नई दिल्ली : अप्रैल से जून तिमाही में भारत की जीडीपी विकास दर साल के 7 साल के निचले स्तर 5% पर पहुंच गई. बढ़ती खाद्य कीमतों के कारण, अगस्त में खुदरा मुद्रास्फीति 10 महीने के उच्च स्तर पर पहुंच गई. मई 2019 में बेरोजगारी की दर 45 साल के उच्च स्तर 6.1% पर थी.
भारत के अन्य भागों में समान रूप से, खेती का संकट, खाद्य कीमतें और बढ़ती बेरोजगारी महाराष्ट्र और हरियाणा के लोगों का सामना करने वाले वास्तविक मुद्दे बने रहे. नतीजतन अच्छे दिन के वादे को पूरा करने में असमर्थ सत्ताधारी पार्टी के विरूद्ध सत्ता विरोधी भावना मतदाताओं के दिल में जगह बनाने लगी है.
ऐसे वास्तविक मुद्दों पर मतदाताओं के गुस्से को बेअसर करने के लिए, सत्तारूढ़ भाजपा ने महाराष्ट्र में प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी-राष्ट्रवादी कंग्रेस पार्टी के खेमे के दलबदलुओं पर पूरी तरह से निर्भर होना पड़ा और हरियाणा में भाजपा विरोधी दलों के बीच एकता न होने का फायदा उठाने की कोशिश में लग गए.
इसके साथ ही, बीजेपी ने धारा 370 को रद्द किये जाने पर और एनआरसी पर जोर दिया, जिसका उद्देश्य (मुस्लिम) घुसपैठियों को देश के बाहर खदेड़ना है.फिर, 20 अक्टूबर को भारतीय सेना ने - मतदान से ठीक एक दिन पहले - नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान की गोलीबारी का मुंहतोड़ जवाब दिया, तुरंत मतदाताओं का ध्यान राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं की ओर आकर्षित हो गया.
इस रणनीति ने काम तो किया, लेकिन पूरी तरह से नहीं. हालांकि बीजेपी और शिव सेना गठबंधन ने 161 सीटें जीतीं, लेकिन बीजेपी की अपनी सीटें नवंबर, 2014 में मिली 122 से गिरकर अब 105 पर आ गई है. हरियाणा में भी, भाजपा - हालांकि सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है - जादुई आंकड़े से फिर भी दूर रह गई. नवंबर 2014 में इसकी सीटें 47 से गिरकर अब 40 हो गई.
अंतिम परिणाम के मद्देनजर आगामी राज्य चुनावों में भाजपा को राष्ट्रीय सुरक्षा और सांप्रदायिक रूप से ध्रुवीकरण के मुद्दों को उठाने में सावधानी बरतने की जरुरत है. इस तथ्य को देखते हुए कि इनके द्वारा चुनाव में उतारे सारे दलबदलू नेता हार गए हैं, बीजेपी आगामी चुनावों में भी पार्टी को अपना चुनाव चिन्ह देने से पहले अधिक सतर्कता बरतनी होगी. कुछ ही हफ्तों में झारखंड और फरवरी 2020 में दिल्ली में मतदान होना है. भाजपा के कार्यकर्ता महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों का जश्न मना तो रहे हैं, लेकिन नतीजे असल में विपक्ष में उत्साह का संचार कर रहे हैं. महाराष्ट्र में, भाजपा विरोधी हारे जरूर हैं, लेकिन खत्म नहीं हुए हैं.
यह तर्क महत्वपूर्ण है. 5 महीने पहले राष्ट्रीय चुनाव में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन 'राजग' ने महाराष्ट्र में 51.3% और हरियाणा में 58.3% वोट पाया था, जिससे विपक्षी दलों को काफी नुकसान हुआ, लेकिन उन्होंने बीजेपी को कड़ी टक्कर देते हुए काफी तेजी से वापसी की. हालांकि वे महाराष्ट्र या हरियाणा में अगली सरकार नहीं बना पाएंगे, लेकिन उनका प्रदर्शन संकेत देता है कि अगर वे एकजुट होकर लड़ाई लड़ते हैं तो वे भाजपा को शिकस्त दे सकते हैं.
हरियाणा में कांग्रेस का प्रभावशाली प्रदर्शन ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि इस भव्य और इतिहासिक पार्टी ने समाज के सभी वर्गों में अपना आकर्षण बरकरार रखा है. बावजूद इसके कि भजपा ने कांग्रेस के प्रस्तावित मुख्यमंत्री भूपिंदर हूडा को सिर्फ जाटों का नेता बताया, कांग्रेस ने 31 सीटों पर अपनी जीत दर्ज की. जाट बनाम गैर-जाट कार्ड को अपने चरम पर खेलने के बावजूद, अधिकांश सीटों पर भाजपा सभी गैर-जाट जातियों को अपने पाले में नहीं कर सकी. कई गैर-जाट जातियों ने कांग्रेस को भाजपा से बेहतर विकल्प के रूप में पाया.
लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि हरियाणा में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया, यहां तक कि जब गांधी परिवार काफी हद तक चुनाव प्रचार से दूर रहा. सोनिया गांधी को हरियाणा के महेंद्रगढ़ में एक रैली को संबोधित करना था लेकिन उन्होंने आखिरी समय में इसे रद्द कर दिया. पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने हरियाणा में केवल दो रैलियों को संबोधित किया. इसी तरह, राहुल गांधी ने महाराष्ट्र में केवल 5 रैलियों को संबोधित किया. पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी ने महाराष्ट्र को पूरी तरह से अनछुआ छोड़ दिया. प्रियंका गांधी - 23 जनवरी को राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद - 2019 के आम चुनावों में बड़े पैमाने पर प्रचार किया था. लेकिन उन्होंने भी इन 2 राज्यों में से किसी में भी प्रचार नहीं किया.
यहां तक कि गांधी परिवार की अनुपस्थिति में पार्टी की राज्य इकाइयां कमजोर महसूस कर रही थीं, दोनों राज्यों में भाजपा विरोधी मतदाताओं ने कांग्रेस पर अपना भरोसा दोहराया और क्षेत्रीय दलों ने वैचारिक रूप से भाजपा का विरोध किया. उनके सौजन्य से, कांग्रेस महाराष्ट्र में बची रही और हरियाणा में प्रभावशाली प्रदर्शन किया. इससे संकेत मिलता है कि चुनाव में प्रथम परिवार की सक्रिय भूमिका के बिना भी यह भव्य और ऐतिहासिक पार्टी जीत दर्ज करा सकती है.
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दूसरी तरफ, दोनों राज्यों के चुनावों में भाजपा की सीटों की संख्या में आई गिरावट प्रधानमंत्री मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के ज़रुरत से ज्यादा मौजूदगी के खामियाजे को रेखांकित करती है, जिसका पार्टी को विशलेषण करने की जरुरत है. प्रधानमंत्री मोदी ने 16 रैलियों को संबोधित किया (महाराष्ट्र में 9 और हरियाणा में 7). भाजपा अध्यक्ष और गृह मंत्री अमित शाह ने महाराष्ट्र में 16 और हरियाणा में 12 रैलियों को संबोधित किया था.
दोनों राज्यों में उम्मीद से कम प्रदर्शन करने वाली भजपा को अपने अपरंपरागत निर्णय जिसके आधार पर मुख्यमंत्रियों का चयन जो प्रमुख जातियों के खिलाफ जाकर अन्य जातियों के प्रति-समेकन के आधार पर किया था, उसपर पुनर्विचार करने की जरुरत है.
5 साल पहले, भजपा ने महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस, जो एक गैर-मराठा हैं, को मुख्यमंत्री बना दिया था, जबकि वहां 31% मराठाओं का वर्चस्व रहा है.यहां तक कि कई मराठा नेता चुनाव से ठीक पहले बीजेपी और शिवसेना में शामिल हो गए, उसके बावजूद मराठा मतदाता अपने पारंपरिक पसंदीदा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के प्रति वफादार रहे.
इसी तरह, जाटों के प्रभुत्व वाले राज्य में, बीजेपी ने मनोहर लाल खट्टर - एक पंजाबी - को नवंबर 2014 में मुख्यमंत्री बनाया था.30% - मजबूत जाटों ने बीजेपी के खिलाफ अपनी नाराजगी जताई थी. उन्होंने कांग्रेस और जननायक जनता पार्टी द्वारा गैर-जाट उम्मीदवारों की जीत सुनिश्चित की. और भाजपा द्वारा मैदान में उतारे गए जाट उम्मीदवारों की हार भी तय की. राज्य के वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु और कृषि मंत्री ओपी धनकड़ भाजपा के जाट उम्मीदवारों में से हैं, जो भाजपा के खिलाफ जाटों की जवाबी भावनाओं के कारण हार गए.
स्पष्ट रूप से, एक प्रमुख जाति के खिलाफ गैर-वर्चस्व वाली जातियों को समेकित करने की भाजपा की रणनीति ने वांछित परिणाम नहीं दिया है. इस बात से सबक लेकर आगामी झारखण्ड के चुनाव में उतरने की ज़रुरत है जहां की आबादी का 26% हिस्सा गिरिजनों का है. 2014 के चुनाव में आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी दाँव खेलते हुए, बीजेपी ने रघुबर दास (एक ओबीसी) को राज्य का पहला गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री बनाया था.
इसके अलावा, विधानसभा चुनावों के नतीजों ने शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को राष्ट्रीय राजनीति में अपनी मौजूदा भूमिका को बनाए रखने में और सक्षम बनाया है. शिवसेना ने सिर्फ राज्य में सत्ता के समान वितरण के लिए पहले से ही जोर देना शुरू कर दिया है, यह भविष्य में, राष्ट्रीय राजनीति में भाजपा की आलोचक भी बनी रहेगी. भाजपा और शिवसेना के बीच मतभेद आने वाले दिनों में व्यापक हो सकते हैं, इसके बावजूद कि वे महाराष्ट्र में एक और गठबंधन की सरकार बनाने जा रहे हैं.
दूसरी ओर, केंद्रीय एजेंसियों - जिन्होंने मतदान से ठीक पहले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेताओं के खिलाफ गंभीर भ्रष्टाचार और राष्ट्र-विरोधी आरोप लगाए हैं, - एनसीपी नेताओं से जुड़े भ्रष्टाचार के मामलों की ओर अपना रुख फिर से करेंगी. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी द्वारा अपना जनाधार व्यापक रूप से बढ़ने के बाद से पार्टी के प्रमुख शरद पवार का मनोबल ऊंचा है. राष्ट्रीय राजनीति में पवार का कद स्वाभाविक रूप से बढ़ गया है.
18 नवंबर को शीतकालीन सत्र शुरू होने पर इन राज्यों का जनादेश संसद के तल पर भी भाजपा के नेताओं को प्रभावित करेगा. प्रमुख बिलों के समर्थन के लिए गैर- राजग दलों से संपर्क करने में भगवा रणनीतिकार अधिक समाधानकारी रवैय्या अपनाएंगे.
महत्वपूर्ण बिंदु
दोनों राज्यों में भजपा की उम्मीद से कम प्रदर्शन दर्शाता है कि सोशल इंजीनियरिंग या सामाजिक अभियांत्रिकी के माध्यम से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और राष्ट्रवादी बयानबाजी से जीत का आंकड़ा पार करना अब मुश्किल साबित हो रहा है.
भाजपा को राष्ट्रवादी बयानबाजी और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की सीमित ग्रहणशीलता का एहसास होना निश्चित है. और खेती का संकट, खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों और बेरोजगारी जैसे वास्तविक मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान देने की ज़रुरत है.
यह बात जाहिर है कि भजपा बाहुबल वाले राष्ट्रवाद की ब्रांड है- जो पाकिस्तान और भारत के भीतर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाती है – वो एक नई राष्ट्रीय पहचान नहीं बनी है. इसलिए, यदि भाजपा विरोधी दल एक नई राष्ट्रीय पहचान बनाने में कामियाब होते हैं - जो कि भाजपा के विलक्षण हिंदू राष्ट्रवाद के विपरीत बहुलवादी हो, तो वे निश्चित रूप से भाजपा को हराने में कामयाब होंगे.