नई दिल्ली : एक दिन बाद रमजान का महीना शुरू होने वाला है. लेकिन कश्मीर में पहले से ही चिंताएं बढ़ गई हैं. हिंसा का साया दिखाई देने लगा है. हाल फिलहाल कुछ ऐसी घटनाएं हुई हैं, जो इसकी ओर इशारा कर रही हैं.
13-14 अप्रैल को अफगानिस्तान में राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय (एनडीएस) के कमांडो की एक टीम ने चौंकाने वाली जानकारी दी. नंगरहार प्रांत के मोमंड दारा में स्थित एक संदिग्ध तालिबान शिविर पर हमला करने और यहां पर 15 आतंकवादियों को मार गिराने पर, उन्होंने पाया कि केवल पांच अफगान थे. अन्य 10 जैश ए मोहम्मद (जेएम) पाकिस्तान और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के आतंकवादी थे. उन्हें कश्मीर में लड़ने के लिए तालिबान द्वारा प्रशिक्षित किया जा रहा था. गिरफ्तार आतंकी ने इसकी सच्चाई बताई.
भारतीय खुफिया एजेंसियों की नींद उड़ाने वाली खबर यह है कि तालिबान कश्मीर में आतंकी गतिविधि चलाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चला रहा है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार प्रशिक्षण दिए जाने का मॉड्यूल कश्मीर के लिए ही बनाया गया है. वहां का ढांचा नियंत्रण रेखा के आसपास जैसा बनाया गया है, ताकि आतंकी वहां की भौगोलिक स्थिति को समझ सकें.
यहां पर करीब 60 हजार तालिबानी मौजूद हैं. अफगानिस्तान के अंदर ये खुद एक स्टेट की तरह व्यवहार करते हैं. उनका कश्मीर के मुद्दे पर इस तरह समर्थन करना चिंता की बात है. भारत की सुरक्षा पर इसके दूरगामी परिणाम पड़ सकते हैं.
मीडिया के अनुसार यहां पर गैर अफगानी आतंकियों का जमावड़ा है. इसमें आईएस (दैश), अलकायदा और अन्य संगठन शामिल हैं. ये लोग बदख्शां इलाके के जुर्म जिले में दारा ए खुस्तक के नजदीक बेस बनाने की तैयारी कर रहे हैं.
पारंपरिक रूप से विद्रोही गतिविधियों का केंद्र, उत्तर-पूर्व अफगानिस्तान में बदख्शां, एक बहुत ही शांत और संवेदनशील प्रांत है. यह पाकिस्तान, तजिकिस्तान और चीन के साथ लंबी सीमा साझा करता है. यह इलाका पीओके से बहुत ज्यादा दूर नहीं है.
अफगनिस्तान में तालिबान बहुत मजबूत स्थिति में है और आईएसआई से उनकी घनिष्ठता किसी से छिपी नहीं है. अफगानिस्तान-पाकिस्तान सीमा पर इस्लामाबाद की ही चलती है. इसका अर्थ है कि पाक को पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के बारे में कोई चिंता नहीं है. उसे सिर्फ पूर्वी सीमा पर यानी भारत से लगती सीमा पर फोकस करना होता है. अफगानिस्तान में आईएसआई का बढ़ता वर्चस्व भारत के हित में नहीं है.
इस बीच कश्मीर घाटी में ग्रेनेड से हमला करने की घटना में इजाफा हो गया. अक्टूबर से ही इसे देखा जा सकता है. आतंकी मुख्य रूप से राज्य की पुलिस और पारा मिलिट्री पर हमले कर रहे हैं. द रेसिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने इन सब हमलों की जवाबदेही ली है.
पांच अप्रैल को टीआरएफ के पांच आतंकी मारे गए. एलओसी के पास केरन सेक्टर में कमांडो ने इन आतंकियों को ढेर किया. हालांकि हमारे पांच कमांडो भी शहीद हो गए. इस एनकाउंटर में पता चला कि टीआरएफ ने किस तरह की ट्रेनिंग ली हुई है.
अक्टूबर 2019 से टीआरएफ ने सोशल मीडिया पर आक्रामक पोस्टिंग की है. इस पोस्टिंग में उसने अपने आप को आतंकी का स्वदेशी चेहरा बनने का दावा किया है. खासकर तब, जबसे हिजबुल मुजाहिदीन की सक्रियता घटी. जैश ए मोहम्मद और लश्कर ए तैयबा के अधिकतर कैडर विदेशी हैं.
5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर का विभाजन कर दिया गया. टीआरएफ की सोच है कि वे इस विभाजन के बाद उपजे गुस्से को अपने में समाहित कर सकता है. वह इसका फायदा उठाने की फिराक में लगा है. उसके लिए यह उन्हें प्लेटफॉर्म दे सकता है.
ऐसी स्थितियों में टीआरएफ ओवर ग्राउंड वर्कर्स का फायदा उठा सकता है. यानी वैसे व्यक्ति, जो उग्रवादियों और उनके नेटवर्क से सहानुभूति रखते हैं. कश्मीर में ओजीडब्लू की संख्या काफी बड़ी है.
इसके अलावा, स्थानीय नेतृत्व के लगभग दूर हो जाने के कारण, लोगों की शिकायतों को दूर करने के लिए कोई तत्काल उपचारात्मक मंच नहीं है. टीआरएफ जैसे आउटफिट उस गुस्से का फायदा उठाने की कोशिश कर सकते हैं.
संयोग से अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद यह पहली गर्मी है. इसके अतिरिक्त, कोरोनावायरस महामारी की वजह से सेना और पारा मिलिट्री भी इन कामों में ही लगे हैं. यह एक ऐसी स्थिति है जिसका फायदा आतंकी उठा सकते हैं. दूसरी ओर, केंद्र सरकार ने कश्मीर में बड़े पैमाने पर सुधार के लिए कदम उठाए हैं. इसमें किसी भी असफलता को असफलता से कम नहीं माना जाएगा.
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इसलिए सुरक्षा प्रतिष्ठान उग्रवाद को खत्म करने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे. उनके बुनियादी ढांचे को तबाह करने का हर प्रयास होगा. दुर्भाग्य ये है कि ऐसे समय में अब दिल और दिमाग की लड़ाई पीछे छूट जाएगी.
अब तक, कुछ रुझान पहले से ही दिखाई दे रहे हैं जो प्रशासन को बहुत चिंतित करने वाले हैं. उल्लेखनीय रूप से चुनावी निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन की प्रक्रिया के लिए कोई सक्रिय प्रतिक्रिया नहीं हुई है, न ही अधिवास कानूनों में बदलाव के लिए. नागरिक समाज अपनी प्रतिक्रिया में मौन रहा है. दूसरी ओर, चिंता का विषय यह होगा कि हाल ही में मुठभेड़ों की संख्या में वृद्धि हुई है. कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिंसा कहीं फिर से बढ़ ना जाए.
(संजीव बरुआ)