सिवान: बेटी की शादी में दहेज के रूप में माता-पिता पैसे, गाड़ी जेवर या फर्नीचर जैसी चीजें देते हैं. लेकिन बिहार के सिवान जिले में एक ऐसा गांव हैं, जहां बेटियों को दहेज में नाव दिया जाता है. इसके कारण गुठनी प्रखंड के गुठनी बाजार से 2 किलोमीटर दूर स्थित तीर बलुआ गांव सभी के लिए चर्चा का विषय बना हुआ है.
सिवान के इस गांव के हर घर में नाव: तीर बलुआ गांव किसी अजूबे से कम नहीं है. दरअसल यहां घर-घर नाव है,जिसका इस्तेमाल मछली मारने, मार्केट जाने, पशुओं का चारा लाने और नदी के दूसरे छोर में जाकर खेती करने तक के लिए होता है. इस गांव में लगभग 150 के करीब घर हैं और नाव की संख्या 100 से ज्यादा है. जिले के दूसरे गांवों से तुलना करें तो तीर बलुआ गांव में सबसे अधिक नावों की संख्या है.
दामाद को दहेज में नाव: ग्रामीणों ने यह भी बताया कि बेटियों की शादी में हमें नाव दहेज के रूप में देना पड़ता है. इसके दो कारण हैं एक गांव पानी से घिरा है दूसरा गांव में ही नाव बनाने की परंपरा है. पुराने जमाने से ही गांव के लोग खुद ही नाव तैयार कर लेते हैं. दो से तीन दिनों में नाव बनकर तैयार हो जाती है.
"हम शादी में अपने दामाद को दहेज में नाव देते हैं. नाव ही यहां सभी का सहारा है. अब तो ऐसा करना प्रथा सी बन गई है. नाव के बिना तीर बलुआ गांव में जीवन की कल्पना नहीं कर सकते हैं."- ग्रामीण
'हमारे पास कुछ नहीं है': नाव के सहारे ही इन लोगों की जिंदगी चलती है. ग्राउंड जीरो पर जाकर ग्रामीणों से ईटीवी भारत संवाददाता ने बात की और जानने का प्रयास किया कि आखिर नाव के सहारे जीवन जीना कितना मुश्किल है. ग्रामीण रामविलास सहनी ने बताया कि नाव पर ही जिंदगी है. नाव ही हमारी रोजी रोटी है. हमारे पास कुछ नहीं है. खेती बाड़ी भी नहीं है. थोड़ी बहुत खेती होती भी है तो बाढ़ में हर साल बहकर चला जाता है. जिसका घर नहीं चल पाता वह सब कुछ छोड़कर पलायन कर जाता है.
"नाव से हमलोग मछली पकड़ने का काम करते हैं. एक दो किलो मछली पकड़ते हैं और उसी से रोजी रोटी का इंतजाम होता है. नाव को हम अपने हाथ से बनाते हैं. एक नाव को बनाने में 15 से 16 हजार लगता है. नाव बनाने में दो से तीन दिन का समय लगता है."-रामविलास सहनी, ग्रामीण, तीर बलुआ , गांव
ग्रामीण खुद बनाते हैं नाव: वहीं एक बुजुर्ग ग्रामीण ने भी गांव की परेशानियों की पूरी कहानी बतायी. उन्होंने कहा कि हर घर में अपना नाव है. बाजार जाने के लिए पहले नाव का सहारा लिया जाता था लेकिन अब गाड़ी है. हम आज भी नाव पर ही निर्भर करते हैं. दियरा से लकड़ी लाना होता है. सिलेंडर कितना इस्तेमाल करेंगे.
"हम खुद ही नाव बना लेते हैं. 10-12 हजार तक का खर्चा आता है. पहले हमारे पूर्वज भी नाव बनाने का काम करते थे. नाव से हम मछली मारने जाते हैं. नदी पार कर खेती करने जाते हैं."- ग्रामीण, तीर बलुआ , गांव
'नाव बनाने में 15-20 हजार खर्च': वहीं एक अन्य ग्रामीण ने बताया कि गांव में बड़ी संख्या में नाव है. 100 से ज्यादा नाव है. मछली पकड़ने का काम करते हैं. लकड़ी लाकर खाना बनाते हैं. सिलेंडर भरवाने का पैसा नहीं है. हमारे पास कोई खेती का साधन नहीं है. हर साल बाढ़ आती है लेकिन कोई नेता देखने नहीं आता है. नाव बनाने में 15-20 हजार खर्च होता है.
"मछली हमारी रोजी रोटी है. गांव में स्कूल भी नहीं है, स्थानीय विधायक भी नहीं आते. बीडीओ सीओ कोई देखने नहीं आता किसी तरह की कोई सहायता नहीं मिलती. नाव से हम आते जाते हैं. घाट की भी दुर्दशा है. बाढ़ के समय अधिकारी आते हैं लिखकर ले जाते हैं और फाइल बंद करके रख देते हैं."- रामाशंकर सहनी,तीर बलुआ , गांव
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