पटना: भारत त्योहारों का देश है. यहां जितने रिश्ते हैं, सभी के लिए किसी न किसी रूप पर्व-त्योहार अवश्य ही बनाए गए हैं. यही अपने देश की संस्कृति की विशेषता भी है. इसी क्रम में संतान की सलामती और दीर्घायु का व्रत जीवित्पुत्रिका (Jivitputrika) अथवा जिउतिया (Jitiya) मनाया जा रहा है. आश्विन माह के कृष्ण पक्ष पक्ष की अष्टमी तिथि को जीवित्पुत्रिका व्रत (Jivitputrika Vrat) मनाया जाता है. यह त्योहार बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल में यह मनाया जाता है. इसके अलावा नेपाल के मिथिला और थरुहट में भी मनाया जाता है. इस व्रत में महिलाएं नहाए खाए के साथ निर्जला उपवास रखती हैं.
आज नहाय-खाय के साथ शुरू हुए इस व्रत में पूरी तरह निर्जला रहा जाता है. मंगलवार को ये पारण के साथ संपन्न होगा. बात दें कि बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र में 28 सितंबर को मनाया जा रहा है. वहीं, बाकी जगहों पर 29 सितंबर को मनाया जा रहा है. यह व्रत माताएं अपने पुत्र और पुत्री की आरोग्य और दीर्घायु की कामना के लिए रखती हैं. कहा जाता है कि जिउतिया व्रत की कथा सर्वप्रथम शंकर जी ने माता पार्वती को सुनायी थी. ऐसे में गंगा के किनारे स्थित एक आध्यात्मिक क्षेत्र है इसलिए यहां स्नान करने वाली माताओं की संख्या भी हजारों की होती है.
क्यों पड़ा जीवित्पुत्रिका व्रत...
जिउतिया व्रत के पीछे महाभारत की कहानी है. ऐसा कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में अपने पिता की मौत के बाद अश्वत्थामा बहुत क्रोधित हो उठा. उसके हृदय में बदले की भावना भड़क रही थी. इसी के चलते उसने से बदला लेने की ठानी और पांडवों के शिविर में घुस गया. शिविर के अंदर पांच लोग सो रहे थे. अश्वत्थामा ने उन्हें पांडव समझकर मार डाला. वो सभी द्रोपदी की पांच संतानें थीं.
फिर अर्जुन ने उसे बंदी बनाकर उसकी दिव्य मणि छीन ली. अश्वत्थामा ने बदला लेने के लिए अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ में पल रहे बच्चे को गर्भ को नष्ट कर दिया. ऐसे में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सभी पुण्यों का फल उत्तरा की अजन्मी संतान को देकर उसको गर्भ में फिर से जीवित कर दिया. इस तरह गर्भ में मरकर जीवित होने के कारण उस बच्चे का नाम जीवित्पुत्रिका पड़ा. तब से ही संतान की लंबी उम्र और मंगल के लिए जिउतिया का व्रत किया जाने लगा.
क्या है पौराणिक कथा...
इस व्रत के पीछे की पौराणिक कथा इस प्रकार है कि गन्धर्वराज जीमूतवाहन बड़े धर्मात्मा और त्यागी पुरुष थे. युवाकाल में ही राजपाट छोड़कर वन में पिता की सेवा करने चले गए थे. एक दिन भ्रमण करते हुए उन्हें नागमाता मिली, जब जीमूतवाहन ने उनके विलाप करने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि नागवंश गरुड़ से काफी परेशान हैं.
वंश की रक्षा करने के लिए वंश ने गरुड़ से समझौता किया है कि वे प्रतिदिन उसे एक नाग खाने के लिए देंगे और इसके बदले वो हमारा सामूहिक शिकार नहीं करेगा. इस प्रक्रिया में आज उसके पुत्र को गरुड़ के सामने जाना है. नागमाता की पूरी बात सुनकर जीमूतवाहन ने उन्हें वचन दिया कि वे उनके पुत्र को कुछ नहीं होने देंगे और उसकी जगह कपड़े में लिपटकर खुद गरुड़ के सामने उस शिला पर लेट जाएंगे, जहां से गरुड़ अपना आहार उठाता है. इसके बाद उन्होंने ऐसा ही किया.
गरुड़ जीमूतवाहन को अपने पंजों में दबाकर पहाड़ की तरफ उड़ चला. जब गरुड़ ने देखा कि हमेशा की तरह नाग चिल्लाने और रोने की जगह शांत है, तो उसने कपड़ा हटाकर जीमूतवाहन को पाया. जीमूतवाहन ने सारी कहानी गरुड़ को बता दी, जिसके बाद उसने जीमूतवाहन को छोड़ दिया और नागों को न खाने का भी वचन दिया.