बगहाः पश्चिम चंपारण के बीड़ी मजदूरों की हालत खस्ताहाल है. महज 35 रुपये की दिहाड़ी पर बीड़ी कम्पनियां इनसे काम करवाती आ रही हैं. पेट की खातिर ये मजदूर इतने कम पैसे में काम करने को मजबूर हैं. कई परिवारों ने तो कम मजदूरी मिलने की वजह से इस पेशे से ही तौबा कर लिया.
35 रुपये मिलते हैं रोजाना
इंडो-नेपाल बॉर्डर के वाल्मिकीनगर स्थित भेड़िहारी बंगाली कॉलोनी में सैकड़ों बाग्लादेशी शरणार्थी परिवार बसे हुए हैं. जिनका मुख्य पेशा बीड़ी बनाकर कम्पनियों या एजेंसियों को सप्लाई करना है. लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि ये बीड़ी मजदूर पेट की खातिर महज 35 रुपये रोजाना की मजदूरी पर ही काम करने को मजबूर हैं. इनकी बनाई गई बीड़ी बेतिया, मुजफ्फरपुर, पटना समेत उत्तरप्रदेश तक सप्लाई होती हैं.
मजदूरों को ठगती हैं कंपनियां
बता दें कि मई 2019 में सरकार ने कुशल मजदूरों के लिए मजदूरी दर 335 रुपया रोजाना और अकुशल मजदूरों के लिए 257 रुपये रोजाना की दर तय कर रखा है. इसके अलावा बिहार के अन्य क्षेत्रों में बीड़ी मजदूरों को 1000 बीड़ी बनाने के एवज में 185 रुपये से लेकर 195 रुपया या इससे अधिक भी भुगतान किया जाता है. बावजूद इसके ये कम्पनियां यहां के मजदूरों को महज 30 से 35 रुपया हजार की दर से पेमेंट कर ठगती आ रही हैं.
कई मजदूरों ने छोड़ा ये पेशा
यही वजह है कि बगहा और आस-पास के कई इलाकों के बीड़ी मजदूरों ने इस पेशे से तौबा कर लिया. पहले बांग्लादेशी शरणार्थियों के भी सैकड़ों परिवार बीड़ी बनाने के पेशे से जुड़े थे. अब इनकी भी संख्या घट कर 50 परिवार तक ही सीमित हो गई है. बीड़ी मजदूर रोमिता घुरामी ने बताया कि इसके अलावा कोई रोजगार यहां नहीं है. मजबूरी में इतने ही कम मजदूरी पर काम करना पड़ता है. इसी आमदनी से परिवार के आधे दर्जन लोगों का पेट भरता है. हमारे बच्चे भी पढ़ने नहीं जाते.
योजनाओं का नहीं मिलता लाभ
वहीं, स्थानीय मनोज हलदर कहते हैं कि हम शरणार्थियों को किसी सरकारी योजना का लाभ भी नहीं मिलता. अगर लाभ मिलता होता तो बीड़ी बनाने का काम नहीं करते. सरकार और प्रशासन अगर ऐसी कम्पनियों पर नकेल कसे तो पेट की खातिर इतने कम पैसे पर काम करने वाले इन बीड़ी मजदूरों को उचित मजदूरी मिल सकती है.