शिमला: सेब से समृद्धि...हिमाचल के लिए ये छोटी सी पंक्ति बड़ा महत्व रखती है. सेब बागीचों में बहाए पसीने से खुश मां लक्ष्मी यहां के गांवों में साक्षात विराजमान हो गई है. यही कारण है कि पहले क्यारी और फिर मड़ावग, ये दो गांव एशिया के सबसे अमीर गांव होने का गौरव पा चुके हैं.
क्यारी गांव तो अस्सी के दशक में एशिया का सबसे अमीर गांव रह चुका है. उस समय देश और प्रदेश के कई हिस्सों में गरीबी थी, परंतु सेब उत्पादन ने ऊपरी शिमला के क्यारी गांव को एशिया के सबसे अमीर गांव का दर्जा दिलाया. उसके बाद ऊपरी शिमला के ही मड़ावग गांव को ये गौरव हासिल हुआ. सेब उत्पादन ने हिमाचल की तस्वीर और तकदीर बदली है.
हिमाचल में रसीले सेब का सफर सौ साल से अधिक का हो गया है. इसे सौ बरस का एक दिन भी कह सकते हैं. एक दिन इसलिए कि ये सफर नित नवीन हो रहा है. यानी ताजा है और जैसे इसे अस्तित्व में आए एक ही दिन हुआ हो. हिमाचल में चार लाख बागवान परिवार हैं. यहां सालाना 3 से 4 करोड़ पेटी सेब का उत्पादन होता है. प्रदेश के बागवान सेब की विदेशी किस्मों को भी सफलता से उगा रहे हैं.
ऐसे कई गांव हैं, जिन्होंने सेब उत्पादन में अपनी अलग पहचान बनाई है. इन गांवों में रतनाड़ी, बखोल, कोटगढ़, कोटखाई, क्यारी, छाजपुर, बागी, थानाधार, बमटा, तेलगा, नावर-टिक्कर और मड़ावग का नाम प्रमुख है. क्यारी गांव डेढ़ दशक से भी अधिक समय तक एशिया का सबसे अमीर गांव रहा. फिर 2016 में चौपाल का मड़ावग गांव एशिया का सबसे अमीर गांव बना. ये सब संभव हुआ है सेब उत्पादन के कारण. मड़ावग गांव में चार सौ परिवार हैं. गांव की आबादी दो हजार है. यहां के युवाओं ने सरकारी नौकरी के पीछे भागने की बजाय पुरखों के बागवानी के सपने को नई ऊंचाइयां दी हैं.
ऐसा ही क्यारी गांव के युवाओं ने भी किया था. क्यारी गांव के उच्च शिक्षित युवाओं ने अपनी मेहनत व समर्पण से डेढ़ दशक तक अपने गांव को एशिया में सबसे संपन्न गांव रखा. इस समय मड़ावग गांव में सालाना सौ करोड़ रुपए से अधिक के सेब की पैदावार होती है. समूचे प्रदेश में शिमला जिला में सबसे अधिक सेब पैदा होता है. हिमाचल के कुल उत्पादन का अस्सी फीसदी सेब शिमला जिला में होता है. इसके अलावा कुल्लू, मंडी, किन्नौर, लाहौल-स्पीति, चंबा, सिरमौर में भी सेब होता है. कुछ समय से प्रदेश के गर्म इलाकों में सेब उगाया जा रहा है.
मड़ावग में आसान नहीं थी सेब की जड़ें जमाना
देश की आजादी के कुछ ही समय बाद की बात है. वर्ष 1954 में ऊपरी शिमला के मड़ावग गांव में लोग खेती करते थे और आलू की फसल मुख्य नकदी फसल थी. तब कोटगढ़ आदि में सेब की बागवानी सफल हो चुकी थी और रफ्तार पकड़ रही थी. इसी दौरान मड़ावग गांव के एक किसान चैइंयां राम मेहता शिमला की मंडी में आलू की फसल बेचकर आए तो वापिसी में कोटखाई से सेब के पौधे ले आए. तब मड़ावग के किसान आलू की फसल से आगे कुछ नहीं सोचते थे.
आलू की जगह सेब उगाने का स्थानीय किसानों ने प्रबल विरोध किया. चैइंयां राम ने उनके विरोध की परवाह न करके खुद की जमीन में सेब के पौधे लगा दिए. पौधे लगाने के बारह साल बाद फल खाने का अवसर आया. वर्ष 1966 में जब सेब के पौधों ने पहली बार फल दिए तो चैइंयां राम की जेब में सौ-सौ रुपए की गड्डी आई. कुल आठ हजार की रकम थी. गांव में लोगों ने पहली बार एकसाथ इतनी बड़ी रकम देखी. फिर सभी ने सेब के पौधे लगाने की होड़ पैदा कर ली. चैइंयां राम मेहता की दिखाई राह को अगली पीढ़ी ने सफलता दी.
नतीजा ये निकला कि मड़ावग एशिया का सबसे अमीर गांव बन गया. मड़ावग से पहले एशिया के सबसे अमीर गांव का खिताब गुजरात के माधवपुर के पास था. सबसे अमीर गांव की गणना में इलाके के लोगों का बैंक डिपाजिट, घर, गाड़ियों की कीमत देखी जाती है. एसडीएम स्तर पर संपत्ति का आकलन होता है.
यहां का सेब विदेश में भी निर्यात किया जाता है. ट्रापिकाना कंपनी की जूस पैकिंग में मड़ावग में उगाई गई कुछ किस्मों को प्राथमिकता दी जाती है. एक अनुमान के अनुसार मड़ावग के प्रति परिवार की सालाना आय 60 से 75 लाख रुपए के करीब है. वैसे तो प्रति व्यक्ति आय घटती-बढ़ती रहती है. इसी के अनुसार रिचेस्ट विलेज का आकलन होता है. जिला प्रशासन के आंकड़ों को भी इसमें शामिल किया जाता है.
ये भी पढ़ें: अराजपत्रित प्रदेश कर्मचारी महासंघ की मान्यता पर विनोद गुट ने उठाए सवाल, सरकार को घेरा