप में जाना जाता है. यह पहली बार था जब संथाली आदिवासी एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए सामने आए थे.

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हूल क्रांति

अत्याचार से तंग आकर शरू किया था विद्रोह: इतिहासकार बताते हैं कि उस वक्त महाजनों का दबदबा था. महाजन अंग्रेजों के काफी करीबी थी. संथालों की लड़ाई महाजनों के खिलाफ थी लेकिन अंग्रेजों के साथ मिले होने के चलते संथालों का संघर्ष दोनों के साथ था. अत्याचार से तंग आकर संथालों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़ी थी. 1855 में साहिबगंज के भोगनाडीह में अंग्रेजों के खिलाफ जंग को लेकर एक बैठक बुलाई गई. इस बैठक में हजारों संथाली शामिल हुए. अंग्रेजों को इस बात की जानकारी मिली की बड़ी संख्या में संथाली बैठक कर रहे हैं. अंग्रेज इस बात से वाकिफ थे कि तोप और बंदूक होने के बावजूद संथालियों के आगे टिकना मुमकिन नहीं है. अंग्रेजों को तीर का निशाना समझ नहीं आता था.

अंग्रेजों ने कराया था मार्टिला टावर का निर्माण 1856 में तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी सर मॉर्टिन ने रातों रात मार्टिलो टावर का निर्माण कराया और उसमें छोटे-छोटे छेद बनाए गए ताकि छिपकर संथालियों को बंदूक से निशाना बनाया जा सके, लेकिन आदिवासियों के पराक्रम को यह टावर नहीं दबा पाया. संथालियों ने अदम्य साहस की बदौलत अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए और उन्हें उल्टे पांव भागना पड़ा.

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मार्टिला टावर

विद्रोह में 20,000 लोगों ने गवायी थी जान: संथाल हूल को आंदोलन का रूप देने के लिए परंपरागत शस्त्र से लैस होकर 20 जून 1855 में 400 गांव के लगभग 50,000 आदिवासी साहिबगंज के भोगनडीह एकत्रित हुए. जिसके बाद अंग्रेजों ने इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे सिदो, कान्हू, चांद और भैरव को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था. हूल विद्रोह में करीब 20,000 वनवासियों ने अपनी जान दी थी. अंग्रेजों ने पैसों का लालच देकर सिदो कान्हू को गिरफ्तार करवा लिया और 26 जून को दोनों भाइयों को भोगनाडीह ग्राम में खुलेआम एक पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई. इस तरह ये भाई सदा के लिए अमर हो गए. आज भी 30 जून को उसी पेड़ से आसपास मेला लगाया जाता है.

आज झारखंड में कई कार्यक्रम: हुल दिवस पर रांची के सिद्धू कान्हो पार्क में कार्यक्रम का आयोजन होगा. जिसमें जेएमएम, आजसू बीजेपी समेत कई दलों के नेता अमर शहीद सिदो कान्हू की प्रतिमा पर माल्यार्पण करेंगे. दुमका में भी इस दिवस के मौके पर कई कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे.

रांचीः झारखंड में 30 जून को हूल क्रांति दिवस मनाया गया. झारखंड के आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ जिस दिन विद्रोह किया था उस दिन को हूल क्रांति का नाम दिया गया है और हूल क्रांति दिवस इसी का प्रतीक है. बता दें कि इस युद्ध में करीब 20 हजार आदिवासियों ने अपनी जान दी थी. आजादी की पहली लड़ाई 1857 को मानी जाती है लेकिन झारखंड के आदिवासियों ने 1855 में ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था. 30 जून 1855 को सिदो-कान्हू के नेतृत्व में साहिबगंज जिले के भोगनाडीह गांव में पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ संताल आदिवासियों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के दमनकारी नीतियों का विरोध किया था.

सिदो-कान्हू ने रखी थी क्रांति की नींव: सिदो, कान्हू, चांद और भैरव इन चारों भाइयों के नेतृत्व में संथाल विद्रोह यानि हूल क्रांति की नींव रखी गई थी और 'करो या मरो अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो जमीन छोड़ो' का नारा दिया गया था. संथाल परगना का इलाका पहाड़ों और जंगलों से घिरा हुआ था. इस इलाके में रहने वाले पहाड़िया संथाल और अन्य निवासी खेती-बाड़ी करके अपना जीवन यापन करते थे और किसी को जमीन का राजस्व नहीं देते थे. लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी ने राजस्व बढ़ाने के मकसद से जमींदारी फौज तैयार की जो पहाड़िया संथाल और अन्य निवासियों से जबरन लगान वसूलने लगी. लगान देने के लिए आदिवासियों को साहूकार से कर्ज लेना पड़ा. कर्ज में डूबे इन भोले भाले लोगों को अब साहूकार के भी अत्याचार का सामना करना पड़ रहा था, जिसके बाद एक अलग क्रांति का जन्म हुआ जिसे हूल क्रांति के रूप में जाना जाता है. यह पहली बार था जब संथाली आदिवासी एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए सामने आए थे.

hull revolution Day -will-be-celebrated-in-jharkhand-today
हूल क्रांति

अत्याचार से तंग आकर शरू किया था विद्रोह: इतिहासकार बताते हैं कि उस वक्त महाजनों का दबदबा था. महाजन अंग्रेजों के काफी करीबी थी. संथालों की लड़ाई महाजनों के खिलाफ थी लेकिन अंग्रेजों के साथ मिले होने के चलते संथालों का संघर्ष दोनों के साथ था. अत्याचार से तंग आकर संथालों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ जंग छेड़ी थी. 1855 में साहिबगंज के भोगनाडीह में अंग्रेजों के खिलाफ जंग को लेकर एक बैठक बुलाई गई. इस बैठक में हजारों संथाली शामिल हुए. अंग्रेजों को इस बात की जानकारी मिली की बड़ी संख्या में संथाली बैठक कर रहे हैं. अंग्रेज इस बात से वाकिफ थे कि तोप और बंदूक होने के बावजूद संथालियों के आगे टिकना मुमकिन नहीं है. अंग्रेजों को तीर का निशाना समझ नहीं आता था.

अंग्रेजों ने कराया था मार्टिला टावर का निर्माण 1856 में तत्कालीन अनुमंडल पदाधिकारी सर मॉर्टिन ने रातों रात मार्टिलो टावर का निर्माण कराया और उसमें छोटे-छोटे छेद बनाए गए ताकि छिपकर संथालियों को बंदूक से निशाना बनाया जा सके, लेकिन आदिवासियों के पराक्रम को यह टावर नहीं दबा पाया. संथालियों ने अदम्य साहस की बदौलत अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए और उन्हें उल्टे पांव भागना पड़ा.

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मार्टिला टावर

विद्रोह में 20,000 लोगों ने गवायी थी जान: संथाल हूल को आंदोलन का रूप देने के लिए परंपरागत शस्त्र से लैस होकर 20 जून 1855 में 400 गांव के लगभग 50,000 आदिवासी साहिबगंज के भोगनडीह एकत्रित हुए. जिसके बाद अंग्रेजों ने इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे सिदो, कान्हू, चांद और भैरव को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था. हूल विद्रोह में करीब 20,000 वनवासियों ने अपनी जान दी थी. अंग्रेजों ने पैसों का लालच देकर सिदो कान्हू को गिरफ्तार करवा लिया और 26 जून को दोनों भाइयों को भोगनाडीह ग्राम में खुलेआम एक पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई. इस तरह ये भाई सदा के लिए अमर हो गए. आज भी 30 जून को उसी पेड़ से आसपास मेला लगाया जाता है.

आज झारखंड में कई कार्यक्रम: हुल दिवस पर रांची के सिद्धू कान्हो पार्क में कार्यक्रम का आयोजन होगा. जिसमें जेएमएम, आजसू बीजेपी समेत कई दलों के नेता अमर शहीद सिदो कान्हू की प्रतिमा पर माल्यार्पण करेंगे. दुमका में भी इस दिवस के मौके पर कई कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे.

Last Updated : Jul 1, 2022, 6:12 AM IST
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