ETV Bharat / technology

मिल्की वे गैलेक्सी का इतिहास और भविष्य में एंड्रोमेडा से टकराने की संभावना, जानें अबतक क्या हुआ और क्या हो सकता है? - MILKY WAY HISTORY

इस खास आर्टिकल में हम आपको मिल्की वे के इतिहास और भविष्य में होने वाली संभावित घटनाओं के बारे में बताएंगे. (अनुभा जैन की रिपोर्ट)

The Milky Way Galaxy as seen from the Indian Astronomical Observatory in Hanle, along with the Himalayan Chandra Telescope.
भारतीय खगोलीय वेधशाला, हनले से दिखने वाली आकाशगंगा मिल्की वे, और हिमालय चंद्र टेलीस्कोप. (Dorje Angchuk, IAO, Hanle, Indian Institute of Astrophysics)
author img

By ETV Bharat Tech Team

Published : Feb 17, 2025, 11:01 PM IST

बेंगलुरु: ब्रह्मांड में बहुत सारी गैलेक्सीज़ यानी आकाशगंगाएं मौजूद हैं. उन अरबों आकाशगंगाओं में से एक का नाम मिल्की वे है, जिसमें हमारा पूरा सौरमंडल समाया हुआ है और उस सौरमंडल का एक ग्रह पृथ्वी है, जिसके एक देश में हम रहते हैं. मिल्की वे गैलेक्सी का आकार किसी स्पाइरल की तरह है, जिसमें हमारे पूरे सौरमंडल के साथ-साथ बहुत सारे तारे, ग्रह और कई अन्य चीजें शामिल हैं. यह लोकल ग्रूप का हिस्सा है. धरती से रात के अंधेरे में आकाश की ओर देखने पर यह किसी धुंधली बैंड की तरह दिखाई देता है.

इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एस्ट्रोफिज़िक्स (IIA) के डायरेक्टर प्रो. अन्नपूर्णी सुब्रमण्यम ने ईटीवी भारत की अनुभा जैन को दिए एक खास इंटरव्यू में बताया कि, मिल्की वे खुद भी एक मिनी-ब्रह्मांड की तरह ही है. इसमें कई उपग्रह आकाशगंगाएं भी हैं. आकाशगंगाएं ग्रूप्स और क्लस्टरों में बनती हैं. मिल्की वे भी ब्रह्मांड के तरह ही काफी पुरानी है. इसके फॉरमेशन पर ध्यान देने के साथ-साथ हमें यह भी समझना होगा कि आकाशगंगा कैसे विकसित हुई और समय के साथ-साथ इसके आकार में कैसे बदलाव आता गया.

असल में, प्रोटो गैलेक्सी किसी आकाशगंगा के बनने की पहली अवस्था होती है, जो हाइड्रोजन गैस और डार्क मैटर से बनती है. मिल्की वे की तरह ज्यादातर स्पाइरल आकाशगंगाओं के बीच में एक छोटी अण्डाकार गैलेक्सी होती है. सुब्रमण्यम ने समझाया कि एक बड़े गैस के बादल (मुख्य रूप से हाइड्रोजन) के ठंडे होने पर पार्टिकल्स ग्रैविटी के कारण एक साथ जुड़ने लगते हैं, जिससे तारे बनने की प्रक्रिया शुरू होती है.

जब गैस का बादल ठंडा होता है, तो यह संकुचित होकर तारा बनाने लगता है. उस वक्त यह ऊर्जा और गर्मी रिलीज़ करता है. जब बादल सिकुड़ते हैं तो उससे एंगुलर मूमेंटम जनरेट होता है यानी वो तेजी से घूमने लगते हैं और एक डिस्क में बदल जाते हैं. इस डिस्क के अंदर ग्रह और तारे बनते हैं. धीरे-धीरे यह डिस्क एक स्पाइरल गैलेक्सीज़ की तरह बन जाती है. उसके बाद कई गैलेक्सीज़ यानी आकाशगंगाओं की आपस में टकराव और मिश्रण होने से उनका आकार और भी बदलता जाता है.

भविष्य में आकाशगंगाओं का टकराव

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लगभग 4.5 बिलियन सालों के बाद मिल्की वे और एंड्रोमेडा आकाशगंगाएं टकरा सकती है. उस टकराव के बाद कुछ समय के लिए तारों के निर्माण में तेजी आएगी. उशके बाद नई आकाशगंगा अण्डाकार (elliptical) आकार ले सकती है और फिर नए तारों का निर्माण कम हो सकता है. उस वक्त सूर्य शायद किसी नए क्षेत्र में चला जाएगा, लेकिन पृथ्वी नष्ट नहीं होगी. हालांकि, तारे आपस में नहीं टकराएंगे, लेकिन उनकी ऑर्बिट में बदलाव हो जाएगा और फिर हमारा सौरमंडल मिल्की वे आकाशगंगा के केंद्र से और भी दूर जा सकता है, जो फिलहाल 26,000 लाइट ईयर्स दूर है.

इसके बारे में बात करते हुए सुब्रमण्यम ने सूर्य से संबंधित एक उदाहरण दिया और कहा कि, "अगर सूर्य किसी तारे से टकराए तो हमें सूर्य और आसपास के तारों के रास्तों की भविष्यवाणी करनी होगी. आकाशगंगाएं भी अंतरिक्ष में ऐसे ही चलती हैं और कभी-कभी टकराती हैं या बाइनरी पेयर्स बनाती हैं. लार्ज और स्मॉल मैजेलैनिक क्लाउड्स (Magellanic Clouds) मिल्की वे के सबसे नजदीक वाली आकाशगंगाएं हैं, लेकिन हमें उनके मूवमेंट्स के बारे में पूरी समझ नहीं है कि वो मिल्की वे गैलेक्सी के पास से कैसे गुजरते हैं. उनकी ऑर्बिट और स्पीड को ट्रैक करने के लिए हम पिछले 20 सालों के दौरान इकट्ठा किए गए डेटा पर निर्भर करते हैं. हालांकि, ये आकाशगंगाएं, मिल्की वे से टकराएंगी या नहीं, इसके लिए इन आकाशगंगाओं के द्रव्यमान (Mass) का पता लगाना काफी जरूरी है."

उन्होंने आगे कहा कि, "अभी तक मिले डेटा के अनुसार ऐसा लगता है कि मिल्की वे और एंड्रोमेडा आकाशगंगा टकरा सकती है, लेकिन पहले के रिसर्च से पता चलता है कि मैजेलैनिक क्लाउड्स शायद एंड्रोमेडा के किसी अन्य आकाशगंगा से इंटरैक्ट होने पर उत्पन्न हो सकती हैं. इस कारण टकराव के मॉडल पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन आकाशगंगाओं के द्रव्यमान और वेग (Velocity) के बारे में अभी कुछ अनिश्चितताएं हैं."

इन विषयों पर अभी तक किए गए अध्ययनों के अनुसार, अगले कुछ अरबों साल में तारों का निर्माण स्लो हो जाएगा, क्योंकि गैस खत्म हो जाएगी. यह संभवतः 10-15 अरब सालों में पूरी तरह से बंद भी हो सकता है. उसके बाद आकाशगंगा का निर्माण खासतौर पर पुराने और कमजोर तारों से होगा. उस वक्त भी शायद कुछ तारे स्पाइरल आर्म्स में बनते रहेंगे, लेकिन ज्यादातर गैस का उपयोग पहले ही हो चुका होगा. समय बीतने के साथ-साथ तारे बूढ़े हो जाएंगे और मर जाएंगे. उनका अंत एक व्हाइट ड्वॉर्फ, न्यूट्रॉन स्टार्स या ब्लैक होल्स के रूप में होगा.

आकाशगंगाओं में गैस की कमी होने का कारण समझाते हुए सुब्रमण्यम ने बताया, "गैलेक्टिक ग्रुप में, ज्यादातर बड़ी आकाशगंगाओं को आमतौर पर केंद्रीय क्षेत्रों के पास पाया जाता है और उनमें अक्सर गैस की कमी होती है. इन आकाशगंगाओं से गैस की कमी होने या खत्म होने के कई कारण होते हैं, जैसे- तारे बनने के लिए गैस की खपत होती है. इसके अलावा क्लस्टर के अंदर आकाशगंगा की स्पीड के कारण राम प्रेशर उतपन्न होता है, जो गैस को आकाशगंगा के खींचकर बाहर निकाल देता है. यह फोर्स इतना पावरफुल होता है कि वो आकाशगंगा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को पार कर जाता है और गैस को बाहर निकाल देता है. इससे आकाशगंगाओं में गैस की कमी हो जाती है."

बड़ी मैगेलैनिक क्लाउड और छोटी मैगेलैनिक क्लाउड, दोनों आकाशगंगाएं हैं. इन दोनों में गैस मौजूद होती है और छोटी मैगेलैनिक क्लाउड में ज्यादा गैस होती है. ये दोनों मिल्की वे के पास हैं और इसलिए इनपर मिल्की वे की ग्रेविटी और डायनमिक इफेक्ट्स का प्रभाव पड़ता है. ऐसे में यह काफी असामान्य बात है कि हमारी आकाशगंगा के पास इतनी ज्यादा गैस वाली आकाशगंगाएं हैं, क्योंकि आमतौर पर मिल्की वे के पास इतनी गैस वाली आकाशगंगाएं आमतौर पर नहीं होतीं. इस कारण वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि ये आकाशगंगाएं सिर्फ मिल्की वे आकाशगंगा की बगल से गुजर रही है और किसी अन्य आकाशगंगा सिस्टम के कारण अपना रास्ता बदल रही है.

इसके अलावा उन्होंने बताया कि, अगर आकाशगंगाएं किसी अन्य आकाशगंगाओं से मिले बिना, गैस के बिना, अकेले डवलेप होती है तो लाल और मृत हो जाती है. आकाशगंगाओं के मरने का अर्थ है कि उसके बाद उनमें न तो तारे बनते हैं और ना ही किसी भी प्रकार कोई गतिविधि होती है.

कॉस्मिक रेडिएशन और डॉप्लर शिफ्ट का प्रभाव

सुभ्रमण्यम ब्रह्मांडीय विकिरण (Cosmic Radiation) और ब्रह्मांड के शुरुआती दौर के मिल्की वे के निर्माण पर पड़े प्रभाव के बारे में चर्चा करते हुए बताया कि, "मिल्की वे के निर्माण के लिए किसी खास परिस्थितियों की जरूरत नहीं थी, बस इसे बहुत घने क्षेत्र में बनने से बचना था. अगर ऐसा होता तो शायद यह किसी दूसरी आकाशगंगा से टकरा कर या उसमें मिल जाती. इसी कारण यह आकाशगंगा काफी लंबे वक्त तक बची रही और अपने स्पाइरल स्ट्रक्चर को भी बनाए रखा." इसे आसान शब्दों में कहे तो इतने अरबों सालों से मिल्की वे आकाशगंगा और उसका स्पाइरल स्ट्रक्चर इसलिए बचा रह गया क्योंकि उसका निर्माण किसी घने क्षेत्र में नहीं हुआ और इसलिए उसका किसी दूसरी आकाशगंगाओं से टकराव नहीं हुआ.

उन्होंने समझाया कि डॉप्लर प्रभाव और स्पेक्ट्रोस्कोपी कैसे मिल्की वे की आकाशगंगा को समझने में मदद करते हैं. डॉप्लर इफेक्ट का उपयोग किसी वस्तु (जैसे तारा या आकाशगंगा) की गति और रफ्तार को नापने के लिए किया जाता है. यह एक फंडामेंटल कॉन्सेप्ट है, जो एस्ट्रोनॉमर्स को यह समझने में मदद करता है कि कोई चीज चल रही है या नहीं, और अगर वो चल रही है तो उसकी रफ्तार क्या है. इसमें दो मुख्य बाते हैं: अगर किसी चीज की स्थिति बदल रही है तो उसका मतलब है कि वो चल रही है. इसके अलावा अगर चीजों की वेवलेंथ और फ्रिक्वेंसी में बदलाव होता है तो इससे पता चलता है कि वो चीजें या तो हमारी ओर आ रही है या हमसे दूर जा रही हैं. इसे आसान शब्दों में समझें तो डॉप्लर इफेक्ट हमें तारों और आकाशगंगाओं की गति को उनके लाइट से होने वाले बदलावों का विश्लेषण करके समझने में मदद करता है.

Gaia मिशन और हबल स्पेस टेलीस्कोप

अंतरिक्ष के अनंत विस्तार को देखने के लिए वैज्ञानिकों ने दो सबसे पॉवरफुल स्पेस टेलीस्कोप्स का इस्तेमाल किया है. एस्ट्रोनॉमर्स ने NASA और ESA के हबल स्पेस टेलीस्कोप और ESA के Gaia मिशन का इस्तेमाल करके ब्रह्मांड के विस्तार के बारे में अब तक की सबसे सटीक माप प्राप्त की है.

सुब्रमण्यम ने इंटरव्यू के दौरान बताया कि हबल स्पेस टेलीस्कोप से मिलने वाला डेटा एक तय समय के बाद पब्लिक कर दिया जाता है. उसके बाद इसे कोई भी डाउनलोड कर सकता है और इसका उपयोग कर सकता है. दुनियाभर के एस्ट्रोनॉमर्स इन डेटा का इस्तेमाल अपने रिचर्स के लिए करते रहते हैं.

अलग-अलग टेलीस्कोप्स के बारे में बात करते हुए सुब्रमण्यम ने समझाया कि हबल स्पेस टेलीस्कोप दूर के ऑब्जेक्ट को हाई रेजॉल्यूशन डिटेल्स के साथ कैप्चर करते हैं. इसके उलट गैया एक ब्रॉड फिल्ड ऑफ व्यू की पिक्चर प्रदान करता है और काफी अच्छी तरह से आसमान को स्कैन करता है. दूर की धुंधली वस्तुओं को ऑब्जर्व करने और इन्फ्रारेड में रेड-शिफ्टेड आकाशगंगाओं का अध्ययन करने के लिए, एस्ट्रोनॉमर्स जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (JWST) का उपयोग करते हैं, जो हबल से भी बड़ा है."

सुब्रमण्यम ने बताया कि JWST (जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप) प्लेनट-फॉर्मिंग स्टार्स की डिस्क में मौजूद पार्टिकल्स को कैप्चर करता है और आकाशगंगाओं में पाए जाने वाले मॉलिक्यूल्स का अध्ययन करता है. इससे उन आकाशगंगाओं को भी देखा जा सकता है, जो बहुत दूर हैं और बहुत पहले बनी थी. इससे एस्ट्रोनॉमर्स को आकाशगंगाों के बनने की प्रक्रिया समझ में आती है.

JWST (जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप) ने अब तक की सबसे दूर स्थित (जिसके बारे में अभी तक पता चला है) आकाशगंगा, JADES-GS-z14-0, को देखा है, जो बिग बैंग के 290 मिलियन वर्ष बाद की है. इसमें ऑक्सीजन के साथ मैच्योरिटी भी देखने को मिलती है. हालांकि, हबल ने पहले GN-z11 का ऑब्जरवेशन किया था, जो बिंग बैंक के 400 मिलियन वर्ष बाद की आकाशगंगा है, जो बहुत छोटी है और इसमें मिल्की वे के स्टेलर द्रव्यमान का सिर्फ 1% द्रव्यमान मौजूद है. हालांकि, इसी बीच ESA (यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी) के गैया ऑब्जरवेटरी ने 15 जनवरी 2025 को अपना एक मिशन पूरा किया, जो पिछले एक दशक से मिल्की वे की मैपिंग कर रही थी. 2030 तक गैया अपने मिशन के दौरान खोजे गए ब्लैक होल, स्टार्स और ब्रह्मांड की अन्य वस्तुओं के बारे में डेटा जारी करेगी.

एस्ट्रोनॉमी में एआई और एमएल का रोल

सुब्रमण्यम ने एस्ट्रोनॉमी में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) और मशीन लर्निंग (ML) की भूमिका के बारे में बताया कि, एस्ट्रोनॉमी बहुत सारी ऐसे डेटा जनरेट करती है, जिनका इस्तेमाल एआई और एमएल मॉडल को ट्रेनिंग देने के लिए किया जाता है. एस्ट्रोनॉमी शुरुआती टाइम से एआई और एमएल के डेवलपमेंट में योगदान दे रही है. इन टेक्नोलॉज़ीस के बिना इतने बड़े लेवल पर एस्ट्रोनॉमिकल डेटा को इफेक्टिव रूप से प्रोसेस करना और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना असंभव होता.

उन्होंने बताया कि एआई और एमएल गैया मिशन द्वारा जनरेट किए गए बड़े डेटा सेट जैसे विज्ञान के मुश्किल सवालों का जवाब ढूंढने के लिए काफी महत्वपूर्ण है. ये टूल्स आकाशगंगा जैसे अनसुलझे और मुश्किल चीजों को समझने में मदद करते हैं और एस्ट्रोनॉमर्स इनकी मदद से डेटा को अधिक सटीकता से एनालाइज़ कर सकते हैं.

IIIT बेंगलुरु के सीनियर प्रोफेसर और रिसर्चर श्रीशा राव ने ईटीवी भारत को दिए इंटरव्यू में बताया कि, एआई और एमएल डेटा एनालाइसिज़ को ऑटोमैटिक करने, पैटर्न की पहचान और प्रिडिक्शन करने में मदद करता है. इन टेक्नोलॉजी ने एस्ट्रोफिज़िक्स को बदल दिया है और आकाशगंगा मैपिंग में भी मदद कर रही है.

राव ने आगे कहा, "एस्ट्रोफिज़िक्स में मशीन लर्निंग (ML) का एक मुख्य उपयोग आकाशगंगाओं का ऑटोमैकिली क्लासिफिकेशन करना है. पहले लोग मैनुअल रूप से आकाशगंगाओं को अलग-अलग कैटिगिरी में रखते थे, लेकिन फिर Sloan Digital Sky Survey (SDSS) जैसे प्रोजेक्ट्स के माध्यम से देखी गई आकाशगंगाओं की संख्या काफी तेजी से बढ़ी, जिसके कारण मैन्युअल तरीके से उनका क्लासिफिकेशन करना असंभव हो गया. इस कारण अब मशीन लर्निंग का उपयोग करके यह काम किया जाता है. इसी तरह से रेडशिफ्ट को मापने के ट्रेडिशनल तरीके, स्पेक्ट्रोस्कोपि मेथड सटीक तो है, लेकिन उसमें काफी समय लगता है और टेलीस्कोप की उपलब्धता भी सीमित होती है. अब एमएल मॉडल्स फोटोमेट्रिक डेटा का उपयोग करके रेडशिफ्ट्स का अनुमान लगाते हैं."

सिमुलेशन और एमुलेटर

राव ने कहा कि कॉस्मोलॉजिकल सिमुलेशन, जैसे कि Illustris या EAGLE, को महत्वपूर्ण कंप्यूटेशनल संसाधनों की जरूरत होती है. एआई-आधारित एमुलेटर इन सिमुलेशन को कम कंप्यूटेशनल कॉस्ट पर अनुमानित कर सकते हैं. जनरेटिव एडेवरसरीयल नेटवर्क्स (GANs) या वेरिएशनल ऑटोएन्कोडर्स (VAEs) जैसी टेक्नोलॉजी सिंथेटिक डेटा जनरेट करती हैं, जो रियल ऑब्ज़रवेशन या सिमुलेशन की नकल करती हैं. उदाहरण के लिए, GANs मशीन लर्निंग मॉडल को ट्रेनिंग देने के लिए एकदम असली दिखने वाले आकाशगंगा की पिक्चर बना सकते हैं.

उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) एस्ट्रोफिज़िक्स का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है, इसे समझने की जरूरत भी बढ़ती जा रही है. SHAP (Shapley Additive explanations) और LIME (Local Interpretable Model-agnostic Explanations), एस्ट्रोनॉमर्स को यह समझने में मदद करते हैं कि एआई मॉडल ने कोई खास प्रिडिक्शन क्यों की. इससे एआई और डोमेन एक्सपर्टीज़ के बीच का अंतर कम हो जाता है. हालांकि, अभी भी डेटा की क्वालिटी, पक्षपात, डेटा प्राइवेसी, और टेक्नोलॉजी के दुरुपयोग जैसी कुछ चैलेंजेस हैं, जिनसे निपटना जरूरी है.

उसके बाद उन्होंने भविष्य के बारे में बात करते हुए कहा कि, जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (JWST) और यूक्लिड मिशन जैसे डिवाइस से मिलने वाले डेटा का यूज़ करके एआई यह जानने में मदद करेगा कि बाहर के कौनसे ग्रह पर जीवन की संभावना है, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी की रिसर्च और ब्रह्मांड का विस्तार कैसे हो रहा है, जिसके 3D मैप बनाने में मदद भी मिलेगी.

ये भी पढ़ें:

बेंगलुरु: ब्रह्मांड में बहुत सारी गैलेक्सीज़ यानी आकाशगंगाएं मौजूद हैं. उन अरबों आकाशगंगाओं में से एक का नाम मिल्की वे है, जिसमें हमारा पूरा सौरमंडल समाया हुआ है और उस सौरमंडल का एक ग्रह पृथ्वी है, जिसके एक देश में हम रहते हैं. मिल्की वे गैलेक्सी का आकार किसी स्पाइरल की तरह है, जिसमें हमारे पूरे सौरमंडल के साथ-साथ बहुत सारे तारे, ग्रह और कई अन्य चीजें शामिल हैं. यह लोकल ग्रूप का हिस्सा है. धरती से रात के अंधेरे में आकाश की ओर देखने पर यह किसी धुंधली बैंड की तरह दिखाई देता है.

इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ एस्ट्रोफिज़िक्स (IIA) के डायरेक्टर प्रो. अन्नपूर्णी सुब्रमण्यम ने ईटीवी भारत की अनुभा जैन को दिए एक खास इंटरव्यू में बताया कि, मिल्की वे खुद भी एक मिनी-ब्रह्मांड की तरह ही है. इसमें कई उपग्रह आकाशगंगाएं भी हैं. आकाशगंगाएं ग्रूप्स और क्लस्टरों में बनती हैं. मिल्की वे भी ब्रह्मांड के तरह ही काफी पुरानी है. इसके फॉरमेशन पर ध्यान देने के साथ-साथ हमें यह भी समझना होगा कि आकाशगंगा कैसे विकसित हुई और समय के साथ-साथ इसके आकार में कैसे बदलाव आता गया.

असल में, प्रोटो गैलेक्सी किसी आकाशगंगा के बनने की पहली अवस्था होती है, जो हाइड्रोजन गैस और डार्क मैटर से बनती है. मिल्की वे की तरह ज्यादातर स्पाइरल आकाशगंगाओं के बीच में एक छोटी अण्डाकार गैलेक्सी होती है. सुब्रमण्यम ने समझाया कि एक बड़े गैस के बादल (मुख्य रूप से हाइड्रोजन) के ठंडे होने पर पार्टिकल्स ग्रैविटी के कारण एक साथ जुड़ने लगते हैं, जिससे तारे बनने की प्रक्रिया शुरू होती है.

जब गैस का बादल ठंडा होता है, तो यह संकुचित होकर तारा बनाने लगता है. उस वक्त यह ऊर्जा और गर्मी रिलीज़ करता है. जब बादल सिकुड़ते हैं तो उससे एंगुलर मूमेंटम जनरेट होता है यानी वो तेजी से घूमने लगते हैं और एक डिस्क में बदल जाते हैं. इस डिस्क के अंदर ग्रह और तारे बनते हैं. धीरे-धीरे यह डिस्क एक स्पाइरल गैलेक्सीज़ की तरह बन जाती है. उसके बाद कई गैलेक्सीज़ यानी आकाशगंगाओं की आपस में टकराव और मिश्रण होने से उनका आकार और भी बदलता जाता है.

भविष्य में आकाशगंगाओं का टकराव

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि लगभग 4.5 बिलियन सालों के बाद मिल्की वे और एंड्रोमेडा आकाशगंगाएं टकरा सकती है. उस टकराव के बाद कुछ समय के लिए तारों के निर्माण में तेजी आएगी. उशके बाद नई आकाशगंगा अण्डाकार (elliptical) आकार ले सकती है और फिर नए तारों का निर्माण कम हो सकता है. उस वक्त सूर्य शायद किसी नए क्षेत्र में चला जाएगा, लेकिन पृथ्वी नष्ट नहीं होगी. हालांकि, तारे आपस में नहीं टकराएंगे, लेकिन उनकी ऑर्बिट में बदलाव हो जाएगा और फिर हमारा सौरमंडल मिल्की वे आकाशगंगा के केंद्र से और भी दूर जा सकता है, जो फिलहाल 26,000 लाइट ईयर्स दूर है.

इसके बारे में बात करते हुए सुब्रमण्यम ने सूर्य से संबंधित एक उदाहरण दिया और कहा कि, "अगर सूर्य किसी तारे से टकराए तो हमें सूर्य और आसपास के तारों के रास्तों की भविष्यवाणी करनी होगी. आकाशगंगाएं भी अंतरिक्ष में ऐसे ही चलती हैं और कभी-कभी टकराती हैं या बाइनरी पेयर्स बनाती हैं. लार्ज और स्मॉल मैजेलैनिक क्लाउड्स (Magellanic Clouds) मिल्की वे के सबसे नजदीक वाली आकाशगंगाएं हैं, लेकिन हमें उनके मूवमेंट्स के बारे में पूरी समझ नहीं है कि वो मिल्की वे गैलेक्सी के पास से कैसे गुजरते हैं. उनकी ऑर्बिट और स्पीड को ट्रैक करने के लिए हम पिछले 20 सालों के दौरान इकट्ठा किए गए डेटा पर निर्भर करते हैं. हालांकि, ये आकाशगंगाएं, मिल्की वे से टकराएंगी या नहीं, इसके लिए इन आकाशगंगाओं के द्रव्यमान (Mass) का पता लगाना काफी जरूरी है."

उन्होंने आगे कहा कि, "अभी तक मिले डेटा के अनुसार ऐसा लगता है कि मिल्की वे और एंड्रोमेडा आकाशगंगा टकरा सकती है, लेकिन पहले के रिसर्च से पता चलता है कि मैजेलैनिक क्लाउड्स शायद एंड्रोमेडा के किसी अन्य आकाशगंगा से इंटरैक्ट होने पर उत्पन्न हो सकती हैं. इस कारण टकराव के मॉडल पर पूरी तरह विश्वास नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इन आकाशगंगाओं के द्रव्यमान और वेग (Velocity) के बारे में अभी कुछ अनिश्चितताएं हैं."

इन विषयों पर अभी तक किए गए अध्ययनों के अनुसार, अगले कुछ अरबों साल में तारों का निर्माण स्लो हो जाएगा, क्योंकि गैस खत्म हो जाएगी. यह संभवतः 10-15 अरब सालों में पूरी तरह से बंद भी हो सकता है. उसके बाद आकाशगंगा का निर्माण खासतौर पर पुराने और कमजोर तारों से होगा. उस वक्त भी शायद कुछ तारे स्पाइरल आर्म्स में बनते रहेंगे, लेकिन ज्यादातर गैस का उपयोग पहले ही हो चुका होगा. समय बीतने के साथ-साथ तारे बूढ़े हो जाएंगे और मर जाएंगे. उनका अंत एक व्हाइट ड्वॉर्फ, न्यूट्रॉन स्टार्स या ब्लैक होल्स के रूप में होगा.

आकाशगंगाओं में गैस की कमी होने का कारण समझाते हुए सुब्रमण्यम ने बताया, "गैलेक्टिक ग्रुप में, ज्यादातर बड़ी आकाशगंगाओं को आमतौर पर केंद्रीय क्षेत्रों के पास पाया जाता है और उनमें अक्सर गैस की कमी होती है. इन आकाशगंगाओं से गैस की कमी होने या खत्म होने के कई कारण होते हैं, जैसे- तारे बनने के लिए गैस की खपत होती है. इसके अलावा क्लस्टर के अंदर आकाशगंगा की स्पीड के कारण राम प्रेशर उतपन्न होता है, जो गैस को आकाशगंगा के खींचकर बाहर निकाल देता है. यह फोर्स इतना पावरफुल होता है कि वो आकाशगंगा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को पार कर जाता है और गैस को बाहर निकाल देता है. इससे आकाशगंगाओं में गैस की कमी हो जाती है."

बड़ी मैगेलैनिक क्लाउड और छोटी मैगेलैनिक क्लाउड, दोनों आकाशगंगाएं हैं. इन दोनों में गैस मौजूद होती है और छोटी मैगेलैनिक क्लाउड में ज्यादा गैस होती है. ये दोनों मिल्की वे के पास हैं और इसलिए इनपर मिल्की वे की ग्रेविटी और डायनमिक इफेक्ट्स का प्रभाव पड़ता है. ऐसे में यह काफी असामान्य बात है कि हमारी आकाशगंगा के पास इतनी ज्यादा गैस वाली आकाशगंगाएं हैं, क्योंकि आमतौर पर मिल्की वे के पास इतनी गैस वाली आकाशगंगाएं आमतौर पर नहीं होतीं. इस कारण वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि ये आकाशगंगाएं सिर्फ मिल्की वे आकाशगंगा की बगल से गुजर रही है और किसी अन्य आकाशगंगा सिस्टम के कारण अपना रास्ता बदल रही है.

इसके अलावा उन्होंने बताया कि, अगर आकाशगंगाएं किसी अन्य आकाशगंगाओं से मिले बिना, गैस के बिना, अकेले डवलेप होती है तो लाल और मृत हो जाती है. आकाशगंगाओं के मरने का अर्थ है कि उसके बाद उनमें न तो तारे बनते हैं और ना ही किसी भी प्रकार कोई गतिविधि होती है.

कॉस्मिक रेडिएशन और डॉप्लर शिफ्ट का प्रभाव

सुभ्रमण्यम ब्रह्मांडीय विकिरण (Cosmic Radiation) और ब्रह्मांड के शुरुआती दौर के मिल्की वे के निर्माण पर पड़े प्रभाव के बारे में चर्चा करते हुए बताया कि, "मिल्की वे के निर्माण के लिए किसी खास परिस्थितियों की जरूरत नहीं थी, बस इसे बहुत घने क्षेत्र में बनने से बचना था. अगर ऐसा होता तो शायद यह किसी दूसरी आकाशगंगा से टकरा कर या उसमें मिल जाती. इसी कारण यह आकाशगंगा काफी लंबे वक्त तक बची रही और अपने स्पाइरल स्ट्रक्चर को भी बनाए रखा." इसे आसान शब्दों में कहे तो इतने अरबों सालों से मिल्की वे आकाशगंगा और उसका स्पाइरल स्ट्रक्चर इसलिए बचा रह गया क्योंकि उसका निर्माण किसी घने क्षेत्र में नहीं हुआ और इसलिए उसका किसी दूसरी आकाशगंगाओं से टकराव नहीं हुआ.

उन्होंने समझाया कि डॉप्लर प्रभाव और स्पेक्ट्रोस्कोपी कैसे मिल्की वे की आकाशगंगा को समझने में मदद करते हैं. डॉप्लर इफेक्ट का उपयोग किसी वस्तु (जैसे तारा या आकाशगंगा) की गति और रफ्तार को नापने के लिए किया जाता है. यह एक फंडामेंटल कॉन्सेप्ट है, जो एस्ट्रोनॉमर्स को यह समझने में मदद करता है कि कोई चीज चल रही है या नहीं, और अगर वो चल रही है तो उसकी रफ्तार क्या है. इसमें दो मुख्य बाते हैं: अगर किसी चीज की स्थिति बदल रही है तो उसका मतलब है कि वो चल रही है. इसके अलावा अगर चीजों की वेवलेंथ और फ्रिक्वेंसी में बदलाव होता है तो इससे पता चलता है कि वो चीजें या तो हमारी ओर आ रही है या हमसे दूर जा रही हैं. इसे आसान शब्दों में समझें तो डॉप्लर इफेक्ट हमें तारों और आकाशगंगाओं की गति को उनके लाइट से होने वाले बदलावों का विश्लेषण करके समझने में मदद करता है.

Gaia मिशन और हबल स्पेस टेलीस्कोप

अंतरिक्ष के अनंत विस्तार को देखने के लिए वैज्ञानिकों ने दो सबसे पॉवरफुल स्पेस टेलीस्कोप्स का इस्तेमाल किया है. एस्ट्रोनॉमर्स ने NASA और ESA के हबल स्पेस टेलीस्कोप और ESA के Gaia मिशन का इस्तेमाल करके ब्रह्मांड के विस्तार के बारे में अब तक की सबसे सटीक माप प्राप्त की है.

सुब्रमण्यम ने इंटरव्यू के दौरान बताया कि हबल स्पेस टेलीस्कोप से मिलने वाला डेटा एक तय समय के बाद पब्लिक कर दिया जाता है. उसके बाद इसे कोई भी डाउनलोड कर सकता है और इसका उपयोग कर सकता है. दुनियाभर के एस्ट्रोनॉमर्स इन डेटा का इस्तेमाल अपने रिचर्स के लिए करते रहते हैं.

अलग-अलग टेलीस्कोप्स के बारे में बात करते हुए सुब्रमण्यम ने समझाया कि हबल स्पेस टेलीस्कोप दूर के ऑब्जेक्ट को हाई रेजॉल्यूशन डिटेल्स के साथ कैप्चर करते हैं. इसके उलट गैया एक ब्रॉड फिल्ड ऑफ व्यू की पिक्चर प्रदान करता है और काफी अच्छी तरह से आसमान को स्कैन करता है. दूर की धुंधली वस्तुओं को ऑब्जर्व करने और इन्फ्रारेड में रेड-शिफ्टेड आकाशगंगाओं का अध्ययन करने के लिए, एस्ट्रोनॉमर्स जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (JWST) का उपयोग करते हैं, जो हबल से भी बड़ा है."

सुब्रमण्यम ने बताया कि JWST (जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप) प्लेनट-फॉर्मिंग स्टार्स की डिस्क में मौजूद पार्टिकल्स को कैप्चर करता है और आकाशगंगाओं में पाए जाने वाले मॉलिक्यूल्स का अध्ययन करता है. इससे उन आकाशगंगाओं को भी देखा जा सकता है, जो बहुत दूर हैं और बहुत पहले बनी थी. इससे एस्ट्रोनॉमर्स को आकाशगंगाों के बनने की प्रक्रिया समझ में आती है.

JWST (जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप) ने अब तक की सबसे दूर स्थित (जिसके बारे में अभी तक पता चला है) आकाशगंगा, JADES-GS-z14-0, को देखा है, जो बिग बैंग के 290 मिलियन वर्ष बाद की है. इसमें ऑक्सीजन के साथ मैच्योरिटी भी देखने को मिलती है. हालांकि, हबल ने पहले GN-z11 का ऑब्जरवेशन किया था, जो बिंग बैंक के 400 मिलियन वर्ष बाद की आकाशगंगा है, जो बहुत छोटी है और इसमें मिल्की वे के स्टेलर द्रव्यमान का सिर्फ 1% द्रव्यमान मौजूद है. हालांकि, इसी बीच ESA (यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी) के गैया ऑब्जरवेटरी ने 15 जनवरी 2025 को अपना एक मिशन पूरा किया, जो पिछले एक दशक से मिल्की वे की मैपिंग कर रही थी. 2030 तक गैया अपने मिशन के दौरान खोजे गए ब्लैक होल, स्टार्स और ब्रह्मांड की अन्य वस्तुओं के बारे में डेटा जारी करेगी.

एस्ट्रोनॉमी में एआई और एमएल का रोल

सुब्रमण्यम ने एस्ट्रोनॉमी में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (AI) और मशीन लर्निंग (ML) की भूमिका के बारे में बताया कि, एस्ट्रोनॉमी बहुत सारी ऐसे डेटा जनरेट करती है, जिनका इस्तेमाल एआई और एमएल मॉडल को ट्रेनिंग देने के लिए किया जाता है. एस्ट्रोनॉमी शुरुआती टाइम से एआई और एमएल के डेवलपमेंट में योगदान दे रही है. इन टेक्नोलॉज़ीस के बिना इतने बड़े लेवल पर एस्ट्रोनॉमिकल डेटा को इफेक्टिव रूप से प्रोसेस करना और महत्वपूर्ण वैज्ञानिक निष्कर्ष निकालना असंभव होता.

उन्होंने बताया कि एआई और एमएल गैया मिशन द्वारा जनरेट किए गए बड़े डेटा सेट जैसे विज्ञान के मुश्किल सवालों का जवाब ढूंढने के लिए काफी महत्वपूर्ण है. ये टूल्स आकाशगंगा जैसे अनसुलझे और मुश्किल चीजों को समझने में मदद करते हैं और एस्ट्रोनॉमर्स इनकी मदद से डेटा को अधिक सटीकता से एनालाइज़ कर सकते हैं.

IIIT बेंगलुरु के सीनियर प्रोफेसर और रिसर्चर श्रीशा राव ने ईटीवी भारत को दिए इंटरव्यू में बताया कि, एआई और एमएल डेटा एनालाइसिज़ को ऑटोमैटिक करने, पैटर्न की पहचान और प्रिडिक्शन करने में मदद करता है. इन टेक्नोलॉजी ने एस्ट्रोफिज़िक्स को बदल दिया है और आकाशगंगा मैपिंग में भी मदद कर रही है.

राव ने आगे कहा, "एस्ट्रोफिज़िक्स में मशीन लर्निंग (ML) का एक मुख्य उपयोग आकाशगंगाओं का ऑटोमैकिली क्लासिफिकेशन करना है. पहले लोग मैनुअल रूप से आकाशगंगाओं को अलग-अलग कैटिगिरी में रखते थे, लेकिन फिर Sloan Digital Sky Survey (SDSS) जैसे प्रोजेक्ट्स के माध्यम से देखी गई आकाशगंगाओं की संख्या काफी तेजी से बढ़ी, जिसके कारण मैन्युअल तरीके से उनका क्लासिफिकेशन करना असंभव हो गया. इस कारण अब मशीन लर्निंग का उपयोग करके यह काम किया जाता है. इसी तरह से रेडशिफ्ट को मापने के ट्रेडिशनल तरीके, स्पेक्ट्रोस्कोपि मेथड सटीक तो है, लेकिन उसमें काफी समय लगता है और टेलीस्कोप की उपलब्धता भी सीमित होती है. अब एमएल मॉडल्स फोटोमेट्रिक डेटा का उपयोग करके रेडशिफ्ट्स का अनुमान लगाते हैं."

सिमुलेशन और एमुलेटर

राव ने कहा कि कॉस्मोलॉजिकल सिमुलेशन, जैसे कि Illustris या EAGLE, को महत्वपूर्ण कंप्यूटेशनल संसाधनों की जरूरत होती है. एआई-आधारित एमुलेटर इन सिमुलेशन को कम कंप्यूटेशनल कॉस्ट पर अनुमानित कर सकते हैं. जनरेटिव एडेवरसरीयल नेटवर्क्स (GANs) या वेरिएशनल ऑटोएन्कोडर्स (VAEs) जैसी टेक्नोलॉजी सिंथेटिक डेटा जनरेट करती हैं, जो रियल ऑब्ज़रवेशन या सिमुलेशन की नकल करती हैं. उदाहरण के लिए, GANs मशीन लर्निंग मॉडल को ट्रेनिंग देने के लिए एकदम असली दिखने वाले आकाशगंगा की पिक्चर बना सकते हैं.

उन्होंने कहा कि जैसे-जैसे एआई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) एस्ट्रोफिज़िक्स का महत्वपूर्ण हिस्सा बनता जा रहा है, इसे समझने की जरूरत भी बढ़ती जा रही है. SHAP (Shapley Additive explanations) और LIME (Local Interpretable Model-agnostic Explanations), एस्ट्रोनॉमर्स को यह समझने में मदद करते हैं कि एआई मॉडल ने कोई खास प्रिडिक्शन क्यों की. इससे एआई और डोमेन एक्सपर्टीज़ के बीच का अंतर कम हो जाता है. हालांकि, अभी भी डेटा की क्वालिटी, पक्षपात, डेटा प्राइवेसी, और टेक्नोलॉजी के दुरुपयोग जैसी कुछ चैलेंजेस हैं, जिनसे निपटना जरूरी है.

उसके बाद उन्होंने भविष्य के बारे में बात करते हुए कहा कि, जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप (JWST) और यूक्लिड मिशन जैसे डिवाइस से मिलने वाले डेटा का यूज़ करके एआई यह जानने में मदद करेगा कि बाहर के कौनसे ग्रह पर जीवन की संभावना है, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी की रिसर्च और ब्रह्मांड का विस्तार कैसे हो रहा है, जिसके 3D मैप बनाने में मदद भी मिलेगी.

ये भी पढ़ें:

ETV Bharat Logo

Copyright © 2025 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.