नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट (SC) ने शुक्रवार को कहा कि गुजरात में 2002 के दंगों पर झूठे खुलासे कर सनसनी पैदा करने के लिए राज्य सरकार के असंतुष्ट अधिकारियों को कठघरे में खड़ा किए जाने और उनके खिलाफ कानून के अनुसार कार्रवाई करने की जरूरत है. शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि उसे राज्य सरकार की इस दलील में दम नजर आता है कि संजीव भट्ट (तत्कालीन आईपीएस अधिकारी), हरेन पांड्या (गुजरात के पूर्व गृह मंत्री) और आरबी श्रीकुमार (अब सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी) की गवाही मामले को केवल सनसनीखेज बनाने और इसके राजनीतिकरण के लिए थी, जबकि यह झूठ से भरा हुआ था.
पांड्या की 26 मार्च 2003 को अहमदाबाद के लॉ गार्डन के पास मॉर्निंग वॉक के दौरान गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. शीर्ष अदालत ने कहा कि भट्ट और पांड्या ने खुद को उस बैठक के चश्मदीद गवाह होने का झूठा दावा किया, जिसमें तत्कालीन मुख्यमंत्री (नरेंद्र मोदी) द्वारा कथित तौर पर बयान दिए गए थे और विशेष जांच दल (एसआईटी) ने उनके दावों को खारिज कर दिया था. न्यायालय ने कहा, 'अंतत: यह हमें प्रतीत होता है कि गुजरात सरकार के असंतुष्ट अधिकारियों के साथ-साथ अन्य लोगों का एक संयुक्त प्रयास (इस प्रकार के) खुलासे करके सनसनी पैदा करना था, जबकि उनकी जानकारी झूठ पर आधारित थी.'
न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति दिनेश माहेश्वरी और न्यायमूर्ति सीटी रविकुमार की पीठ ने कहा, 'विस्तृत जांच के बाद एसआईटी ने उनके दावों के झूठ को पूरी तरह से उजागर कर दिया था.' पीठ ने कहा, 'किसी गुप्त उद्देश्य के लिए मामले को जारी रखने की गलत मंशा से प्रक्रिया का गलत इस्तेमाल करने वालों को कटघरे में खड़ा करके उनके खिलाफ कानून के दायरे में कार्रवाई की जानी चाहिए.'
न्यायालय ने कहा, 'वास्तव में, प्रक्रिया के इस तरह के दुरुपयोग में शामिल सभी लोगों को कटघरे में रखने और कानून के अनुसार आगे बढ़ने की आवश्यकता है.' पीठ ने कहा, 'उच्चतम स्तर पर बड़े आपराधिक षड्यंत्र की संरचना का आरोप लगाने वाला झूठा दावा एसआईटी द्वारा गहन जांच के बाद ताश के पत्तों की तरह ढह गया.' पीठ ने कहा, 'एसआईटी द्वारा गहन जांच के बाद एकत्रित विश्वसनीय निर्विवाद सामग्री के आधार पर इस तरह के दावे का झूठ पूरी तरह से उजागर हो गया है.'
शीर्ष अदालत ने कहा कि दो व्यक्तियों- संजीव भट्ट और हरेन पांड्या- के दावों के झूठ को उजागर करने के अलावा, एसआईटी ने ऐसी सामग्री जुटाई है जो पूरे गुजरात में सामूहिक हिंसा की सहज विकसित स्थिति को नियंत्रित करने के लिए संबंधित राज्य पदाधिकारियों की कड़ी मेहनत और योजना को दर्शाती है. शीर्ष अदालत ने कहा कि राज्य प्रशासन के एक वर्ग के कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या विफलता राज्य सरकार के अधिकारियों द्वारा पूर्व नियोजित आपराधिक साजिश का अनुमान लगाने या इसे अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ राज्य द्वारा प्रायोजित अपराध (हिंसा) के रूप में घोषित करने का आधार नहीं हो सकता है.
'कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता पूर्व नियोजित साजिश का आधार नहीं हो सकती'
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रशासन के किसी एक वर्ग के कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या असफलता मामले को प्राधिकारियों का पूर्व नियोजित आपराधिक षड्यंत्र या अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ सरकार प्रायोजित अपराध करार दिए जाने का आधार नहीं हो सकती. न्यायालय ने कहा कि ऐसी स्थिति में, कानून-व्यवस्था को सरकार प्रायोजित गतिविधियों के तहत नष्ट किए जाने के बारे में विश्वसनीय सबूत होने चाहिए और केवल राज्य प्रशासन की निष्क्रियता या विफलता के आधार पर साजिश होने का अनुमान नहीं लगाया जा सकता है.
पीठ ने कहा, किसी भी मामले में, राज्य प्रशासन के एक वर्ग के कुछ अधिकारियों की निष्क्रियता या विफलता राज्य सरकार के अधिकारियों की ओर से पूर्व नियोजित आपराधिक साजिश किए जाने का अनुमान लगाने या अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ सरकार प्रायोजित अपराध (हिंसा) करार दिए जाने का आधार नहीं हो सकती. उसने कहा कि एसआईटी ने जिक्र किया है कि दोषी अधिकारियों की निष्क्रियता और लापरवाही का उचित स्तर पर संज्ञान लिया गया है और उनके खिलाफ विभागीय कार्रवाई भी शुरू की गई है. पीठ ने कहा कि एसआईटी को राज्य प्रशासन की विफलताओं की जांच करने का काम नहीं दिया गया था, बल्कि उसे बड़ी आपराधिक साजिश के आरोपों की जांच करने को कहा गया था.
अदालत ने जिक्र किया कि एसआईटी ने गोधरा ट्रेन घटना सहित नौ अलग-अलग अपराधों की जांच के दौरान राज्य भर में हुई सामूहिक हिंसा की अलग-अलग घटनाओं को जोड़ने वाली कोई साजिश नहीं पाई. यह जांच एसआईटी ने शीर्ष अदालत की कड़ी निगरानी में की थी और न्याय मित्र ने इसमें सक्षम सहायता प्रदान की थी. पीठ ने कहा कि एसआईटी की जांच में पाया गया कि एक के बाद एक तेजी से घटनाएं हुई और इसने पहले से मौजूद व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया था. इस मामले में राज्य के सबसे अशांत क्षेत्रों में कर्फ्यू लागू करने के अलावा 28 फरवरी, 2002 को सेना को बुलाया गया था. पीठ ने कहा कि राज्य प्रशासन की क्षमता कम पड़ने की समस्या पैदा होना कोई नई नहीं है. उसने कहा कि दुनिया भर में कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के दौरान सबसे अच्छी चिकित्सा सुविधाओं वाले देश भी चरमरा गए और उनका प्रबंधन विफल रहा.
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शीर्ष अदालत ने कहा, न्याय की तलाश के हिमायती अपने वातानुकूलित कार्यालयों के आरामदायक माहौल में बैठकर ऐसी भयावह स्थिति के दौरान विभिन्न स्तरों पर राज्य प्रशासन की विफलताओं को जोड़ने में सफल हो सकते हैं, जबकि वे राज्य में सामूहिक हिंसा के बाद बदल रहे हालात को काबू करने के लिए जिम्मेदार लोगों द्वारा किए गए लगातार प्रयासों और जमीनी हकीकत का जिक्र तक नहीं करते या उन्हें इसकी थोड़ी सी भी जानकारी नहीं होती.
अदालत ने कहा कि इस तरह की विफलताओं को जोड़ना उच्चतम स्तर पर आपराधिक साजिश रचे जाने संबंधी संदेह के लिए पर्याप्त आधार नहीं है. उसने कहा कि कानून-व्यवस्था की स्थिति के कुछ समय के लिए गड़बड़ाने को कानून के शासन का ध्वस्त होना या संवैधानिक संकट नहीं कहा जा सकता. पीठ ने कहा कि एक संक्षिप्त अवधि के दौरान कानून-व्यवस्था बनाए रखने में विफलता को संविधान के अनुच्छेद 356 में निहित सिद्धांतों के संदर्भ में संवैधानिक तंत्र की विफलता नहीं माना जा सकता. उसने कहा, यह साबित करने के लिए विश्वसनीय साक्ष्य होने चाहिए कि सरकार प्रायोजित गतिविधियों के कारण कानून-व्यवस्था की स्थिति गड़बड़ाई.
(पीटीआई-भाषा)