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अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव का आज से आगाज, इस अद्भुत पर्व में स्वर्ग से आते हैं देवी-देवता, पढ़ें पूरी कहानी - कुल्लू आ रहे पीए मोदी

अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव (International Kullu Dussehra) को लेकर सभी तैयारियां पूरी हो चुकी है. आज से इस दशहरे का आगाज होगा. इस दशहरे में भाग लेने के लिए देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कल कुल्लू आएंगे. लेकिन इससे पहले आपको बताते हैं कि कुल्लू दशहरा आखिर मनाया क्यों जाता है...

International Kullu Dussehra 2022
International Kullu Dussehra 2022
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Published : Oct 4, 2022, 10:42 PM IST

Updated : Oct 5, 2022, 10:35 AM IST

कुल्लू: हिमाचल प्रदेश कुल्लू जिले में आज से अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा (International Kullu Dussehra 2022) शुरू होने जा रहा है. कोरोना के चलते पूरे 2 साल बाद इस दशहरे का आयोजन किया जा रहा है, जो सप्ताह भर चलेगा. कुल्लू में मनाया जाने वाले ये दशहरा इसलिए अनूठा है क्योंकि जब देश के बाकी हिस्सों में दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है, तब यहां इसका आगाज होता है, जो सप्ताह भर चलता है.

इस अद्भुत पर्व में स्वर्ग से धरती पर देवी-देवता आते हैं और लोगों की उत्सव को लेकर अटूट आस्था जुड़ी हुई है. वहीं, इस साल कुल्लू दशहरा उत्सव कई मायने में खास है. क्योंकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi in International Kullu Dussehra) कल इस मेले में शिरकत करने के लिए कुल्लू आ रहे हैं. यह पहला मौके होगा जब देश के प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में शिरकत करेंगे.

कैसे हुई शुरूआत: यहां इस पर्व को मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के राज में 1637 से शुरू हुई थी. मान्यता है कि राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के टिप्परी गांव में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था. उस गरीब ब्राह्मण ने राजा जगत सिंह की किसी गलतफहमी के कारण आत्मदाह कर लिया था. गरीब ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा जगत सिंह को लगा.

इससे राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था. असाध्य रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाएं. इन मूर्तियों को कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी.

अयोध्या से चुराकर लानी पड़ी थी मूर्तियां: इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा था. बताया जाता है कि बड़े जतन से जब मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो वहां उन्हें पकड़ लिया गया. उस समय ऐसा करिश्मा हुआ कि जब आयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वह इतनी भारी हो गई कि कइयों के उठाने से नहीं उठी और जब यहां के पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई. ऐसे में पूरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या वालों ने मूर्ति को कुल्लू लाने दिया. कहते हैं कि इन मूर्तियों के दर्शन के बाद राजा का रोग खत्म हो गया था. स्वस्थ होने के बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान को समर्पित कर दिया और इस तरह से यहां दशहरे की शुरूआत हुई.

राजा भगवान को देते हैं न्योता: अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा यहां के सभी 365 देवी-देवताओं को ढालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं और पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं. इन्हे राजघराने की देवी माना जाता है. कुल्लू के प्रवेशद्वार राजदंड में उनका स्वागत किया जाता है और राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में उनका प्रवेश होता है. हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उसका आशीर्वाद लेने आते हैं. इसके उपरांत ढालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है.

देवी-देवताओं के लिए रंगबिरंगी पालकियां: दशहरा उत्सव के दौरान यहां के रहवासियों की रंग-बिरंगी पौशाके देखते ही बनती है. या यूं कहे की उत्सव में चार चांद लगा देती हैं. इन लोगों के हाथ में दांत की बनी गोल तुरही होती है और कुछ नगाड़ों को पीटते चलते हैं. बचे हुए लोग जब साथ में नाचते गाते हुए इस मंडली के साथ होते हैं. पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख लगता है कि सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं. इस दौरान रंगबिरंगी पालकियों में सभी देवी देवताओं की मुर्तियों को रखा जाता है और यात्रा निकाली जाती है. उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं. रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा लेकिन लुभावना होता है और सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है.

रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा: दशहरे के दौरान एक रथ यात्रा भी निकाली जाती है. रथ में रघुनाथ जी (lord raghunath in kullu dussehra) की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता तथा हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है. पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है. रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है, जहां यह रथ छह दिन तक ठहरता है. राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना होते हैं.

2014 में चोरी हुई थी भगवान रघुनाथ की मूर्ति: सुल्तानपुर स्थित ऐतिहासिक मंदिर से नेपाल के रहने वाले चोर ने साल 2014 में भगवान रघुनाथ के अलावा नरसिंह, हनुमान, गणपति और शालिग्राम मूर्तियों को चुरा लिया था. उस दौरान कुल एक किलो सोने और दस किलो चांदी की मूर्तियां और अन्य सामान गायब हुआ था. जिसे बाद में साल 2015 के जनवरी माह में पुलिस के द्वारा बरामद भी कर लिया गया था. ऐसे में भगवान रघुनाथ की मूर्ति की चोरी होने पर जिला कुल्लू में शोक की लहर दौड़ गई थी और कई दिनों तक रघुनाथपुर के साथ लगते इलाकों में लोगों के घरों में चूल्हा भी नहीं जला था.

ये भी पढ़ें: पीएम की रैली के बाद जारी होगी बीजेपी की पहली लिस्ट: सीएम जयराम

कुल्लू: हिमाचल प्रदेश कुल्लू जिले में आज से अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा (International Kullu Dussehra 2022) शुरू होने जा रहा है. कोरोना के चलते पूरे 2 साल बाद इस दशहरे का आयोजन किया जा रहा है, जो सप्ताह भर चलेगा. कुल्लू में मनाया जाने वाले ये दशहरा इसलिए अनूठा है क्योंकि जब देश के बाकी हिस्सों में दशहरा उत्सव समाप्त हो जाता है, तब यहां इसका आगाज होता है, जो सप्ताह भर चलता है.

इस अद्भुत पर्व में स्वर्ग से धरती पर देवी-देवता आते हैं और लोगों की उत्सव को लेकर अटूट आस्था जुड़ी हुई है. वहीं, इस साल कुल्लू दशहरा उत्सव कई मायने में खास है. क्योंकि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi in International Kullu Dussehra) कल इस मेले में शिरकत करने के लिए कुल्लू आ रहे हैं. यह पहला मौके होगा जब देश के प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय कुल्लू दशहरा उत्सव में शिरकत करेंगे.

कैसे हुई शुरूआत: यहां इस पर्व को मनाने की परंपरा राजा जगत सिंह के राज में 1637 से शुरू हुई थी. मान्यता है कि राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के टिप्परी गांव में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था. उस गरीब ब्राह्मण ने राजा जगत सिंह की किसी गलतफहमी के कारण आत्मदाह कर लिया था. गरीब ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा जगत सिंह को लगा.

इससे राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था. असाध्य रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाएं. इन मूर्तियों को कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी.

अयोध्या से चुराकर लानी पड़ी थी मूर्तियां: इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा था. बताया जाता है कि बड़े जतन से जब मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो वहां उन्हें पकड़ लिया गया. उस समय ऐसा करिश्मा हुआ कि जब आयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वह इतनी भारी हो गई कि कइयों के उठाने से नहीं उठी और जब यहां के पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई. ऐसे में पूरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या वालों ने मूर्ति को कुल्लू लाने दिया. कहते हैं कि इन मूर्तियों के दर्शन के बाद राजा का रोग खत्म हो गया था. स्वस्थ होने के बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान को समर्पित कर दिया और इस तरह से यहां दशहरे की शुरूआत हुई.

राजा भगवान को देते हैं न्योता: अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा यहां के सभी 365 देवी-देवताओं को ढालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं और पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं. इन्हे राजघराने की देवी माना जाता है. कुल्लू के प्रवेशद्वार राजदंड में उनका स्वागत किया जाता है और राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में उनका प्रवेश होता है. हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उसका आशीर्वाद लेने आते हैं. इसके उपरांत ढालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है.

देवी-देवताओं के लिए रंगबिरंगी पालकियां: दशहरा उत्सव के दौरान यहां के रहवासियों की रंग-बिरंगी पौशाके देखते ही बनती है. या यूं कहे की उत्सव में चार चांद लगा देती हैं. इन लोगों के हाथ में दांत की बनी गोल तुरही होती है और कुछ नगाड़ों को पीटते चलते हैं. बचे हुए लोग जब साथ में नाचते गाते हुए इस मंडली के साथ होते हैं. पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख लगता है कि सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं. इस दौरान रंगबिरंगी पालकियों में सभी देवी देवताओं की मुर्तियों को रखा जाता है और यात्रा निकाली जाती है. उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं. रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा लेकिन लुभावना होता है और सारी रात लोगों का नाचगाना चलता है.

रथ में रघुनाथ जी की प्रतिमा: दशहरे के दौरान एक रथ यात्रा भी निकाली जाती है. रथ में रघुनाथ जी (lord raghunath in kullu dussehra) की तीन इंच की प्रतिमा को उससे भी छोटी सीता तथा हिडिंबा को बड़ी सुंदरता से सजा कर रखा जाता है. पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है. रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है, जहां यह रथ छह दिन तक ठहरता है. राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना होते हैं.

2014 में चोरी हुई थी भगवान रघुनाथ की मूर्ति: सुल्तानपुर स्थित ऐतिहासिक मंदिर से नेपाल के रहने वाले चोर ने साल 2014 में भगवान रघुनाथ के अलावा नरसिंह, हनुमान, गणपति और शालिग्राम मूर्तियों को चुरा लिया था. उस दौरान कुल एक किलो सोने और दस किलो चांदी की मूर्तियां और अन्य सामान गायब हुआ था. जिसे बाद में साल 2015 के जनवरी माह में पुलिस के द्वारा बरामद भी कर लिया गया था. ऐसे में भगवान रघुनाथ की मूर्ति की चोरी होने पर जिला कुल्लू में शोक की लहर दौड़ गई थी और कई दिनों तक रघुनाथपुर के साथ लगते इलाकों में लोगों के घरों में चूल्हा भी नहीं जला था.

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Last Updated : Oct 5, 2022, 10:35 AM IST
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