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हरित ऊर्जा की तरफ भारत के बढ़ते कदम.. जैव ईंधन के उत्पाद में नई पहल

जैव ईंधन (बायो फ्यूल) के उत्पाद में भारत, दुनिया के विकसित देशों से मुकाबला कर रहा है. भारत ने पहले ही, जेट्रोफा के पौधे से बायो फ्यूल बना लिया है, और अब देश के वैज्ञानिक, खाने के तेल से डीजल बनाने की तरफ कार्य कर रहे हैं. इस रिपोर्ट में हम, देश में जैव ईंधन को लेकर किये जा रहे प्रयासों के बारे में बात करेंगे.

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Published : Jan 4, 2020, 12:10 AM IST

जैव ईंधन (बायो फ्यूल) के उत्पाद में भारत, दुनिया के विकसित देशों से मुकाबला कर रहा है. भारत ने पहले ही, जेट्रोफा के पौधे से बायो फ्यूल बना लिया है और अब देश के वैज्ञानिक, खाने के तेल से डीजल बनाने की तरफ कार्य कर रहे हैं. इस रिपोर्ट में हम, देश में जैव ईंधन को लेकर किये जा रहे प्रयासों के बारे में बात करेंगे.

भारतीय पेट्रोलियम अनुसंधान संस्थान (आईआईपी), जो पहले जेट्रोफा के पौधे से जैव ईंधन बना चुका है. अब, खाना पकाने के तेल से डीजल बनाने पर काम कर रहा है. पिछले महीने, कोलकाता में हुए, इंटरनेशनल साइंस फेस्ट में, आईआईपी के वैज्ञानिकों ने इस बारे में प्रदर्शन किया.

ताजा खाने के तेल को मेथनॉल और कुछ केमिकल मिलाकर, डीजल में बदला जा सकता है. आईआईपी में कई सालों से जेट्रोफा से जैव ईंधन बनाया जा रहा है. कई राज्यों में किसानों ने जेट्रोफा की खेती करनी शुरू कर दी है. भारतीय किसान अब जेट्रोफा को तेजी से उगाने के लिये, इजरायल की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे है. वहीं, केंद्र सरकार की मदद से, अब देश भर में ईथनॉल को ईंधन की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है.

इसके साथ ही, खाना बनाने के तेल से जैव ईंधन बनाने की कोशिशें जारी हैं. आईआईपी द्वारा, जेट्रोफा से बनाये गये जैवईंधन को, दो स्ट्रोक इंजन को चलाने में कामयाबी से इस्तेमाल किया जा चुका है. महाराष्ट्र परिवहन विभाग के कुछ वाहन भी इस तेल का इस्तेमाल करते हैं.

इन सभी कामयाबियों के बावजूद, देश में व्यवसायिक तौर पर जैव ईंधन का उत्पाद शुरू नहीं हो सका है. खाने के तेल से डीजल बनाने की तरफ भी तेजी से काम हो रहा है. वहीं, जेट्रोफा से बने 330 किलो ईंधन से हाल ही में एक हवाई जहाज ने भी उड़ान भरी है.

स्पाइसजेट के इस विमान नें, 2018 में देहारदून से दिल्ली का सफर 45 मिनट में पूरा किया. 2019 की गणतंत्र दिवस परेड के दौरान, वायु सेना के एन-32 हवाई जहाज भी जेट्रोफा से बने ईंधन से उड़े थे. जेट्रोफा के पौधे में 40% तेल होता है.

इसे हवाई जहाज के सामान्य तेल में मिलाकर उड़ान भरी गई थी. छत्तीसगड़ के नकस्ल प्रभावित इलाकों में, 500 किसान जेट्रोफा की खेती कर रहा हैं.जैव ईंधन के उत्पाद के लिये, करीब 400 किस्म के बीजों का इस्तेमाल होता है. केरोसीन पर आधारित ईंधन से उड़ान भरने पर पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है. पर्यावरण में हो रहे बदलावों की 4.9% जिम्मेदारी हवाई जहाजों की है.

आईआईपी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ रंजन रे के अनुसार, जैवईंधन के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन में कमी आती है. भारत में इस्तमेाल होने वाले लड़ाकू विमान, सालाना, 60-70 लाख टन हवाई ईंधन की खपत करते हैं. इसमे से, आधे की पूर्ति जैव ईंधन से होती है, और इसमें एक तिहाई खाने के तेल के इस्तेमाल से न केवल, हवाई ईंधन की कीमत कम होगी, बल्कि कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आएगी.

एक लीटर खाना पकाने के तेल से, 850-900 मिलीलीटर जैवईंधन बनाकर डीजल बनाया जा सकता है. एफएसएसएआई ने, होटलों आदि में एक बार इस्तेमाल किये जा चुके खाने के तेल को दोबारा इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी है. ऐसे में, खाने के तेल से बनाये गये जैवईंधन के इस्तेमाल से, जेट प्लेन और मोटर इंजन चलाये जा सकते हैं, और कार्बन उत्सर्जन को भी कम किया जा सकता है. इसलिये, देश में जैवईंधन बनाने के कई प्रयास किये जा रहे हैं.

मौजूदा समय में, 9 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों में, बांस से ईथनॉल लेकर, जैवईंधन की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है. 2005 में भारत,165 बिलियन लीटर ईथनॉल का उत्पादन कर दुनिया में इसके चौथा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया था.

भारत, आने वाले समय में जैव ईंधन और सामान्य ईंधन के मेल के जरिये, देश में डीजल की खपत को 20% तक कम करने के लक्ष्य से काम कर रहा है. 2007 में, भारत ने ईस्ट एशियन एनर्जी सिक्योरिटी के लिये सीबू घोषणा पर दस्तखत किये थे. इस मसौदे में भारत के अलावा, आसियान के दस सदस्य देश (इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाइलैंड, ब्रुन्नै, वियेतनाम, लाओस, बर्मा और कंबोडिया) के साथ, चीन, जापान, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं.

इस संधि के तहत, जैंव ईंधन के लिये अनुसंधान और इसके विकास पर साझेदारी किये जाने की बात है. यह देश पहले से ही, कम होते तेल के भंडारों और वायु प्रदूषण के चलते, जैव ईंधन पर काम कर रहे है. जैव ईंधन के उत्पाद को लेकर, अमेरिका, ब्राजील, वेनेजुएला, कनाडा और कोलंबिया काफी आगे पहंच चुके हैं.

दुनिया के कुल जैव ईंधन का 40% का उत्पाद अमेरिका में ही होता है. अमेरिका सालाना करीब, 3-4 ट्रिलियन लीटर जैव ईंधन का उत्पाद करता है. 2.5 बिलियन लीटर के साथ ब्राजील दूसरे स्थान पर आता है. एक टन तेल के जलने से, करीब 3.15 टन चारकोल गैस का उत्सर्जन होता है.

दुनिया के कई देश, तेल के नुकसानों को कम करने के मकसद से जैव ईंधन के विकल्पों को तलाशने पर तेजी से काम कर रहे हैं. अमरीका में, ताजा और इस्तमेाल हो चुके खाने के तेल और जानवर की चर्बी से जैव ईंधन बनाया जा रहा है.

इस तरह का ईंधन सिविलियन और फौजी वाहनों में इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके लिये, जैवईंधन के 20 हिस्से को सामान्य डीजल के 80 हिस्से में मिलाया जाता है.2018 में अमेरिका ने बड़े पैमाने पर जैवईंधन पर आधारित जहाजों की उड़ान शुरू की थी.

बायो मीथेन और बायोडीजल जैसे जैव ईंधनों के उत्पाद के लिये दुनियाभर में परीक्षण हो रहे हैं. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी द्वारा तय लक्ष्यों को हासिल करने के लिये यह जरूरी है कि, 2030 तक दुनिया में जैवईंधन का उत्पाद तीन गुना हो जाये. इसके साथ ही इस बात की भी चिंता है कि अगर खाद्य फसलों को ईंधन की फसलों से बदला गया तो खाने की किल्लत भी हो सकती है.

जैव ईंधन (बायो फ्यूल) के उत्पाद में भारत, दुनिया के विकसित देशों से मुकाबला कर रहा है. भारत ने पहले ही, जेट्रोफा के पौधे से बायो फ्यूल बना लिया है और अब देश के वैज्ञानिक, खाने के तेल से डीजल बनाने की तरफ कार्य कर रहे हैं. इस रिपोर्ट में हम, देश में जैव ईंधन को लेकर किये जा रहे प्रयासों के बारे में बात करेंगे.

भारतीय पेट्रोलियम अनुसंधान संस्थान (आईआईपी), जो पहले जेट्रोफा के पौधे से जैव ईंधन बना चुका है. अब, खाना पकाने के तेल से डीजल बनाने पर काम कर रहा है. पिछले महीने, कोलकाता में हुए, इंटरनेशनल साइंस फेस्ट में, आईआईपी के वैज्ञानिकों ने इस बारे में प्रदर्शन किया.

ताजा खाने के तेल को मेथनॉल और कुछ केमिकल मिलाकर, डीजल में बदला जा सकता है. आईआईपी में कई सालों से जेट्रोफा से जैव ईंधन बनाया जा रहा है. कई राज्यों में किसानों ने जेट्रोफा की खेती करनी शुरू कर दी है. भारतीय किसान अब जेट्रोफा को तेजी से उगाने के लिये, इजरायल की तकनीक का इस्तेमाल कर रहे है. वहीं, केंद्र सरकार की मदद से, अब देश भर में ईथनॉल को ईंधन की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है.

इसके साथ ही, खाना बनाने के तेल से जैव ईंधन बनाने की कोशिशें जारी हैं. आईआईपी द्वारा, जेट्रोफा से बनाये गये जैवईंधन को, दो स्ट्रोक इंजन को चलाने में कामयाबी से इस्तेमाल किया जा चुका है. महाराष्ट्र परिवहन विभाग के कुछ वाहन भी इस तेल का इस्तेमाल करते हैं.

इन सभी कामयाबियों के बावजूद, देश में व्यवसायिक तौर पर जैव ईंधन का उत्पाद शुरू नहीं हो सका है. खाने के तेल से डीजल बनाने की तरफ भी तेजी से काम हो रहा है. वहीं, जेट्रोफा से बने 330 किलो ईंधन से हाल ही में एक हवाई जहाज ने भी उड़ान भरी है.

स्पाइसजेट के इस विमान नें, 2018 में देहारदून से दिल्ली का सफर 45 मिनट में पूरा किया. 2019 की गणतंत्र दिवस परेड के दौरान, वायु सेना के एन-32 हवाई जहाज भी जेट्रोफा से बने ईंधन से उड़े थे. जेट्रोफा के पौधे में 40% तेल होता है.

इसे हवाई जहाज के सामान्य तेल में मिलाकर उड़ान भरी गई थी. छत्तीसगड़ के नकस्ल प्रभावित इलाकों में, 500 किसान जेट्रोफा की खेती कर रहा हैं.जैव ईंधन के उत्पाद के लिये, करीब 400 किस्म के बीजों का इस्तेमाल होता है. केरोसीन पर आधारित ईंधन से उड़ान भरने पर पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है. पर्यावरण में हो रहे बदलावों की 4.9% जिम्मेदारी हवाई जहाजों की है.

आईआईपी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ रंजन रे के अनुसार, जैवईंधन के इस्तेमाल से कार्बन उत्सर्जन में कमी आती है. भारत में इस्तमेाल होने वाले लड़ाकू विमान, सालाना, 60-70 लाख टन हवाई ईंधन की खपत करते हैं. इसमे से, आधे की पूर्ति जैव ईंधन से होती है, और इसमें एक तिहाई खाने के तेल के इस्तेमाल से न केवल, हवाई ईंधन की कीमत कम होगी, बल्कि कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आएगी.

एक लीटर खाना पकाने के तेल से, 850-900 मिलीलीटर जैवईंधन बनाकर डीजल बनाया जा सकता है. एफएसएसएआई ने, होटलों आदि में एक बार इस्तेमाल किये जा चुके खाने के तेल को दोबारा इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी है. ऐसे में, खाने के तेल से बनाये गये जैवईंधन के इस्तेमाल से, जेट प्लेन और मोटर इंजन चलाये जा सकते हैं, और कार्बन उत्सर्जन को भी कम किया जा सकता है. इसलिये, देश में जैवईंधन बनाने के कई प्रयास किये जा रहे हैं.

मौजूदा समय में, 9 राज्यों और 4 केंद्र शासित प्रदेशों में, बांस से ईथनॉल लेकर, जैवईंधन की तरह इस्तेमाल में लाया जा रहा है. 2005 में भारत,165 बिलियन लीटर ईथनॉल का उत्पादन कर दुनिया में इसके चौथा सबसे बड़ा उत्पादक बन गया था.

भारत, आने वाले समय में जैव ईंधन और सामान्य ईंधन के मेल के जरिये, देश में डीजल की खपत को 20% तक कम करने के लक्ष्य से काम कर रहा है. 2007 में, भारत ने ईस्ट एशियन एनर्जी सिक्योरिटी के लिये सीबू घोषणा पर दस्तखत किये थे. इस मसौदे में भारत के अलावा, आसियान के दस सदस्य देश (इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, थाइलैंड, ब्रुन्नै, वियेतनाम, लाओस, बर्मा और कंबोडिया) के साथ, चीन, जापान, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं.

इस संधि के तहत, जैंव ईंधन के लिये अनुसंधान और इसके विकास पर साझेदारी किये जाने की बात है. यह देश पहले से ही, कम होते तेल के भंडारों और वायु प्रदूषण के चलते, जैव ईंधन पर काम कर रहे है. जैव ईंधन के उत्पाद को लेकर, अमेरिका, ब्राजील, वेनेजुएला, कनाडा और कोलंबिया काफी आगे पहंच चुके हैं.

दुनिया के कुल जैव ईंधन का 40% का उत्पाद अमेरिका में ही होता है. अमेरिका सालाना करीब, 3-4 ट्रिलियन लीटर जैव ईंधन का उत्पाद करता है. 2.5 बिलियन लीटर के साथ ब्राजील दूसरे स्थान पर आता है. एक टन तेल के जलने से, करीब 3.15 टन चारकोल गैस का उत्सर्जन होता है.

दुनिया के कई देश, तेल के नुकसानों को कम करने के मकसद से जैव ईंधन के विकल्पों को तलाशने पर तेजी से काम कर रहे हैं. अमरीका में, ताजा और इस्तमेाल हो चुके खाने के तेल और जानवर की चर्बी से जैव ईंधन बनाया जा रहा है.

इस तरह का ईंधन सिविलियन और फौजी वाहनों में इस्तेमाल किया जा रहा है. इसके लिये, जैवईंधन के 20 हिस्से को सामान्य डीजल के 80 हिस्से में मिलाया जाता है.2018 में अमेरिका ने बड़े पैमाने पर जैवईंधन पर आधारित जहाजों की उड़ान शुरू की थी.

बायो मीथेन और बायोडीजल जैसे जैव ईंधनों के उत्पाद के लिये दुनियाभर में परीक्षण हो रहे हैं. इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी द्वारा तय लक्ष्यों को हासिल करने के लिये यह जरूरी है कि, 2030 तक दुनिया में जैवईंधन का उत्पाद तीन गुना हो जाये. इसके साथ ही इस बात की भी चिंता है कि अगर खाद्य फसलों को ईंधन की फसलों से बदला गया तो खाने की किल्लत भी हो सकती है.

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