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विशेष : बैंकों की समस्याओं का निदान निजीकरण नहीं

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Published : Apr 14, 2021, 9:40 PM IST

Updated : Apr 14, 2021, 10:41 PM IST

बैंकिंग क्षेत्रों में आ रहीं समस्याओं का निदान निजीकरण नहीं है. नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी बताते हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भारतीय बैंकिंग क्षेत्र का जितना अधिक विस्तार हुआ, उतना पूरी दुनिया में कहीं नहीं देखा गया. सरकारी बैंकों ने निजी बैंकों के मुकाबले अपनी सामाजिक जिम्मेवारी अच्छे से निभाई है. इसके बावजूद सरकार निजीकरण पर क्यों तुली हुई है ? एक विश्लेषण.

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वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, पीएम मोदी

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा के साथ ही देश के बैंकिंग परिदृश्य में व्यापक बदलाव की मंशा जाहिर कर दी थी. सरकार की यह नीति 51 साल पहले निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण की नीति से ठीक उलट है. केंद्र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों के विलय कर उसे चार बैंकों में तब्दील करने की घोषणा पहले ही कर चुकी है. अब सार्वजनिक बैंकों की कुल संख्या 27 से घटकर 12 हो चुकी है.

चार प्रमुख रणनीतिक क्षेत्रों में से एक बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवा ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सरकार अपनी 'नाम मात्र' की मौजूदगी जारी रखना चाहती है. जाहिर है, दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा सरकार के व्यापक निजीकरण योजना का मात्र एक हिस्सा है. सरकार ने वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान बिक्री से 1.75 लाख करोड़ जुटाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है. नीति आयोग ने छह बैंकों को निजीकरण अभियान से दूर रखने की अनुशंसा की है. ये हैं- पंजाब नेशनल बैंक, इंडिया बैंक, बैंक ऑफ बडौ़दा, स्टेट बैंक, यूनियन बैंक और केनरा बैंक. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इंडियन ओवरसीज बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और यूको बैंक के निजीकरण के लिए तत्काल में कोई कदम नहीं उठाया जाएगा, क्योंकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इनके सुधार के लिए कुछ कदम उठाने के निर्देश दिए हैं. इसका मतलब है कि पंजाब एंड सिंध बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और बैंक ऑफ इंडिया का निजीकरण अविलंब होगा. हालांकि, सरकार किन दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा करेगी, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है. इसलिए इन बैंकों कर्मियों की धड़कनें तेज हैं.

निजीकरण क्यों

सरकारी बैंकों के लिए नॉन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) बड़ी चुनौती है. कोविड संकट के बाद स्थिति और भी गंभीर हुई है. सकल एनपीए अनुपात सितंबर 2020 में 7.5 फीसदी था. आरबीआई की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार सितंबर 2021 तक यह अनुपात 13.5 फीसदी तक बढ़ सकता है. इसकी वजह से सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में और अधिक नकदी का प्रवाह बढ़ाना होगा. पिछले दो सालों में केंद्र सरकार ने पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड्स और पूंजी इंजेक्शन के जरिए 80,000 करोड़ (2018), 70,000 करोड़ (2019) और 1.06 करोड़ की सहायता दी है. 2014-19 के दौरान करदाताओं के 3.19 ट्रिलियन रूपये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को दिए जा चुके हैं. सरकार निजीकरण का समर्थन कर रही है. उनका कहना है कि इससे उत्पादकता बढ़ेगी. निश्चित लाभ होगा और ग्राहकों को बेहतर सेवा मिल सकेगी. कुल मिलाकर कहें तो सरकार हर साल पैसा देकर उसे सहयोग करने से पीछे हटना चाहती है. इसका ये भी अर्थ है कि वे इनके कर्मियों की अक्षमता और अयोग्यता की ओर इशारा कर रही है. लेकिन ये भी सत्य है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी की वजह से प्रभावशाली डिफॉल्टरों से नहीं निपटा जा सका.

सार्वजनिक बैंकों की भूमिका

बैंकिंग क्षेत्रों के विशेषज्ञ सरकार के उस निष्कर्ष की आलोचना करते हैं, जिसमें इन बैंकों के निजीकरण के लिए लाभ नहीं कमा पाने को आधार बताया गया है. उनके अनुसार यह संकीर्ण सोच है. विशेषज्ञों का कहना है कि सार्वजनकि क्षेत्रों के बैंकों ने उन इलाकों में बैंकिंग सेवाएं दी हैं, जहां निजी बैंक नहीं पहुंचते हैं. सरकारी बैंकों के जरिए ही वंचित वर्गों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाई गईं. नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी बताते हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भारतीय बैंकिंग क्षेत्र का जितना अधिक विस्तार हुआ, उतना पूरी दुनिया में कहीं नहीं देखा गया. इसकी बदौलत सरकार को अपने सामाजिक आर्थिक दायित्वों को निभाने में बड़ी सहूलियत हासिल हुई. फिर चाहे वह किसान हो या छोटे व्यापारी या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि कार्य में जुटे लोग. इनकी वजह से यहां पर रोजगार में भी बढ़ोतरी हुई और गरीबी भी घटी.

सरकारी बैंकों से ग्रामीणों को फायदा

अर्थशास्त्रियों के बीच लगभग एक राय है कि भारत जैसे विकासशील देश में बैंकिंग क्षेत्र का निजीकरण सही कदम नहीं हो सकता है. अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग विशेषज्ञ वाईवी रेड्डी कहते हैं कि इन बैंकों के द्वारा दी जाने वाली क्रेडिट का संबंध सीधे ही आर्थिक विकास से जुड़ा है. भारत को सीखना है तो वह जापान और जर्मनी जैसे देशों से सीख ले सकता है. यहां पर सरकारें ढांचागत प्रोजेक्ट के लिए बैंकों से उधार लेती हैं. भारत में बैंकिंग क्षेत्र सरकार की नीतियों की वजह से बेहतर उत्पादकता नहीं दे सकी. आईडीबीआई, आईसीआईसीआई, आईडीएफसीआई जैसे बैंकों को बदलकर ऑल पर्पस बैंक बना दिया गया. बड़े-बड़े उद्योगपतियों को ऋण दिया गया. सरकारी बैंकों से उधार देने की प्रक्रिया को काफी आसान और उदार बना दिया गया. नतीजा ये हुआ कि कुछेक क्षेत्रों को अधिक से अधिक लोन मिले. ढांचागत विकास करने वाली कंपनियां के साथ-साथ ऊर्जा, खनन और टेलिकॉम कंपनियों को सबसे अधिक फायदा मिला. निजी और विदेशी बैंकों की तुलना में रिजर्व बैंक प्रभावकारी और कुशल नियामक की भूमिका नहीं निभा सका. 1980 के दशक के बाद से राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता चला गया.

निजीकरण रामबाण नहीं

पिछले पांच सालों में निजीकरण की गति बढ़ गई, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक खराब ऋण की वजह से संघर्ष कर रहे हैं. 2010 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भागीदारी ऋण देने में 75 फीसदी से अभी अधिक थी. तब से उनकी भागीदारी लगातार घटती गई. सितंबर 2020 में यह 57 फीसदी हो गई. इन्हीं 10 सालों के दौरान निजी बैंकों की भागीदारी 17 फीसदी से बढ़कर 35 फीसदी तक हो गई. हालांकि, सार्वजनिक बैंकों में कुल जमा राशि के हिसाब से देखें तो इसका अनुपात उतना अधिक नहीं घटा. 2012 में मार्केट शेयर 74 फीसदी था और सितंबर 2020 में यह 62 फीसदी हो गया. इसका मतलब ये है कि निजी बैंक की प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ी, लेकिन लोगों का विश्वास अब भी पैसा जमा करने के मामलों में सरकारी बैंक पर ही है.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण की वजह से इसका विस्तार हुआ. तकनीक का भी विस्तार हुआ. फिर भी बैंक अब भी मेट्रो केंद्रित माना जाता है. 2018 के आंकड़ों के मुताबिक 20 फीसदी ब्रांच 53 मेट्रो सेंटर में हैं. लेकिन यहां पर कुल जमा का 50 फीसदी हिस्सा है. उन्होंने कुल अग्रिमों का 64 फीसदी ऋण दिया.

शहरी (अर्बन) क्षेत्रों में 19 फीसदी शाखाएं हैं. यहां पर कुल जमा का 21.5 फीसदी हिस्सा है. कुल अग्रिमों में 15 फीसदी ऋण दिया.

मेट्रो शाखाएं 100 रुपये पर 97 रुपये ऋण दे देते हैं, जबकि अर्बन शाखा में क्रेडिट जमा अनुपात 55 फीसदी है.

निजी बैंक पहाड़ी और ग्रामीण इलाकों में कार्यालय खोलने के प्रति अनिच्छुक रहती हैं. इसकी वजह से इन इलाकों में रहने वाले लोगों को बैंकिंग सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं. निजी बैंक किसानों और छोटे व्यवसायियों को उधार देने से हिचकती हैं. ऐसे में सारा भार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर ही पड़ता है.

मोदी सरकार की सभी महत्वाकांक्षी योजनाएं पीएम जनधन योजना, पीएम गरीब कल्याण योजना, पीएम जीवन ज्योति बीमा योजना, पीएम सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना, पीएम मुद्रा योजना सार्वजनिक बैंकों के जरिए ही आम जनता तक पहुंचीं. ऐसे में यह कहना कि सार्वजनिक बैंक को सिर्फ लाभ के आधार पर मापा जाए, कहीं से भी संगत नहीं जान पड़ता है. उनकी सामाजिक जवाबदेही की पूरी तरह से अनदेखी नहीं की जा सकती है.

भारत 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट झेल सका क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति ठीक थी. सिर्फ बैंकों के विलय कर देने से अपने आप प्रशासन बेहतर हो जाएगा, ऐसा नहीं है. अक्षमता सिर्फ सरकारी बैंकों तक सीमित नहीं होती है. अंतरराष्ट्रीय अध्ययन बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्रों के बैंकों में एनपीए को बेहतर ढंग से प्रबंधन करने की क्षमता होती है. इसी तरह से निजी बैंकों में धोखाधड़ी की घटनाएं नहीं होती हैं, ऐसा भी नहीं है.

क्या है रास्ता

भारत में 19 करोड़ व्यस्कों का खाता अब भी नहीं खुला है. इसका मतलब है कि इतनी बड़ी आबादी को शीघ्र से शीघ्र बैंकिंग व्यवस्था का हिस्सा बनाना चाहिए. अन्य समावेशी सूचकांक में भी भारत काफी पीछे है. बैंकों को सिर्फ बिजनेस गतिविधि से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है. सामाजिक इंजीनियर के रूप में भी इसकी भूमिका है. सतत समावेशी विकास का यह एक एजेंट है. यानी रणनीतिक क्षेत्रों में मात्र भागीदारी से कुछ नहीं होने वाला है. अच्छा होगा कि केंद्र सरकार समावेशी, योग्य, दक्ष, उत्पादन बढ़ाने वाला और विश्वसनीय बैंकिंग व्यवस्था को बढ़ावा दे. सरकारी और निजी दोनों बैंकों को साथ-साथ काम करना चाहिए. स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा हो सकती है. बैंकों को प्राथमिक रूप से पर्याप्त राजकोषीय समर्थन के साथ सामाजिक बैंकिंग पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. कॉरपोरेट गवर्नेंस के संबंध में बात करें तो केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक को तटस्थ अंपायर द्वारा सरकारी और निजी बैंकों के बीच अपनी कार्यात्मक स्वायत्तता का उपयोग करने की अनुमति देनी चाहिए.

(लेखक- डॉ एवीआर ज्योति कुमार, कॉमर्स डिपार्टमेंट, मिजोरम सेंट्रल यूनिवर्सिटी)

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट के दौरान सार्वजनिक क्षेत्र के दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा के साथ ही देश के बैंकिंग परिदृश्य में व्यापक बदलाव की मंशा जाहिर कर दी थी. सरकार की यह नीति 51 साल पहले निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण की नीति से ठीक उलट है. केंद्र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के 10 बैंकों के विलय कर उसे चार बैंकों में तब्दील करने की घोषणा पहले ही कर चुकी है. अब सार्वजनिक बैंकों की कुल संख्या 27 से घटकर 12 हो चुकी है.

चार प्रमुख रणनीतिक क्षेत्रों में से एक बैंकिंग, बीमा और वित्तीय सेवा ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सरकार अपनी 'नाम मात्र' की मौजूदगी जारी रखना चाहती है. जाहिर है, दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा सरकार के व्यापक निजीकरण योजना का मात्र एक हिस्सा है. सरकार ने वित्तीय वर्ष 2021-22 के दौरान बिक्री से 1.75 लाख करोड़ जुटाने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है. नीति आयोग ने छह बैंकों को निजीकरण अभियान से दूर रखने की अनुशंसा की है. ये हैं- पंजाब नेशनल बैंक, इंडिया बैंक, बैंक ऑफ बडौ़दा, स्टेट बैंक, यूनियन बैंक और केनरा बैंक. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इंडियन ओवरसीज बैंक, सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया और यूको बैंक के निजीकरण के लिए तत्काल में कोई कदम नहीं उठाया जाएगा, क्योंकि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने इनके सुधार के लिए कुछ कदम उठाने के निर्देश दिए हैं. इसका मतलब है कि पंजाब एंड सिंध बैंक, बैंक ऑफ महाराष्ट्र और बैंक ऑफ इंडिया का निजीकरण अविलंब होगा. हालांकि, सरकार किन दो बैंकों के निजीकरण की घोषणा करेगी, यह अभी तक स्पष्ट नहीं है. इसलिए इन बैंकों कर्मियों की धड़कनें तेज हैं.

निजीकरण क्यों

सरकारी बैंकों के लिए नॉन परफॉर्मिंग असेट्स (एनपीए) बड़ी चुनौती है. कोविड संकट के बाद स्थिति और भी गंभीर हुई है. सकल एनपीए अनुपात सितंबर 2020 में 7.5 फीसदी था. आरबीआई की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट के अनुसार सितंबर 2021 तक यह अनुपात 13.5 फीसदी तक बढ़ सकता है. इसकी वजह से सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में और अधिक नकदी का प्रवाह बढ़ाना होगा. पिछले दो सालों में केंद्र सरकार ने पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड्स और पूंजी इंजेक्शन के जरिए 80,000 करोड़ (2018), 70,000 करोड़ (2019) और 1.06 करोड़ की सहायता दी है. 2014-19 के दौरान करदाताओं के 3.19 ट्रिलियन रूपये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को दिए जा चुके हैं. सरकार निजीकरण का समर्थन कर रही है. उनका कहना है कि इससे उत्पादकता बढ़ेगी. निश्चित लाभ होगा और ग्राहकों को बेहतर सेवा मिल सकेगी. कुल मिलाकर कहें तो सरकार हर साल पैसा देकर उसे सहयोग करने से पीछे हटना चाहती है. इसका ये भी अर्थ है कि वे इनके कर्मियों की अक्षमता और अयोग्यता की ओर इशारा कर रही है. लेकिन ये भी सत्य है कि राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी की वजह से प्रभावशाली डिफॉल्टरों से नहीं निपटा जा सका.

सार्वजनिक बैंकों की भूमिका

बैंकिंग क्षेत्रों के विशेषज्ञ सरकार के उस निष्कर्ष की आलोचना करते हैं, जिसमें इन बैंकों के निजीकरण के लिए लाभ नहीं कमा पाने को आधार बताया गया है. उनके अनुसार यह संकीर्ण सोच है. विशेषज्ञों का कहना है कि सार्वजनकि क्षेत्रों के बैंकों ने उन इलाकों में बैंकिंग सेवाएं दी हैं, जहां निजी बैंक नहीं पहुंचते हैं. सरकारी बैंकों के जरिए ही वंचित वर्गों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचाई गईं. नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी बताते हैं कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद भारतीय बैंकिंग क्षेत्र का जितना अधिक विस्तार हुआ, उतना पूरी दुनिया में कहीं नहीं देखा गया. इसकी बदौलत सरकार को अपने सामाजिक आर्थिक दायित्वों को निभाने में बड़ी सहूलियत हासिल हुई. फिर चाहे वह किसान हो या छोटे व्यापारी या फिर ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि कार्य में जुटे लोग. इनकी वजह से यहां पर रोजगार में भी बढ़ोतरी हुई और गरीबी भी घटी.

सरकारी बैंकों से ग्रामीणों को फायदा

अर्थशास्त्रियों के बीच लगभग एक राय है कि भारत जैसे विकासशील देश में बैंकिंग क्षेत्र का निजीकरण सही कदम नहीं हो सकता है. अंतरराष्ट्रीय बैंकिंग विशेषज्ञ वाईवी रेड्डी कहते हैं कि इन बैंकों के द्वारा दी जाने वाली क्रेडिट का संबंध सीधे ही आर्थिक विकास से जुड़ा है. भारत को सीखना है तो वह जापान और जर्मनी जैसे देशों से सीख ले सकता है. यहां पर सरकारें ढांचागत प्रोजेक्ट के लिए बैंकों से उधार लेती हैं. भारत में बैंकिंग क्षेत्र सरकार की नीतियों की वजह से बेहतर उत्पादकता नहीं दे सकी. आईडीबीआई, आईसीआईसीआई, आईडीएफसीआई जैसे बैंकों को बदलकर ऑल पर्पस बैंक बना दिया गया. बड़े-बड़े उद्योगपतियों को ऋण दिया गया. सरकारी बैंकों से उधार देने की प्रक्रिया को काफी आसान और उदार बना दिया गया. नतीजा ये हुआ कि कुछेक क्षेत्रों को अधिक से अधिक लोन मिले. ढांचागत विकास करने वाली कंपनियां के साथ-साथ ऊर्जा, खनन और टेलिकॉम कंपनियों को सबसे अधिक फायदा मिला. निजी और विदेशी बैंकों की तुलना में रिजर्व बैंक प्रभावकारी और कुशल नियामक की भूमिका नहीं निभा सका. 1980 के दशक के बाद से राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता चला गया.

निजीकरण रामबाण नहीं

पिछले पांच सालों में निजीकरण की गति बढ़ गई, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक खराब ऋण की वजह से संघर्ष कर रहे हैं. 2010 में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की भागीदारी ऋण देने में 75 फीसदी से अभी अधिक थी. तब से उनकी भागीदारी लगातार घटती गई. सितंबर 2020 में यह 57 फीसदी हो गई. इन्हीं 10 सालों के दौरान निजी बैंकों की भागीदारी 17 फीसदी से बढ़कर 35 फीसदी तक हो गई. हालांकि, सार्वजनिक बैंकों में कुल जमा राशि के हिसाब से देखें तो इसका अनुपात उतना अधिक नहीं घटा. 2012 में मार्केट शेयर 74 फीसदी था और सितंबर 2020 में यह 62 फीसदी हो गया. इसका मतलब ये है कि निजी बैंक की प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ी, लेकिन लोगों का विश्वास अब भी पैसा जमा करने के मामलों में सरकारी बैंक पर ही है.

बैंकों के राष्ट्रीयकरण की वजह से इसका विस्तार हुआ. तकनीक का भी विस्तार हुआ. फिर भी बैंक अब भी मेट्रो केंद्रित माना जाता है. 2018 के आंकड़ों के मुताबिक 20 फीसदी ब्रांच 53 मेट्रो सेंटर में हैं. लेकिन यहां पर कुल जमा का 50 फीसदी हिस्सा है. उन्होंने कुल अग्रिमों का 64 फीसदी ऋण दिया.

शहरी (अर्बन) क्षेत्रों में 19 फीसदी शाखाएं हैं. यहां पर कुल जमा का 21.5 फीसदी हिस्सा है. कुल अग्रिमों में 15 फीसदी ऋण दिया.

मेट्रो शाखाएं 100 रुपये पर 97 रुपये ऋण दे देते हैं, जबकि अर्बन शाखा में क्रेडिट जमा अनुपात 55 फीसदी है.

निजी बैंक पहाड़ी और ग्रामीण इलाकों में कार्यालय खोलने के प्रति अनिच्छुक रहती हैं. इसकी वजह से इन इलाकों में रहने वाले लोगों को बैंकिंग सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं. निजी बैंक किसानों और छोटे व्यवसायियों को उधार देने से हिचकती हैं. ऐसे में सारा भार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर ही पड़ता है.

मोदी सरकार की सभी महत्वाकांक्षी योजनाएं पीएम जनधन योजना, पीएम गरीब कल्याण योजना, पीएम जीवन ज्योति बीमा योजना, पीएम सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना, पीएम मुद्रा योजना सार्वजनिक बैंकों के जरिए ही आम जनता तक पहुंचीं. ऐसे में यह कहना कि सार्वजनिक बैंक को सिर्फ लाभ के आधार पर मापा जाए, कहीं से भी संगत नहीं जान पड़ता है. उनकी सामाजिक जवाबदेही की पूरी तरह से अनदेखी नहीं की जा सकती है.

भारत 2008 का वैश्विक वित्तीय संकट झेल सका क्योंकि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की स्थिति ठीक थी. सिर्फ बैंकों के विलय कर देने से अपने आप प्रशासन बेहतर हो जाएगा, ऐसा नहीं है. अक्षमता सिर्फ सरकारी बैंकों तक सीमित नहीं होती है. अंतरराष्ट्रीय अध्ययन बताते हैं कि ऐसा नहीं है कि निजी क्षेत्रों के बैंकों में एनपीए को बेहतर ढंग से प्रबंधन करने की क्षमता होती है. इसी तरह से निजी बैंकों में धोखाधड़ी की घटनाएं नहीं होती हैं, ऐसा भी नहीं है.

क्या है रास्ता

भारत में 19 करोड़ व्यस्कों का खाता अब भी नहीं खुला है. इसका मतलब है कि इतनी बड़ी आबादी को शीघ्र से शीघ्र बैंकिंग व्यवस्था का हिस्सा बनाना चाहिए. अन्य समावेशी सूचकांक में भी भारत काफी पीछे है. बैंकों को सिर्फ बिजनेस गतिविधि से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है. सामाजिक इंजीनियर के रूप में भी इसकी भूमिका है. सतत समावेशी विकास का यह एक एजेंट है. यानी रणनीतिक क्षेत्रों में मात्र भागीदारी से कुछ नहीं होने वाला है. अच्छा होगा कि केंद्र सरकार समावेशी, योग्य, दक्ष, उत्पादन बढ़ाने वाला और विश्वसनीय बैंकिंग व्यवस्था को बढ़ावा दे. सरकारी और निजी दोनों बैंकों को साथ-साथ काम करना चाहिए. स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा हो सकती है. बैंकों को प्राथमिक रूप से पर्याप्त राजकोषीय समर्थन के साथ सामाजिक बैंकिंग पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है. कॉरपोरेट गवर्नेंस के संबंध में बात करें तो केंद्र सरकार को रिजर्व बैंक को तटस्थ अंपायर द्वारा सरकारी और निजी बैंकों के बीच अपनी कार्यात्मक स्वायत्तता का उपयोग करने की अनुमति देनी चाहिए.

(लेखक- डॉ एवीआर ज्योति कुमार, कॉमर्स डिपार्टमेंट, मिजोरम सेंट्रल यूनिवर्सिटी)

Last Updated : Apr 14, 2021, 10:41 PM IST

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