नई दिल्ली : भारत में किसी भी पब्लिकेशन, टेलीकास्ट या विचारों के प्रसारण के आधार पर पत्रकारों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई को रोकने के लिए निर्देश देने की मांग करने वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता इसे लेकर केंद्र सरकार को प्रतिनिधित्व दे.
मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि ये सरकार पर है कि इस पर कोई फैसला ले. अदालत इस मामले में कोई आदेश नहीं देना चाहती.
दरअसल वकील घनश्याम उपाध्याय द्वारा याचिका में दो मीडिया संस्थानों को 'राष्ट्रवादी' और 'देशभक्त' मीडिया बताते हुए कहा गया था कि राष्ट्र विरोधी तत्वों द्वारा इनको घेरने दबाने की कोशिश की गई है.
इसमें संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत प्रेस, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के मौलिक अधिकारों के संरक्षण के रूप में प्रेस के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए दिशा निर्देश जारी करने की मांग की गई, जिसमें कहा गया है कि मीडिया पर तब तक एफआईआर / अभियोजन दर्ज न हो जब तक कि इसके लिए प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया और / या अदालत द्वारा नामित किसी भी न्यायिक प्राधिकरण द्वारा अनुमति न दी गई हो.
यह कहते हुए कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के खिलाफ की गई कार्रवाई नागरिकों को संविधान के अनुच्छेद 19 (1) के तहत दी गई सूचना के अधिकार पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है, यह याचिका पत्रकारों की राय लेने के लिए पत्रकारों के खिलाफ प्रतिकूल कार्रवाई करने के लिए विशिष्ट दिशानिर्देश की मांग कर रही थी.
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बोलने की आजादी और अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रभावी ढंग से उपयोग करने के लिए और राय बनाने के लिए देश में निष्पक्ष पत्रकार होना आवश्यक है, जो बिना किसी भय के अपना कर्तव्य निभा सके.
बता दें, दो पत्रकारों के खिलाफ दायर हालिया मामलों का उल्लेख करते हुए याचिका दायर की गई थी, जिन पर याचिकाकर्ता के अनुसार कथित रूप से 'झूठे, मूर्खतापूर्ण, घिनौने और दुर्भावनापूर्ण अभियोजन के लिए आरोप लगाए गए हैं.
इस पृष्ठभूमि में, यह दलील दी गई थी कि यह अत्यंत आवश्यक है कि भारत सरकार द्वारा दिशानिर्देश तैयार किए जाएं, क्योंकि आईपीसी की धारा 295 ए, 153, 153 ए, 153 ए, 298, 500, 504, 505 (2), 506 (2), 120-बी के तहत दंडनीय अपराधों के संबंध में पत्रकारों, मीडिया हाउसों, उनके अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करने के लिए मंजूरी अनिवार्य कर जानी चाहिए.