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HPU में छात्र संगठनों की खूनी झड़पें ले चुकी है 4 की जान, 49 वर्षों से जारी है हिंसक घटनाओं का दौर - एचपीयू में हिंसा

एचपीयू में हुई हिंसा ने कई जानें भी ली है और इनकी पुण्यतिथियो पर छात्र संगठन काला दिन मना रहे हैं.

छात्र संगठनों की झड़प पर एचपीयू में लाठी चार्ज
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Published : Mar 28, 2019, 4:34 PM IST

शिमला: हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय को स्थापित हुए 49 वर्षों का समय बीत चुका है. एचपीयू के लिए ये दुर्भाग्य की ही बात है कि अपनी शैक्षणिक गतिविधियों से विवि उतनी चर्चा ने नहीं रहा, जितना कि छात्र संगठनों के बीच होने वाली खूनी घटनाओं से.

HPU
छात्र संगठनों की झड़प पर एचपीयू में लाठी चार्ज

विश्वविद्यालय के 49 सालों में छात्र संगठनों की बात की जाए तो इतिहास खून से सना हुआ मिलता है. छात्र संगठनों की झड़प का खूनी दौर 1978 से अभी तक जारी है. छात्रों का ये खूनी संघर्ष सिर्फ हमला करने तक ही सीमित नहीं है. एचपीयू में हुई हिंसा ने कई जानें भी ली है और इनकी पुण्यतिथियो पर छात्र संगठन काला दिन मना रहे हैं.

हिंसा ने ली कई छात्रों की जान
छात्र संगठनों की हिंसक घटनाओं के इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो इसमें छात्र नेताओं के साथ ऐसे छात्रों को भी जान गंवानी पड़ी है, जिनका किसी संग़ठन से कोई ताल्लुक नहीं था. 1978 में छात्र सुरेश सूद भी छात्र संगठनों के बीच हुई खूनी हिंसा का शिकार हुए थे और इनकी हत्या कर दी गई थी. इसी तरह से 1984 में एक ओर छात्र भरत भूषण को भी अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इसके बाद भी यह दौर नहीं थमा और 1987 में एनएसयूआई के नेता नासीर खान की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद कई वर्षों तक विवि में माहौल तनावपूर्ण रहा.

इतनी जानें लेने के बाद भी छात्र संगठनों की ये लड़ाईयां नहीं थमी और 1995 एबीपीवी के एक छात्र नेता कुलदीप ढटवालिया को भी अपनी जान देनी पड़ी, जिसके बाद एचपीयू में छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. चुनाव पर तो प्रतिबंध लग गया, लेकिन छात्र संगठनों की गतिविधियों पर विश्वविद्यालय प्रशासन प्रतिबंध नहीं लगा पाया और वर्तमान में भी विश्वविद्यालय में वही स्थिति बनी हुई है.

ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जब एचपीयू सहित प्रदेश के कॉलेजिज में छात्र संगठनों के बीच खूनी घटनाएं नहीं होती. हालांकि इन घटनाओं पर रोक लगाने के उद्देश्य से ही एचपीयू के पूर्व कुलपति प्रो. एडीएन वाजपेयी ने वर्ष 2014 में प्रदेश विश्वविद्यालय सहित प्रदेश के कॉलेजिज में छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिया था और यह प्रतिबंध आज तक जारी है. इसे हटाने को लेकर छात्र संगठनों ने कई आंदोलन भी किए, लेकिन इन्हें बहाल नहीं किया गया.

एचपीयू में 49 वर्षों से जारी है हिंसक घटनाओं का दौर

भले ही छात्र संगठन चुनाव नहीं हो रहे हो, लेकिन यह छात्र संगठन शिक्षक संस्थानों में पूरी तरह से सक्रिय है और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए इस तरह की हिंसक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, जिससे कि एचपीयू और कॉलेज में पढ़ने वाले आम छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है. एचपीयू में जहां एबीपीवी और एसएफआई के बीच ही खूनी झड़पें होती है. वहीं कॉलेज स्तर पर एनएसयूआई भी इसमें शामिल है. हैरानी की बात ये है कि 49 सालों में न तो सरकार और न ही विश्वविद्यालय प्रशासन इन हिंसक घटनाओं को रोकने में कामयाब नहीं हो पाया है.

शिमला: हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय को स्थापित हुए 49 वर्षों का समय बीत चुका है. एचपीयू के लिए ये दुर्भाग्य की ही बात है कि अपनी शैक्षणिक गतिविधियों से विवि उतनी चर्चा ने नहीं रहा, जितना कि छात्र संगठनों के बीच होने वाली खूनी घटनाओं से.

HPU
छात्र संगठनों की झड़प पर एचपीयू में लाठी चार्ज

विश्वविद्यालय के 49 सालों में छात्र संगठनों की बात की जाए तो इतिहास खून से सना हुआ मिलता है. छात्र संगठनों की झड़प का खूनी दौर 1978 से अभी तक जारी है. छात्रों का ये खूनी संघर्ष सिर्फ हमला करने तक ही सीमित नहीं है. एचपीयू में हुई हिंसा ने कई जानें भी ली है और इनकी पुण्यतिथियो पर छात्र संगठन काला दिन मना रहे हैं.

हिंसा ने ली कई छात्रों की जान
छात्र संगठनों की हिंसक घटनाओं के इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो इसमें छात्र नेताओं के साथ ऐसे छात्रों को भी जान गंवानी पड़ी है, जिनका किसी संग़ठन से कोई ताल्लुक नहीं था. 1978 में छात्र सुरेश सूद भी छात्र संगठनों के बीच हुई खूनी हिंसा का शिकार हुए थे और इनकी हत्या कर दी गई थी. इसी तरह से 1984 में एक ओर छात्र भरत भूषण को भी अपनी जान गंवानी पड़ी थी. इसके बाद भी यह दौर नहीं थमा और 1987 में एनएसयूआई के नेता नासीर खान की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी, जिसके बाद कई वर्षों तक विवि में माहौल तनावपूर्ण रहा.

इतनी जानें लेने के बाद भी छात्र संगठनों की ये लड़ाईयां नहीं थमी और 1995 एबीपीवी के एक छात्र नेता कुलदीप ढटवालिया को भी अपनी जान देनी पड़ी, जिसके बाद एचपीयू में छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. चुनाव पर तो प्रतिबंध लग गया, लेकिन छात्र संगठनों की गतिविधियों पर विश्वविद्यालय प्रशासन प्रतिबंध नहीं लगा पाया और वर्तमान में भी विश्वविद्यालय में वही स्थिति बनी हुई है.

ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जब एचपीयू सहित प्रदेश के कॉलेजिज में छात्र संगठनों के बीच खूनी घटनाएं नहीं होती. हालांकि इन घटनाओं पर रोक लगाने के उद्देश्य से ही एचपीयू के पूर्व कुलपति प्रो. एडीएन वाजपेयी ने वर्ष 2014 में प्रदेश विश्वविद्यालय सहित प्रदेश के कॉलेजिज में छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध लगा दिया था और यह प्रतिबंध आज तक जारी है. इसे हटाने को लेकर छात्र संगठनों ने कई आंदोलन भी किए, लेकिन इन्हें बहाल नहीं किया गया.

एचपीयू में 49 वर्षों से जारी है हिंसक घटनाओं का दौर

भले ही छात्र संगठन चुनाव नहीं हो रहे हो, लेकिन यह छात्र संगठन शिक्षक संस्थानों में पूरी तरह से सक्रिय है और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए इस तरह की हिंसक घटनाओं को अंजाम दे रहे हैं, जिससे कि एचपीयू और कॉलेज में पढ़ने वाले आम छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है. एचपीयू में जहां एबीपीवी और एसएफआई के बीच ही खूनी झड़पें होती है. वहीं कॉलेज स्तर पर एनएसयूआई भी इसमें शामिल है. हैरानी की बात ये है कि 49 सालों में न तो सरकार और न ही विश्वविद्यालय प्रशासन इन हिंसक घटनाओं को रोकने में कामयाब नहीं हो पाया है.

Intro:हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय जिसको स्थापित हुए 49 वर्षों का समय बीत चुका है वह विश्वविद्यालय अपनी शैक्षणिक गतिविधियों से उतनी चर्चा ने नहीं रहा है जितना कि एचपीयू में छात्र संगठनों के बीच होने वाली खुनी घटनाओं से। विश्वविद्यालय के इतिहास में छात्र संगठनों की बात की जाए तो इनका इतिहास खून से सना हुआ है। यह दौर 1978 से चलकर अभी तक लगातार जारी है और एक दूसरे का खून यह छात्र संगठन आज भी बहाते आ रहे है। यह खूनी संघर्ष केवल एक दूसरे पर हमला करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि कई जानें भी इस वर्चस्व की लड़ाई के लिए ली गई है जिसकी पुण्यतिथियो पर यह छात्र संगठन काला दिन मना रहे है।


Body:छात्र संगठनों की हिंसक घटनाओं के इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें तो इसमें छात्र नेताओं के साथ ऐसे छात्रों को भी जान गंवानी पड़ी है जिनका किसी संग़ठन से कोई ताल्लुक नहीं था। 1978 में छात्र सुरेश सूद भी छात्र संगठनों के बीच हुई खूनी हिंसा का शिकार हुए थे और इनकी हत्या कर दी गई थी। इसी तरह से 1984 में एक ओर छात्र भरत भूषण को भी अपनी जान गंवानी पड़ी थी इसके बाद भी यह दौर नहीं थमा ओर 1987 में एनएसयूआई के नेता नासीर खान की बेरहमी से हत्या कर दी गयी थी,जिसके बाद कई वर्षों तक विवि में माहौल तनावपूर्ण रहा। इतनी जानें लेने के बाद भी छात्र संगठनों की यह लड़ाईयां नहीं थमी ओर 1995 एबीपीवी का एक छात्र नेता कुलदीप ढटवालिया को भी अपनी जान देनी पड़ी,जिसके बाद एचपीयू में छात्र संघ चुनावों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। चुनावों पर तो प्रतिबंध लग गया लेकिन छात्र संगठनों की गतिविधियों पर प्रतिबंध विश्वविद्यालय प्रशासन नहीं लगा पाया ओर आज वर्तमान में भी यही स्थिति विश्वविद्यालय में छात्र संगठनों में बनी हुई है।


Conclusion:ऐसा कोई वर्ष नहीं जाता जब एचपीयू सहित प्रदेश के कॉलेजों में छात्र संगठनों के बीच खूनी घटनाएं नहीं होती है। हालांकि इन घटनाओं पर रोक लगाने के उद्देश्य से ही एचपीयू के पूर्व कुलपति प्रो.ए.डी.एन वाजपेयी ने वर्ष 2014 में प्रदेश विश्वविद्यालय सहित प्रदेश के कॉलेजों में छात्र संघ चुनावों पर प्रतिबंध लगा दिया था और यह प्रतिबंध आज तक जारी है। इसे हटाने को लेकर कई आंदोलन भी छात्र संगठनों ने किए लेकिन इन्हें बहाल नहीं किया गया। भले ही छात्र संगठन के चुनाव नहीं हो रहे है लेकिन यह छात्र संगठन शिक्षक संस्थानो में पूरी तरह से सक्रिय है और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए इस तरह की हिंसकघटनाओं को अंजाम दे रहे है जिससे कि एचपीयू ओर कॉलेज में पढ़ने वाले आम छात्रों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। एचपीयू में जहां एबीपीवी ओर एसएफआई के बीच ही खूनी झड़पें होती है वही कॉलेज स्तर पर एनएसयूआई भी इसमें शामिल है पर ना तो सरकार ओर ना ही विश्वविद्यालय प्रशासन के पास इन हिंसक घटनाओं को रोकने का कोई तोड़ है।
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