हैदराबाद : आज देश के महान विद्वान प्रधानमंत्री स्वर्गीय पीवी नरसिम्हा राव की जन्म शताब्दी है, जिन्हें राष्ट्र निर्माण और सार्वजनिक नीति और प्रशासन में उनकी महान अंतर्दृष्टि के कारण आधुनिक चाणक्य कहा जाता है. एक अल्पमत सरकार को पांच साल के पूर्ण कार्यकाल के लिए सफलतापूर्वक चलाने में अपने राजनीतिक कौशल के कारण जो एक दुर्लभ उपलब्धि थी, उन्हें लोगों ने आधुनिक चाणक्य कहा. मैं इस सुधारक, शिक्षाविद, भाषाविद और विद्वान पुरुष को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं.
राव की उनके वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को उदार बनाने, लाइसेंस-परमिट राज के चंगुल से बाहर निकालकर अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा के लिए खोलने के योगदान के बारे में बड़े पैमाने पर सार्वजनिक चर्चा हुई है, इसलिए मैं इसे नहीं दोहराऊंगा.
मैं केवल इतना ही कहना चाहूंगा कि उन्होंने भारत की कम विकास दर वाली आश्रित और लंगड़ाती अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण किया, जिसे दुनियाभर में 'विकास की हिंदू दर' (Hindu Rate of Growth) के रूप में भी जाना गया. पांच दशकों तक कम विकास दर रहने के बाद पहली बार राव के कार्यकाल में भारत विकास की हिंदू दर से बाहर आया.
मैंने जून 1994 से अक्टूबर 1997 तक केंद्रीय गृह सचिव के रूप में काम किया, जब वह प्रधानमंत्री थे. किसी भी सरकार में गृह सचिव का पद संवेदनशील होता है. इस पद पर अक्सर उस सनदी अधिकारी को रखा जाता है, जिसने प्रधानमंत्री के साथ पहले काम किया हो और जो उनके गृह राज्य कैडर का होने के साथ-साथ विश्वासपात्र हो. लेकिन मैं महाराष्ट्र कैडर का था. मैंने केंद्र सरकार में भी 1982-86 के सिवाए, जब मैं एक संयुक्त सचिव रहा, ज्यादा समय काम नहीं किया था.
मैं प्रधानमंत्री राव साहब से पहली बार 1993-94 के अपने दूसरे कार्यकाल के समय मिला, जब मैं कुछ महीने के लिए नगर विकास और गृह निर्माण मंत्रालय में सचिव था. इन कमियों के बावजूद मुझे गृह सचिव का पद दिया गया गया शायद मैं मानता हूं इसलिए कि तत्कालीन गृहमंत्री शंकर राव चौहान ने (जो महाराष्ट्र से आते हैं) मेरे बारे में प्रधानमंत्री से कहा होगा कि मैं एक ईमानदार और कार्यक्षम अधिकारी हूं.
मैं यह बात थोड़े विस्तार से यहां प्रदर्शित करने के लिए कह रहा हूं कि राव किसी का भी चयन फरमाइश के आधार पर नहीं बल्कि काबिलियत के आधार पर करते थे. इसी काबिलियत के कारण ही उन्होंने विपक्ष के नेता सुब्रमण्यम स्वामी को कैबिनेट मंत्री नियुक्त किया. एक और विपक्ष के नेता और प्रखर वक्ता अटल बिहारी वाजपेयी को भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की बैठक में भेजा गया और एक गैर-राजनैतिक अर्थशास्त्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को भारत का वित्त मंत्री नियुक्त किया.
मैंने जो पहली बात राव में पाई वह यह कि वह बहुत शांत, स्थिर और संयमित स्वभाव के थे, जो कभी भी विचलित नहीं होते थे. तब भी जब उनके विरोधी (ज्यादातर उनकी अपनी कांग्रेस पार्टी के लोग) उनके लिए कई बार परेशानी खड़ी कर देते थे. उन्होंने प्रशासनिक और राजनैतिक समस्याओं को बड़ी आसानी से सुलझाया. जैसे कि बाबरी मस्जिद के गिराए जाने की घटना पर जब उन्हें आलोचना का सामना करना पड़ा, तब उन्होंने बहुत ही संयमित तरीके से इसका सामना किया. लिब्रहान आयोग ने जिसने बाबरी मस्जिद मामले को बहुत बारीकी से देखा, प्रधानमंत्री की भूमिका को गलत नहीं माना. राव एक 'स्थितप्रज्ञ' व्यक्ति के उदहारण थे.
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उनके शासन का सबसे विशिष्ट गुण था भारत के संविधान के प्रति उनका पूर्ण समर्पण. जब भी कोई नया नीतिगत प्रस्ताव उनके पास मंजूरी के लिए रखा जाता, तो पहला सवाल वह पूछते: 'क्या यह संवैधानिक है? वह किसी भी ऐसे प्रस्ताव को नहीं मानते जिसे वह संविधान के न केवल अर्थ बल्कि तत्व के भी खिलाफ समझते थे.
वह पहले नेता थे जिन्होंने भारत की 'पूर्व की ओर दृष्टि की नीति' को विकसित किया. इससे पहले पश्चिमी या खाड़ी के देशों पर ही ध्यान केन्द्रित रहता था. वह मानते थे कि भारत एशिया में तभी अपना स्थान बना सकता है, जब वह बांग्लादेश, म्यांमार, थाईलैंड और अन्य पूर्वी एशियाई देशों के साथ अच्छे संबंध बनाए. उन्होंने ही इजराइल के साथ मजबूत संबंध बनाए और उसे नई दिल्ली में 1992 में अपना दूतावास खोलने दिया. उन्होंने ईरान के साथ भी मजबूत संबंध बनाए. नरसिम्हा राव ने भारत के परमाणु परीक्षण और बैलिस्टिक मिसाइल प्रोग्राम को भी सफलतापूर्वक अंजाम दिया.
वास्तव में मई 1996 में आम चुनाव से कुछ दिन पहले उन्होंने डॉक्टर अब्दुल कलाम को परमाणु बम का परीक्षण करने के लिए तैयार होने का आदेश दिया था. हालांकि, चुनाव परिणाम कांग्रेस के खिलाफ आए और अंततः परमाणु हथियार का परीक्षण 1998 में वाजपेयी सरकार द्वारा किया गया.
वह कश्मीर मुद्दे को हल करना चाहते थे, हालांकि 1993-97 के दौरान उस राज्य में उग्रवाद सबसे अधिक था. उन्होंने डॉ. फारूक अब्दुल्ला और अन्य नेताओं से कहा कि वह किसी भी प्रस्ताव को मानने के लिए तैयार हैं, बशर्ते कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना रहे. उन्होंने बुर्किना फासो की आधिकारिक यात्रा के दौरान घोषणा की, जहां तक कश्मीर के लिए स्वायत्तता का संबंध है आकाश तक सीमा है, जब तक कि वह भारत का अभिन्न अंग बना हुआ है, लेकिन इससे पहले कि वह इस संबंध में कुछ कर पाते, आम चुनावों में कांग्रेस सत्ता खो बैठी.
उन्हें जम्मू-कश्मीर में संसद और राज्य विधानसभा सीटों पर चुनाव कराने का श्रेय दिया जाना चाहिए क्योंकि वहां आठ साल तक कोई चुनाव नहीं हुआ था. उनका मानना था कि लोगों को निर्वाचित सरकार बनाने के उनके अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता.
उन्होंने मुझसे कहा कि देश के बाकी हिस्सों में आम चुनाव पूरे होने के बाद कश्मीर में चुनाव कराए जाने चाहिए. लेकिन कांग्रेस आम चुनाव हार गई. बाद में चुनाव आयोग और गृह मंत्रालय द्वारा देवेगौड़ा के समय लॉजिस्टिक समस्याओं और सुरक्षा के मुद्दों का सामना करने के बाद जम्मू-कश्मीर में चुनाव हुए. उनका मानना था कि उग्रवाद से निजात पाने के लिए चुनाव जरूरी हैं और इसलिए उन्होंने चुनाव आयोग से कहा कि उग्रवाद से जूझ रहे असम और पंजाब में चुनाव कराए जाएं भले ही वहां कम मतदान हों.
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चुनावों ने वास्तव में उग्रवाद को नियंत्रित करने और सामान्य स्थिति को वापस लाने के मार्ग को प्रशस्त किया. बहुत से लोग इस बात से अवगत नहीं हैं कि राव ने नागा विद्रोही संगठनों के साथ बातचीत शुरू की. जून 1995 में उन्होंने नागा भूमिगत नेताओं मुइवा और इस्साक स्वू से पेरिस में बातचीत से समाधान के लिए लड़ाई को रोकने की बात कही. इससे पहले, नागा समस्या को कानून-व्यवस्था और सुरक्षा समस्या के रूप में माना जाता था. राव नागा नेताओं के इस तर्क से सहमत थे कि यह एक राजनीतिक समस्या है.
उनकी पहल के परिणामस्वरूप अगस्त 1997 में विद्रोहियों के साथ एक संघर्ष विराम समझौता हुआ और राजनीतिक वार्ता के जरिए नगालैंड में शांति लाने और उत्तर पूर्व के अन्य हिस्सों में अन्य नागा क्षेत्रों में शांति कायम हुई. राव शायद एक मात्र ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें सत्ता में रहते हुए और बाद में भी कई गुन्हाहित मुकदमों के कारण परेशानियों का सामना करना पड़ा. वर्षों तक चलने वाली जांच और अदालती कार्यवाही ने राव को काफी झकझोर दिया.
इन मामलों में 1996 से 2002 तक चले झारखंड मुक्ति मोर्चा के भ्रष्ट्राचार का मामला, सेंट किट्स का मामला और लाखुभई पठान मामला शामिल हैं, जिन सभी में वह बेदाग साबित हुए. इन सभी मामलों के पीछे उनके राजनैतिक विरोधियों का हाथ था. कई कांग्रेस और विरोधी दल के नेता राव से इस बात को लेकर परेशान थे कि उन्होंने जैन डायरीज (जैन हवाला मामले) के आधार पर सीबीआई को उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने के आदेश दिए थे. लेकिन राव के पास कोई विकल्प नहीं था क्योंकि इस मामले में जांच के आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिए थे, जो स्वयं जांच पर हो रही प्रगति पर हर सप्ताह निगरानी रखने वाली थी.
दुर्भाग्यवश उनकी पार्टी के ही कुछ लोग उनके खिलाफ थे. राव ने मई 96 में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और वह पूर्व प्रधानमंत्रियों के लिए निर्धारित सरकारी आवास में रहने लगे. मैं भी दिल्ली में रहता था और राव से मिलने उनके घर जाया करता था. यह महान पुरुष एकाकी जीवन जीते थे. वह लिखने में और अपनी पुस्तकों में व्यस्त रहते थे. यह वह समय है, जब इस महान आत्मा को भारत रत्न की उपाधि प्रदान की जाए. उनके बारे में नटवर सिंह ने निम्नलिखित शब्दों में प्रशंसा की :
'उनकी जड़ें भारत की आध्यात्मिक और धार्मिक मिट्टी में गहरी थीं. उन्हें 'भारत को खोजने' की आवश्यकता नहीं थी.'