पटना: बिहार में कांग्रेस (Congress) अपनी जमीन और जनाधार को मजबूत करने के लिए जिस आधार को बना रही है, उसमें भी अब सवाल पूछा जाने लगा है कि यह कौन सी कांग्रेस है और जो कांग्रेस बिहार की थी वह कहां है. यह सवाल सिर्फ बिहार नहीं पूछ रहा है. बदलते राजनीतिक हालात में जो स्थिति कांग्रेस की बन गई है उसमें पूरे देश से लेकर प्रदेश तक में यही पूछा जा रहा है कि जो कांग्रेस बन रही है यह कौन है और कौन सी कांग्रेस खड़ी हो रही है.
ये भी पढ़ें- 'लालटेन' से नहीं छूटेगा 'हाथ': बोले भक्तचरण- हम मजबूती से साथ थे, हैं और रहेंगे लेकिन...
10 अक्टूबर को सदाकत आश्रम में जिस चीज की बैठक हुई और जो तैयारी हुई, उसमें साफ तौर पर देखा गया कि अंदर कांग्रेस की बैठक चल रही थी और बाहर कांग्रेसी नारा लगा रहे थे. 10 अक्टूबर वह दिन भी हो सकता है, जिसमें 1990 के बाद से चले आ रहे कांग्रेस का राजद के साथ गठबंधन टूट जाए और सवाल यह हो रहा है कि पुरानी कांग्रेस और पुराने कांग्रेसी कहां पर हैं.
बिहार में कांग्रेस का जब से गठन हुआ और जो लोग प्रदेश अध्यक्ष बने उसमें अगर उसकी पूरी कहानी देखी जाए तो 1973 से पहले जितने लोग कांग्रेस अध्यक्ष बने या तो वह स्वतंत्रता सेनानी थे या फिर स्वतंत्रता के आंदोलन में परिवार और लोगों की भूमिका बड़ी मजबूत थी. लेकिन, 1973 के बाद बदल रहे राजनीतिक समीकरण, हालात और राजनैतिक जरूरत ने बिहार में बड़ा बदलाव किया.
हालांकि, कांग्रेस जब बदली उसके बाद से बिहार में कांग्रेस की सियासत अपनी पुरानी राजनीतिक जमीन और जनाधार को खोजती रही. 1973 में कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर सीताराम केसरी स्थापित हुए, जो 1977 तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे और यही वह दौर था जब कांग्रेस की नीतियां पूरे देश में इस कदर बिखरी कि उसे समेटने में कई दशक गुजर गए. देश में लगा आपातकाल, जेपी आंदोलन और 1973 से 77 का कांग्रेस के सियासी सफर ने कांग्रेस के लिए नई राजनीतिक कथा लिखने ही नहीं दी.
यहीं से कांग्रेस की जमीन ऐसी बिखरी की 1989 और 90 में तत्कालीन कांग्रेस के अध्यक्ष जगन्नाथ मिश्रा के जाने के बाद कांग्रेस लालू यादव के पीछे जाकर बैठ गई और तब से 2021 के 10 अक्टूबर तक यही बात कही जाती रही कि कांग्रेस अपने बूते खड़ी होगी. हालांकि, 2010 में बदलाव जरूर दिखा था, जब अनिल सिन्हा के नेतृत्व में एक विरोध की बात आई थी और कांग्रेस-राजद दोनों अलग लड़ गए, लेकिन घाटा भी दोनों को हुआ तो फिर एक हो गए. अगुआई सदानंद सिंह ने की थी, अब सदानंद सिंह नहीं रहे, लेकिन जो लोग अब वाली कांग्रेस को बना रहे हैं और आने की बात कर रहे हैं, वो कई सवाल खड़े कर रहा है.
ये भी पढ़ें- शाहनवाज की कांग्रेस को नसीहत- 'पाकिस्तान के सुर में सुर ना मिलाए राहुल गांधी'
कांग्रेस जब-जब टूटी तब-तब पार्टी ने अपने लिए आफत ही मोल लिया. बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल कमीशन आने के बाद अगर सबसे ज्यादा घाटा किसी राजनीतिक दल का हुआ वह कांग्रेस ही थी. जबकि वही बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल 1968 में कांग्रेस कोटे से बिहार के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, लेकिन नीतियां कुछ इस कदर भटक गई कि कांग्रेस को बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल कमीशन के तहत ऐसे लोगों के पीछे खड़ा होना पड़ा जो आज गठबंधन में कांग्रेस को दिशा देने और सीट नहीं देने की बात कर रहे हैं, उसमें उस समय के नेताओं की बात छोड़ दी जाए.
उस समय के नेताओं के बेटे कांग्रेस को बिहार में राजनीतिक दिशा, जमीन और जनाधार की बात समझाते दिख रहे हैं. हालांकि, कांग्रेस भी अब समझौते के मूड में नहीं है. लेकिन, सवाल तो यही है कि जब सब लोग अपनी पुरानी जमीन और जनाधार को खोज रहे हैं, तो कांग्रेस अपने पुराने नेताओं को क्यों नहीं खोज रही है.
यह कहा जाता है कि गांधी परिवार ने कांग्रेस की बड़ी सेवा की है. देश के लिए बलिदान दे दिया, लेकिन जिन लोगों ने कांग्रेस के लिए सेवा कि आज उनका बलिदान देने में कांग्रेस नहीं चूक रही है. 2020 और 21 का साल कांग्रेस के राजनीतिक सफर का वह दौर रहा है, जिसमें अपने कई खास लोगों को कांग्रेस या तो विवादों में ले गई या विवादों के कारण वह चले गए इसकी शुरूआत अगर करें तो मध्यप्रदेश में गई कांग्रेस की सरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया के उस नाराजगी से था, जिसकी बुनियाद और जिनके पिताजी कभी राजीव गांधी के मित्र हुआ करते थे और मित्रता में कभी कांग्रेस से अलग गए नहीं.
हालांकि, राहुल और ज्योतिरादित्य सिंधिया की भी बात तो होती है लेकिन दोनों लोग एक दूसरे को रोक नहीं पाई. बात सचिन पायलट पर भी यही होती है कि आखिर राजस्थान में इस तरह के विभेद और नाराजगी की वजह क्या बनी. पंजाब ने इतिहास में कड़ी जोड़ दी, जब कैप्टन को इस कदर फजीहत झेलनी पड़ी. स्थिति पूरे देश में कमोबेश यही है कि आखिर अपने पुराने कांग्रेसी नेताओं को नए राजनैतिक जमीन पर कुछ नई सोच के तहत गांधी परिवार बलिवेदी पर क्यों चाह रहा है.
ये भी पढ़ें- भक्तचरण दास के खिलाफ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने खोला मोर्चा, पैसे लेकर पद बांटने का लगाया आरोप
बात बिहार की राजनीति की करें तो आज की तारीख में कभी दो बार अध्यक्ष रहे देश के प्रथम राष्ट्रपति बाबू राजेंद्र प्रसाद के परिवार का कोई व्यक्ति कांग्रेस की सियासत में सक्रिय नहीं है, और है भी तो उसकी भूमिका उतनी मजबूत नहीं है. प्रजापति मिश्र भी दो बार बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, लेकिन आज उनके परिवार का भी कोई सदस्य बहुत सक्रिय रूप से कांग्रेस के साथ नहीं है. ललित नारायण मिश्र और जगन्नाथ मिश्र का जो समीकरण बिहार की राजनीति में था, आज उसे ही कांग्रेस भटका चुकी है.
जगन्नाथ मिश्र जब जिंदा थे तो 2014 में एक बार बातचीत में उन्होंने कहा था कि सोनिया और राहुल के साथ प्रियंका आज वाली कांग्रेस को खड़ा करने की बात तो कर रही है, लेकिन जिन लोगों ने कांग्रेस को खड़ा किया, उन्हें छोड़ करके इन लोगों ने कांग्रेस को बिखरा दिया. जगन्नाथ मिश्र की नाराजगी शायद इस बात की भी थी कि गांधी परिवार का कोई अगर इस घराने पहुंच जाता तो संभवत कांग्रेस की दुर्गति नहीं होती. जगन्नाथ मिश्रा के बेटे नीतीश मिश्र आज बीजेपी में हैं और बीजेपी से विधायक हैं.
लेकिन, कांग्रेस को इस बात का जरा सा इल्म नहीं है कि जिन लोगों ने कांग्रेस की नीतियों को कांग्रेस की विचारधारा को और कांग्रेस को बिहार में इतनी मजबूती से स्थापित किया, चलाया, बढ़ाया आखिर वह पूरा कुनबा कांग्रेस से बिखर क्यों गया. राहुल गांधी, प्रियंका गांधी या सोनिया गांधी को इस बात का अहसास क्यों नहीं हो रहा है कि अगर इस घराने को एक बार फिर से अपने साथ जोड़ा जाए, तो शायद कांग्रेस अपनी दुर्गति से बच जाए. बिहार खोज भी यही रहा है, बिहार सोच भी यही रहा है कि आखिर कांग्रेस के लोग इस बात को सोच क्यों नहीं रहे हैं.
आज की राजनीति के लिए सवाल इसलिए प्रासंगिक हो रहा है कि लालू यादव की सियासत कांग्रेस के साथ रही तो माना यह जा रहा था कि पुराने नेता हैं. हालांकि, विभेद लगातार साथ रहा है कि जेपी के चेले हैं, लेकिन उसके बाद भी अपनी राजनीतिक वजूद के लिए कांग्रेस राजद के पीछे खड़ी रही. लेकिन, अब सवाल यह उठ रहा है कि इतनी पुरानी राजद को तेजस्वी यादव अगर नीतियां सिखाएंगे तो संभव है कि कांग्रेस के लिए शर्म का विषय होगा, जिसे शायद कांग्रेस महसूस भी करने लगी है कि उसे बिहार में सियासत से शर्म आने लगी है.
ये भी पढ़ें- 'चुनाव प्रचार में कभी आमने-सामने नहीं होंगे तेजस्वी और कन्हैया.. आप देख लीजिएगा'
अब सवाल यह है कि जो राष्ट्र कांग्रेस को खोज रहा है, उसमें उसे क्या मिलेगा. कन्हैया कुमार को कांग्रेस ने अपने साथ जोड़ लिया है और माना यह भी जा रहा है कि कार्यकारी अध्यक्ष के तौर पर कन्हैया कुमार को बिहार भेजा जाएगा. पप्पू यादव को साथ लाने के लिए कांग्रेस के नेता डोरे डाल रहे हैं. जिसे जातीय राजनीति की हर गोलबंदी की कोशिश के तहत देखा जा रहा है, लेकिन इसमें जो चीजें छुपी हुई है उसे जोड़ने की कोशिश नहीं हो रही है, जो कांग्रेस के घर आने थे वह आज कहां हैं और नीतियों और नेतृत्व से इतना दूर क्यों है, क्योंकि यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन लोगों के लोग राजनीति में नहीं है.
अगर ऐसा लगता है तो नीतीश मिश्रा उस के सबसे बड़े उदाहरण हैं और कई ऐसे नाम हैं जो बिहार की राजनीति में आज भी सक्रिय हैं. जो कभी मजबूत कांग्रेसी हुआ करते थे अब सवाल यह उठ रहा है कि जब गांधी परिवार में आज भी कांग्रेस को दिशा देने के लिए परिपाटी वही हैं, तो बिहार में जिन लोगों ने कांग्रेस को दिशा दी थी उस परिपाटी के सवाल को हर कांग्रेसी पूछ रहा है.
इसी सवाल के उत्तर के लिए दूसरे राजनीतिक दल कह भी रहे हैं कि अगर कांग्रेस ने अपनी उस जमीन को पकड़ लिया तो जनाधार बढ़ाना उसके लिए मुश्किल नहीं होगा. क्योंकि, अब तो परिवार की लड़ाई में कोई बचा नहीं. पद की लड़ाई से कोई राजनैतिक दल अछूता नहीं रहा और भ्रष्टाचार किसी भी राजनीतिक दल के दरवाजे तक नहीं पहुंचा है. इससे कोई इनकार नहीं कर सकता क्योंकि जे पी की सियासत हो या कर्पूरी की जिन लोगों ने इस सियासत को सिद्धांत बनाकर किया और सिद्धांत में इन्हें रख भी लिया उनके घर में भी भ्रष्टाचार के पैसे आज सीबीआई की फाइलों में लिखे जा रहे हैं.
अब दुनिया एक बार फिर से इस आधार को खड़ा करने की कोशिश कर रही है कि अगर कांग्रेस को फिर से मजबूत करना है तो पुराने कांग्रेसियों को जोड़ने से गुरेज क्या है. ये सूचना तो हालांकि कांग्रेस को है, लेकिन बिहार तो सवाल पूछ रहा है कि अगर पुराना गांधी परिवार कांग्रेस को चला रहा है, तो पुराने बिहारी कांग्रेसी आज वाले कांग्रेस को क्यों नहीं चला सकते और वह आज कहां है.