सहरसा: रौशनी के त्योहार दिवाली (festival of lights diwali) में मिट्टी के दीयों की जगह अब इलेक्ट्रॉनिक चायनीज लाइटों ने ले ली है. इसी कारण बाजारों में मिट्टी के दीयों की मांग कम हो गई है और सदियों से मिट्टी के दीयों जलाने की परंपरा धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं. मिट्टी के दीये की मांग कम होने की वजह से कुम्हारों के दीये बनाने के पुस्तैनी कारोबार पर ग्रहण लगने लगा है. एक समय दिवाली से लेकर छठ तक हर तरफ मिट्टी के दीये और पूजा के अन्य बर्तन बाजारों की शोभा बढ़ाते थे लेकिन चाइनीज लाइट की मांग ने कुम्हारों का रोजगार छीन लिया.
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कुम्हारों को होता था अच्छा मुनाफा: पहले दिवाली से लेकर छठ तक कुम्हार मिट्टी के दीये और चुक्के के काम में व्यस्त रहते थे. जिससे कुम्हारों का कारोबार अच्छा होता था. साथ ही साथ कुम्हार एक बार में ही साल भर की कमाई कर लेते थे लेकिन आधुनिकीकरण के इस दौर में बाजार चाइनीज सामानों से बने लाइटों और बिजली के झालर और जुगनुओं से जगमगा रहे हैं. स्थानीय कुम्हार बताते हैं कि चाइनीज सामानों के बाजार में आने से उनका कारोबार ठप हो गया है.
महीनोंं पहले करते थे दीया बनाने की तैयारी: रौशनी के पर्व दिवाली को लेकर कुम्हार हर साल उम्मीदों से भरे रहते हैं कि दिवाली के समय उनके दीए हजारों लोगों के घरों की रौनक बढ़ाएगें. इसके लिए कुम्हार पूरे परिवार के साथ कई महीनों पहले से दीया और मिट्टी के बर्तन बनाने की तैयारियां शुरू कर देते हैं. समाज का यह तबका अपने घर परिवार की गाड़ी बेहतर तरीके से चलाने के लिए साल भर इस त्योहार का इंतजार करते हैं.
बदल गया है दिवाली में दीये जलाने का प्रचलन: लोग पहले दिवाली में घी के दीए जलाते थे लेकिन समय बदला और लोग पहले सरसों तेल, फिर किरासन तेल से काम चलाने लगे. अब वह समय भी लगभग खत्म होता जा रहा है. लोग अब मौमबत्ती जलाकर दिवाली का त्योहार मना रहे हैं.
"चाक घुमा-घुमाकर हम दीया और चुक्के तो बना रहे हैं. लेकिन लोग इसे खरीद नहीं रहे हैं. हमलोग दिवाली के समय कुछ ही दीए और मिट्टी के सामान बना रहे हैं. लेकिन इसका बिकना मुश्किल लग रहा है. हम लोगों के यह काम अब छोड़ना पडेगा." - राजाराम कुमार प्रजापति, कुम्हार
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