नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने जनजाति समाज को वनों पर अधिकार देने की पहल की है. इसके लिए केंद्रीय जनजाति कार्य मंत्री अर्जुन मुंडा और केंद्रीय वन-पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संयुक्त रूप से घोषणा की.
दोनों मंत्रालयों के प्रमुख सचिवों के हस्ताक्षर वाला संयुक्त पत्रक जारी किया गया. इसका प्रमुख उद्देश्य वन अधिकार कानून के तहत सामुदायिक वन संसाधनों का अधिकार ग्राम सभा को देना है.
संसाधनों से वंचित है जनजाति समाज
दरअसल इस कानून का क्रियान्वयन करने का कार्य जनजाति विभाग का है, जो इसका नोडल विभाग है. केंद्रीय जनजाति मंत्रालय ने सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को इस संबंध में समय-समय पर दिशा निर्देश भेजे लेकिन कई राज्यों में जनजाति मंत्रालय के साथ वन मंत्रालय का तालमेल नहीं होने के कारण जनजाति समाज आज भी वन संसाधनों से वंचित है.
इस वन अधिकार कानून-2006 के लागू होने के बावजूद वन विभाग के अलग-अलग नियम और कानून होने के कारण, राज्यों की फोरेस्ट ब्यूरोक्रेसी द्वारा इस क़ानून की मनमानी व्याख्या के कारण अनेक राज्यों ने जनजाति समाज को अपने परंपरागत वन क्षेत्र के पुनर्निर्माण, संरक्षण, संवर्धन एवं प्रबंधन के अधिकारों से वंचित रखा. यही वजह है कि 2007 से अब तक इस सामुदायिक वन अधिकार का क्रियान्वयन 10% भी नहीं हुआ है.
ये राज्य दे रहे वित्तीय सहयोग
महाराष्ट्र और ओडिशा जैसे कुछ राज्यों ने सामुदायिक वन अधिकार के तहत ग्राम सभाओं को सामुदायिक वन क्षेत्र की सुक्ष्म कार्य योजना बनाने के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान किया है. महाराष्ट्र में ग्राम सभाओं को सक्षम करते हुए सामुदायिक वन प्रबंधन का एक डिप्लोमा कोर्स भी शुरू किया है.
वनवासी कल्याण आश्रम ने की तारीफ
इस पहल के लिए अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम ने जावड़ेकर और अर्जुन मुंडा की तारीफ की. साथ ही आशा जताई कि इसके क्रियान्वयन में कोई समस्या आती हो तो दोनों मंत्रालय उसका समाधान करेंगे. इसके साथ ही वनवासी कल्याण आश्रम की ओर से कहा गया कि जनजाति समाज के जन प्रतिनिधि, जनजाति समाज के शिक्षित युवा इस कानून के तहत सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार प्राप्त करने के लिए उचित प्रक्रिया से आवेदन करवाएं.
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अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम की ओर से कहा गया कि गांवों में जनजागरण और उन्हें संगठित कर वन संसाधनों का पुनर्निर्माण-संवर्धन करते हुए वनों की रक्षा करें. इससे वन पर्यावरण एवं जैव विविधता की रक्षा होगी साथ ही ग्रामीण जनजातियों को उपलब्ध स्थानीय आजीविका भी सुरक्षित होगी जिससे पलायन भी रोका जा सकेगा.