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विशेष लेख : क्या दिवास्वप्न है भारतीय अर्थव्यवस्था का लक्ष्य? - भारतीय अर्थव्यवस्था विशेष लेख

हांगकांग स्थित बड़ी आर्थिक कम्पनी एचएसबीसी ने दो साल पहले ये कहा था कि बेहतर विकास दर, और मजबूत आर्थिक ढांचे के कारण 2028 तक भारत, जापान और जर्मनी से आगे निकल जाएगा. हालांकि मौजूदा हालातों को देखते हुए ये बात अब तार्किक नहीं रह गई है. जानकारों का ये भी कहना है कि अगर एनडीए सरकार को भारतीय अर्थव्यवस्था को अगले पांच सालों में पांच ट्रिलियन का बनाने का अपना सपना साकार करना है तो देश को 8% सालाना की विकास दर को पाना होगा. पढ़ें देश के अर्थव्यवस्था पर विवेचनात्मक आलेख...

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Published : Dec 18, 2019, 2:39 PM IST

Updated : Dec 18, 2019, 7:24 PM IST

भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास और रुझानों पर पांच महीने पहले दो तरह के दृष्टिकोण सामने आए थे. एक आर्थिक सर्वेक्षण ने यह कहा है कि, आर्थिक विकास दर 7% के नीचे नहीं आएगी, वहीं कैग ने अपनी रिपोर्ट में देश में आर्थिक मंदी से खतरे की घंटी बजाई है. पिछले कुछ समय से जिस तरह के हालात अर्थव्यवस्था में दिख रहे हैं, उन्होंने कैग के अनुमान को सही ठहराया है.

जहां एक तरफ कई अर्थशास्त्रियों और जानकारों ने अर्थव्यवस्था के खराब हालात की बात कही है, सरकार का इस तरफ नजरिया अलग है. ताजा सरकारी रिपोर्ट और आंकड़े इस तरफ इशारा करते हैं कि सरकार के पास मंदी से निबटने को लेकर और समय नही बचा है. निर्माण, खदान और ऊर्जा के क्षेत्रों में लगातार तीसरे महीने रही मंदी ने घरेलू उत्पाद क्षेत्र में आ चुकी कमी को सही साबित कर रही है. इसके अलावा, सबसे ज्यादा परेशानी का सबब यह है कि कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक, वाहन निर्माण के क्षेत्र में करीब 30% की गिरावट देखने को मिली है.

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले सितंबर मे कहा था कि 2014 से महंगाई दर में कोई बढ़ोत्तरी नही हुई है. वहीं पिछले नवंबर में ही रिटेल मंहगाई दर तीन सालों के अधिकतम स्तर 5.5% पर जा पहुंची थी. इसमे, खाद्य पदार्थों की मंहगाई दर दस फीसदी तक चली गई थी. करीब छह साल पहले, जब मंहगाई दर दो अंको में थी, तब से आर्थिक मंदी ने अपने पैर फैलाने शुरू कर दिये थे.

कुछ ऐसे ही हालात देश में लोगों के बीच बढ़ती बेरोजगारी के कारण घर करते जा रहे हैं. दो हफ्ते पहले ही निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा में कहा था कि आर्थिक रुझानों के अनुसार मंदी न आई है और न ही आयेगी. वित्त मंत्री ने मंदी और उसके बढ़ते खतरों को सिरे से खारिज कर कई लोगों को चौंका दिया था. सबसे पहले समस्या को मानना और चिन्हित करना ज्यादा आवश्यक है क्योंकि इसी के बाद हम समस्या के निस्तारण के लिये सही उपाय तलाश कर सकेंगे.

पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के द्वारा दिए गए सुझाव इसी तरफ इशारा करते हैं. उन्होने काफी विश्लेषण के बाद कहा था कि लंबे समय से चली आ रही पांच समस्याएं यूपीए से एनडीए सरकार में भी आ गई हैं. इन्ही के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ रहा है. बुनियादी ढांचों के निर्माण से जुड़े कामों में लालफीताशाही के कारण होने वाली देरी, ऊर्जा उत्पाद में घीमी रफ्तार, आसानी से लोन का न मिलना, कृषि क्षेत्र में विकास न होना और किसानों को उनके उत्पाद का सही दाम न मिलना, इन सभी कारणों ने मिलकर देश की अर्थव्यवस्था पर ब्रेक लगा दिये हैं.

इसे भी पढ़ें- विशेष लेख : शांतिपूर्ण तरीके से सीमा विवाद के खात्मे की तरफ बढ़ते भारत-चीन

इसके साथ साथ आर्थिक मंदी के पीछे नीतिगत स्तर पर सही फैसलों ना लेना, निवेश और निर्यात में गिरावट, लोगों में खरीद की क्षमता की कमी भी आर्थिक मंदी के लिए जिम्मेदार हैं. केंद्र सरकार द्वारा रेवेन्यू री-असेसमेंट के कारण राज्यों के बजट पर भी विपरीत असर पड़ा है.

जानकारों का कहना है कि बाहरी निवेश और नीतियों में दूरगामी बदलावों से इस समस्या से निबटने की कोशिश की जा सकती है. इसके लिये ऊर्जा और बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. जब दो कैबिनेट समितियां निवेश लाने और रोजगार के अवसर पैदा करने में कामयाब नही हो सकी हैं, तो सरकार देश के सामने खड़ी चुनौतियों से निबटने के लिए और समय नहीं मांग सकती है.

हांगकांग स्थित बड़ी आर्थिक कम्पनी एचएसबीसी ने दो साल पहले ये कहा था कि बेहतर विकास दर, और मजबूत आर्थिक ढांचे के कारण 2028 तक भारत, जापान और जर्मनी से आगे निकल जाएगा. हालांकि मौजूदा हालातों को देखते हुए ये बात अब तार्किक नहीं रह गई है. जानकारों का ये भी कहना है कि अगर एनडीए सरकार को भारतीय अर्थव्यवस्था को अगले पांच सालों में पांच ट्रिलियन का बनाने का अपना सपना साकार करना है तो देश को 8% सालाना की विकास दर को पाना होगा. जापान की आर्थिक सलाहाकार कम्पनी होंचो नोमूरा ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चौथी तिमाही में 4.3% तक सीमित रहेगी.

ये अब एक टूटे सपने जैसा है, देश में इस समय, ऊर्जा, रियल एस्टेट, दूरसंचार, कोयला, नागरिक उड्डयन और बाकी क्षेत्रों में हालात ठीक नही हैं. पिछले सितंबर में सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स को घटाया था, लेकिन इससे कोई खास फायदा नही हुआ है. कई भागों में मंदी से निबटने के लिए जो कदम उठाये गये हैं, वो भी नाकाफी साबित हुए हैं. सीआईआई का कहना है कि एक नीति के तहत घरेलू निवेश, रोजगार के मौके पैदा करने और औद्योगिक उत्पाद को बढ़ाने पर ध्यान देने की आवश्यकता है. इन हालात में ये तर्क काफी हद तक सही लगता है.

ग्रामीण उद्योगो, शिक्षा, आईटी क्षेत्र और कृषि पर ध्यान देकर रोजगार के नये मौके पैदा किये जा सकते हैं. ये मंदी से निबटने के लिए सबसे कारगर उपाय होगा. जानकारों का कहना है कि विश्लेषण से ये बात साफ है कि अगर आरबीआई रेपो रेट की घोषणा करते समय इन पहलुओं पर भी ध्यान देता तो हालात इतने खराब नही होते.

हालांकि अब सरकार को आने वाले समय की दिक्कतों और उनसे देश की अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान पर ध्यान देना चाहिए.

भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास और रुझानों पर पांच महीने पहले दो तरह के दृष्टिकोण सामने आए थे. एक आर्थिक सर्वेक्षण ने यह कहा है कि, आर्थिक विकास दर 7% के नीचे नहीं आएगी, वहीं कैग ने अपनी रिपोर्ट में देश में आर्थिक मंदी से खतरे की घंटी बजाई है. पिछले कुछ समय से जिस तरह के हालात अर्थव्यवस्था में दिख रहे हैं, उन्होंने कैग के अनुमान को सही ठहराया है.

जहां एक तरफ कई अर्थशास्त्रियों और जानकारों ने अर्थव्यवस्था के खराब हालात की बात कही है, सरकार का इस तरफ नजरिया अलग है. ताजा सरकारी रिपोर्ट और आंकड़े इस तरफ इशारा करते हैं कि सरकार के पास मंदी से निबटने को लेकर और समय नही बचा है. निर्माण, खदान और ऊर्जा के क्षेत्रों में लगातार तीसरे महीने रही मंदी ने घरेलू उत्पाद क्षेत्र में आ चुकी कमी को सही साबित कर रही है. इसके अलावा, सबसे ज्यादा परेशानी का सबब यह है कि कंप्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक, वाहन निर्माण के क्षेत्र में करीब 30% की गिरावट देखने को मिली है.

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले सितंबर मे कहा था कि 2014 से महंगाई दर में कोई बढ़ोत्तरी नही हुई है. वहीं पिछले नवंबर में ही रिटेल मंहगाई दर तीन सालों के अधिकतम स्तर 5.5% पर जा पहुंची थी. इसमे, खाद्य पदार्थों की मंहगाई दर दस फीसदी तक चली गई थी. करीब छह साल पहले, जब मंहगाई दर दो अंको में थी, तब से आर्थिक मंदी ने अपने पैर फैलाने शुरू कर दिये थे.

कुछ ऐसे ही हालात देश में लोगों के बीच बढ़ती बेरोजगारी के कारण घर करते जा रहे हैं. दो हफ्ते पहले ही निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा में कहा था कि आर्थिक रुझानों के अनुसार मंदी न आई है और न ही आयेगी. वित्त मंत्री ने मंदी और उसके बढ़ते खतरों को सिरे से खारिज कर कई लोगों को चौंका दिया था. सबसे पहले समस्या को मानना और चिन्हित करना ज्यादा आवश्यक है क्योंकि इसी के बाद हम समस्या के निस्तारण के लिये सही उपाय तलाश कर सकेंगे.

पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन के द्वारा दिए गए सुझाव इसी तरफ इशारा करते हैं. उन्होने काफी विश्लेषण के बाद कहा था कि लंबे समय से चली आ रही पांच समस्याएं यूपीए से एनडीए सरकार में भी आ गई हैं. इन्ही के कारण देश की अर्थव्यवस्था पर बोझ पड़ रहा है. बुनियादी ढांचों के निर्माण से जुड़े कामों में लालफीताशाही के कारण होने वाली देरी, ऊर्जा उत्पाद में घीमी रफ्तार, आसानी से लोन का न मिलना, कृषि क्षेत्र में विकास न होना और किसानों को उनके उत्पाद का सही दाम न मिलना, इन सभी कारणों ने मिलकर देश की अर्थव्यवस्था पर ब्रेक लगा दिये हैं.

इसे भी पढ़ें- विशेष लेख : शांतिपूर्ण तरीके से सीमा विवाद के खात्मे की तरफ बढ़ते भारत-चीन

इसके साथ साथ आर्थिक मंदी के पीछे नीतिगत स्तर पर सही फैसलों ना लेना, निवेश और निर्यात में गिरावट, लोगों में खरीद की क्षमता की कमी भी आर्थिक मंदी के लिए जिम्मेदार हैं. केंद्र सरकार द्वारा रेवेन्यू री-असेसमेंट के कारण राज्यों के बजट पर भी विपरीत असर पड़ा है.

जानकारों का कहना है कि बाहरी निवेश और नीतियों में दूरगामी बदलावों से इस समस्या से निबटने की कोशिश की जा सकती है. इसके लिये ऊर्जा और बैंकिंग क्षेत्र की समस्याओं पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है. जब दो कैबिनेट समितियां निवेश लाने और रोजगार के अवसर पैदा करने में कामयाब नही हो सकी हैं, तो सरकार देश के सामने खड़ी चुनौतियों से निबटने के लिए और समय नहीं मांग सकती है.

हांगकांग स्थित बड़ी आर्थिक कम्पनी एचएसबीसी ने दो साल पहले ये कहा था कि बेहतर विकास दर, और मजबूत आर्थिक ढांचे के कारण 2028 तक भारत, जापान और जर्मनी से आगे निकल जाएगा. हालांकि मौजूदा हालातों को देखते हुए ये बात अब तार्किक नहीं रह गई है. जानकारों का ये भी कहना है कि अगर एनडीए सरकार को भारतीय अर्थव्यवस्था को अगले पांच सालों में पांच ट्रिलियन का बनाने का अपना सपना साकार करना है तो देश को 8% सालाना की विकास दर को पाना होगा. जापान की आर्थिक सलाहाकार कम्पनी होंचो नोमूरा ने कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चौथी तिमाही में 4.3% तक सीमित रहेगी.

ये अब एक टूटे सपने जैसा है, देश में इस समय, ऊर्जा, रियल एस्टेट, दूरसंचार, कोयला, नागरिक उड्डयन और बाकी क्षेत्रों में हालात ठीक नही हैं. पिछले सितंबर में सरकार ने कॉरपोरेट टैक्स को घटाया था, लेकिन इससे कोई खास फायदा नही हुआ है. कई भागों में मंदी से निबटने के लिए जो कदम उठाये गये हैं, वो भी नाकाफी साबित हुए हैं. सीआईआई का कहना है कि एक नीति के तहत घरेलू निवेश, रोजगार के मौके पैदा करने और औद्योगिक उत्पाद को बढ़ाने पर ध्यान देने की आवश्यकता है. इन हालात में ये तर्क काफी हद तक सही लगता है.

ग्रामीण उद्योगो, शिक्षा, आईटी क्षेत्र और कृषि पर ध्यान देकर रोजगार के नये मौके पैदा किये जा सकते हैं. ये मंदी से निबटने के लिए सबसे कारगर उपाय होगा. जानकारों का कहना है कि विश्लेषण से ये बात साफ है कि अगर आरबीआई रेपो रेट की घोषणा करते समय इन पहलुओं पर भी ध्यान देता तो हालात इतने खराब नही होते.

हालांकि अब सरकार को आने वाले समय की दिक्कतों और उनसे देश की अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान पर ध्यान देना चाहिए.

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भारत और चीन के बीच जारी सीमा-विवाद पर पिछले 16 सालों से जारी उच्च स्तर बातचीत का कोई ठोस नतीजा नहीं निकला है, लेकिन दोनों पक्षों ने किसी सकारात्मक नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद नहीं छोड़ी है. सीमा-विवाद वार्ता के लिए नियुक्त विशेष प्रतिनिधियों के बीच अब 22वीं बैठक ताज नगरी आगरा में होनेवाली है. 

भारत की तरफ से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल और चीन के विदेश मंत्री व स्टेट कौंसिलर वांग यी के बीच 21 दिसम्बर को होनेवाली बातचीत से यह उम्मीद करना गलत नहीं होगा कि दोनों विशेष प्रतिनिधि जमीनी वास्तविकता के आधार पर सीमा विवाद को हल करने की दिशा में कुछ कदम आगे बढ़ने में कामयाब होंगे. भारत और चीन के विशेष प्रतिनिधियों के बीच पिछली 21 बैठकों में हुए विचार-विमर्श से यह जाहिर होता है कि सीमा-विवाद को सुलझाना बेहद कठिन प्रक्रिया है. 

2003 में अटल बिहारी वाजपेयी व हु जिन्ताओ के बीच हुई शिखर में निर्णय लिया गया था कि सीमा विवाद सुलझाने के लिए विशेष प्रतिनिधियों के स्तर पर बातचीत होगी. इस बातचीत में ही तय हुआ था कि किस फ्रेमवर्क के तहत विवाद को सुलझाने की कोशिश होगी. 

2005 में डा.मनमोहन सिंह व वेन जिआबाओ के बीच हुई शिखर बैठक में राजनीतिक पैमानों व गाइडिंग सिद्घांत तय किए गए, जिसके तहत यह स्वीकार किया गया कि सीमा विवाद को सुलझाने के लिए प्रमुख भौगोलिक फीचर व जनसंख्या की बसाहट को ध्यान में रखा जाएगा. 

दोनों देशों के बीच इस बात पर भी अनौपचारिक सहमति बनी थी कि वास्तविक नियन्त्रण रेखा का आपसी सहमति से निर्धारण किया जाएगा, लेकिन चीन इस सहमति से पीछे हट गया. वास्तविक सीमा रेखा का निर्धारण न होने की वजह से ही दोनों देशों की सेनाओं के बीच कई बार टकराव की स्थितियां निर्मित हुई हैं. 

1962 के युद्घ में चीन ने अक्साई चीन के 37 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर कब्जा कर लिया था, जिस पर भारत का दावा है. पूर्वी क्षेत्र में चीन पूरे अरुणाचल प्रदेश को लोअर तिब्बत मानते हुए अपना दावा पेश करता है. चीन उन समझौतों को स्वीकार नहीं करता जो अंग्रेजी शासन के दौरान इन इलाकों के स्थानीय शासकों के साथ हुए थे. 

चीन की सीमाएं 14 देशों से मिलती हैं, जिनमें से अधिकांश के साथ सीमा-विवाद रहा है. कम्युनिस्ट सोवियत संघ और वियतनाम के साथ चीन ने युद्घ भी किया है. अपनी आर्थिक व सैन्य ताकत के बल पर चीन ने भारत और भूटान को छोड़कर लगभग सभी देशों के साथ अपने सीमा-विवाद सुलझा लिए हैं. जाहिर है ये सभी सीमा समझौतें चीन की शर्तों पर हुए हैं. 

पाकिस्तान ने पाक-अधिकृत जम्मू व कश्मीर का एक इलाका ही चीन को दे दिया. भारत की तुलना में चीन की अर्थव्यवस्था का आकार पांच गुना होने के बावजूद भारत ने अपने सीमा-हितों के साथ कोई समझौता नहीं किया है. 

डोकलाम क्षेत्र में जब भारत ने भूटान के पक्ष में सैन्य हस्तक्षेप किया था, तब चीन ने युद्घ की धमकी तक दी थी. चीन को अब इस बात का अहसास हो गया है कि सैन्य व आर्थिक ताकत के बल पर भारत को सीमा के सवाल पर झुकाना संभव नहीं है.

भारत और पाकिस्तान के बीच अन्तर्राष्ट्रीय सीमा व नियन्त्रण रेखा निर्धारित होने के बावजूद प्रतिदिन गोलीबारी की घटनाएं हो रही हैं, लेकिन चीन के साथ वास्तविक नियन्त्रण रेखा का निर्धारण न होने के बावजूद पिछले 57 सालों के दौरान एक भी गोली नहीं चली है. यह इस बात का प्रमाण है कि दोनों देश अपने विवादों का निपटारा शांतिपूर्ण बातचीत के माध्यम से ही करना चाहते हैं. 

सीमा विवाद का व्यापारिक व अन्य संबंधों पर कोई असर नहीं पड़ा है. आपसी व्यापार अब 80 अरब डालर से अधिक हो गया है. सीमा विवाद पर बातचीत की 

प्रक्रिया लंबी खिंचने के बावजूद जारी है. जम्मू व कश्मीर के सवाल पर चीन ने जिस तरह पाकिस्तान की तरफदारी की है, उससे यह स्पष्ट है कि वह भारत पर दबाव बनाए रखने की रणनीति पर चल रहा है. भारत ने भी कूटनीतिक स्तर पर अमेरिका, जापान व आस्ट्रेलिया के साथ अपने सैन्य संबंध मजबूत करके चीन की इस रणनीति को विफल करने की कोशिश की है. 

वर्तमान हालात में यह उम्मीद करना उचित नहीं होगा कि निकट भविष्य में भारत और चीन के बीच सीमा विवाद का हल निकल जाएगा. जाहिर है दोनों के देशों के बीच कोई भी समझौता लेन-देन के आधार पर ही होगा.

दोनों देशों के भीतर ऐसी स्थिति निर्मित करनी होगी कि समझौता जनता के स्तर पर सहज स्वीकार्य हो जाए. फौरी तौर पर भारत यह चाहता है कि चीन वास्तविक नियन्त्रण रेखा के निर्धारण के लिए तैयार हो जाए, ताकि सेनाओं के बीच होनेवाले टकरावों को रोका जा सके. 

डोकलाम जैसी घटनाओं ने दोनों के देशों की जनता के बीच तनाव बढ़ाया है, जिसका नकारात्मक असर बातचीत की प्रक्रिया पर भी पड़ा है. आगरा में अजीत डोवल व चीनी विदेश मंत्री वांग यी से किसी ठोस नतीजे की उम्मीद करना सही नहीं होगा. पिछले कुछ महीनों से जम्मू व कश्मीर के सवाल पर पैदा हुए तनाव की वजह से बातचीत की प्रक्रिया ठंडे बस्ते में बंद थी. 

दोनों देशों को इस बात का अहसास है कि यदि सीमा विवाद का हल निकल जाए, तो आपसी रिश्ते नई उंचाई पर पहुंच सकते हैं. 

पिछले कई महीनों से अमेरिका के साथ जारी व्यापार युद्घ की वजह से चीन की आर्थिक विकास दर में गिरावट दर्ज हुई है. कई अमेरिकी कंपनियों ने चीन में अपना कारोबार समेट लिया है या कम कर लिया है. व्यापार और निवेश के संदर्भ में चीन की कंपनियां भारत को बड़े अवसर के तौर पर देख रही हैं.

भारत के खिलाफ जारी व्यापार असंतुलन दूर करने के लिए चीन ने ठोस कदम उठाने का निर्णय लिया है. भारत और चीन के बीच गहन होते आर्थिक संबंधों का सकारात्मक असर सीमा विवाद वार्ता पर भी दिखाई देगा. चीन के संदर्भ में भारत का सूत्र वाक्य यह कि मतभेदों को विवाद में तब्दील न होने दिया जाए. 

वास्तविक नियन्त्रण रेखा का निर्धारण जब तक नहीं होता, तब तक कई जगहों पर टकराव की स्थिति पैदा होगी. इन टकरावों को रोकने के लिए दोनों देशों ने एक तंत्र विकसित किया है जो कामयाब रहा है. दोनों देशों के बीच सहयोग के रास्ते से ही समस्याओं का हल संभव है. सीमा विवाद का हल निकालने के संदर्भ में दोनों देशों को लंबे धैर्य का परिचय देना होगा.



(लेखक- सुरेश बाफना)


Conclusion:
Last Updated : Dec 18, 2019, 7:24 PM IST
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