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चाईनीज लाइटों के आगे फीके पड़ रहे दीये, कुम्हारों का दर्द- कहीं इतिहास न बन जाए मिट्टी के बर्तन

पूजा, त्यौहार हो या शुभ अवसर, लोग मिट्टी के दीए आज भी शुभ और शुद्ध माना जाता है. मेहनत से चाक पर कुम्हार मिट्टी के एक-एक दीए बनाते हैं. लेकिन वर्तमान समय में रंग-बिरंगे चाइनीज कृतिम लाइट के आगे मिट्टी के दीये फीके पड़ने लगे हैं.

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Published : Oct 25, 2019, 7:30 AM IST

चायनीज लाईटो के आगे फीके पड़ रहे दीये,

गोपालगंजः दीपावली यानि दीपों का उत्सव. लेकिन बदले परिदृश्य में दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है. करवा चौथ हो या दीपावली हो अथवा कोई अन्य त्योहार. कुम्हारों के चाक पर बने दीप के बिना पूरे नहीं होते. जबकि दीपावली में रोशनी करने वाले मिट्टी के कारीगर आज 2 जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं.

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मिट्टी के बर्तन बनाते कुम्हार

कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं. लेकिन बदलती जीवनशैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाले कुम्हारों को उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है. बाजारों में चाइनीज झालरों की धमक मिट्टी के बने दीपक की रोशनी को फीका कर रही है. चाइनीज झालरों की मांग शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक बढ़ती जा रही है.

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दुकानों पर चाईनीज लाइट

पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर कुम्हार
बता दें कि 2 जून की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले कुम्हार का परिवार महीनों लगा रहता है. इसके बावजूद न तो उसे वाजिब दाम मिलता है और ना ही खरीददार. दूसरी तरफ चाइनीज दीये, मोमबत्ती और रंग-बिरंगे लाइट दीपावली के त्यौहार टिमटिमाते नजर आते हैं. आलम यह है कि उचित दाम नहीं मिलने से कुम्हार अपनी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ने को मजबूर है. क्योंकि इससे उनके परिवार का गुजर-बसर तक मुश्किल हो गया है.

देखिए स्पेशल रिपोर्ट

मंहगाई में गुजारा हुआ मुश्किल
हालांकि अभी भी कुछ लोग हैं, जिन्हें मिट्टी के बर्तन लुभाते हैं और इसे खरीदते भी हैं. शादी में प्रयोग आने वाले मिट्टी के बर्तन आज भी प्रचलन में है. जिसके कारण कुछ कुम्हारों की रोजी-रोटी चलती है. कुम्हारों ने ईटीवी भारत को बताया कि महंगाई की मार से मिट्टी भी अछूती नहीं है. अब कच्चा माल भी महंगा हो गया है. दिन रात मेहनत के बावजूद उन्हें मजदूरी नहीं मिल पाती, ऐसे में परिवार का गुजारा नहीं होता है. कुम्हारों का कहना है कि अगर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी इस धंधे को छोड़ देगी.

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अपना दुखड़ा सुनाता कुम्हार

कहीं इतिहास न बन जाए मिट्टी के बर्तन
मिट्टी के कारीगर नागेंद्र पंडित बताते हैं कि उनके बच्चे इससे मुह मोड़ रहे हैं. किसी तरह अपने पुश्तैनी धंधे को जीवित रखे हैं. इस तरफ सरकार भी ध्यान नहीं दे रही है. लोग चाईनीज सामान खरीदने में कोई मोलभाव नहीं करते लेकिन मिट्टी के बर्तन खरीदने में 100 रुपए का सामान 50 में मांगते हैं. ऐसा ही रहा तो आने वाले दिनों में यह एक इतिहास बन कर रह जायेगा और नई पीढ़ी इससे अनभिज्ञ रह जायेगी.

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मिट्टी के दीये और बर्तन

गोपालगंजः दीपावली यानि दीपों का उत्सव. लेकिन बदले परिदृश्य में दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है. करवा चौथ हो या दीपावली हो अथवा कोई अन्य त्योहार. कुम्हारों के चाक पर बने दीप के बिना पूरे नहीं होते. जबकि दीपावली में रोशनी करने वाले मिट्टी के कारीगर आज 2 जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं.

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मिट्टी के बर्तन बनाते कुम्हार

कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं. लेकिन बदलती जीवनशैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाले कुम्हारों को उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है. बाजारों में चाइनीज झालरों की धमक मिट्टी के बने दीपक की रोशनी को फीका कर रही है. चाइनीज झालरों की मांग शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक बढ़ती जा रही है.

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दुकानों पर चाईनीज लाइट

पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर कुम्हार
बता दें कि 2 जून की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले कुम्हार का परिवार महीनों लगा रहता है. इसके बावजूद न तो उसे वाजिब दाम मिलता है और ना ही खरीददार. दूसरी तरफ चाइनीज दीये, मोमबत्ती और रंग-बिरंगे लाइट दीपावली के त्यौहार टिमटिमाते नजर आते हैं. आलम यह है कि उचित दाम नहीं मिलने से कुम्हार अपनी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ने को मजबूर है. क्योंकि इससे उनके परिवार का गुजर-बसर तक मुश्किल हो गया है.

देखिए स्पेशल रिपोर्ट

मंहगाई में गुजारा हुआ मुश्किल
हालांकि अभी भी कुछ लोग हैं, जिन्हें मिट्टी के बर्तन लुभाते हैं और इसे खरीदते भी हैं. शादी में प्रयोग आने वाले मिट्टी के बर्तन आज भी प्रचलन में है. जिसके कारण कुछ कुम्हारों की रोजी-रोटी चलती है. कुम्हारों ने ईटीवी भारत को बताया कि महंगाई की मार से मिट्टी भी अछूती नहीं है. अब कच्चा माल भी महंगा हो गया है. दिन रात मेहनत के बावजूद उन्हें मजदूरी नहीं मिल पाती, ऐसे में परिवार का गुजारा नहीं होता है. कुम्हारों का कहना है कि अगर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी इस धंधे को छोड़ देगी.

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अपना दुखड़ा सुनाता कुम्हार

कहीं इतिहास न बन जाए मिट्टी के बर्तन
मिट्टी के कारीगर नागेंद्र पंडित बताते हैं कि उनके बच्चे इससे मुह मोड़ रहे हैं. किसी तरह अपने पुश्तैनी धंधे को जीवित रखे हैं. इस तरफ सरकार भी ध्यान नहीं दे रही है. लोग चाईनीज सामान खरीदने में कोई मोलभाव नहीं करते लेकिन मिट्टी के बर्तन खरीदने में 100 रुपए का सामान 50 में मांगते हैं. ऐसा ही रहा तो आने वाले दिनों में यह एक इतिहास बन कर रह जायेगा और नई पीढ़ी इससे अनभिज्ञ रह जायेगी.

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मिट्टी के दीये और बर्तन
Intro:हड़प्पा संस्कृति से भारत सहित कई देशों में मिट्टी के दिए को पौराणिक सभ्यता से जोड़कर देखा जाता है। पूजा त्यौहार हो या कोई शुभ अवसर लोग मिट्टी के दिए को आज भी शुभ और शुद्ध मानते हैं। बड़े ही मेहनत से चाक पर कुम्हार मिट्टी के एक एक दीए बनाते हैं। इनको बनाने में इन्हें कड़ी मेहनत भी करनी पड़ती है। मगर वर्तमान समय में रंग-बिरंगे चाइनीस कृतिम लाइट के आगे इनकी मिट्टी के दीए फीके पड़ने लगे हैं।













कभी उत्सव की शान समझे जाने वाले दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है। और दीपावली में रोशनी करने वाले मिट्टी के कारीगर आज 2 जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं। करवा चौथ हो या दीपावली हो अथवा कोई अन्य त्योहार। कुम्हारों के चाक और बर्तन के बिना पूरे नहीं होते। कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं। लेकिन बदलती जीवनशैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाला कुम्हार आज उपेक्षा का दंश झेल रहा है। बाजारों में चाइनीस झालरों की धमक मिट्टी के दीपक की रोशनी को फीका कर दिया है। शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चाइनीस दिए की मांग बढ़ती जा रही है। 2 जून की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले कुम्हार का परिवार मिट्टी के व्यवसाय में महीनों लगा रहता है। उसके बावजूद न तो उसे वाजिब दाम मिलते हैं,और ना ही खरीददार। समय की मार आए महंगाई के चलते लोग अब मिट्टी के दिए उतने पसंद नहीं करते। चीन में निर्मित बिजली से जलने वाले दीए और मोमबत्ती रंग-बिरंगे लाइट दीपावली के त्यौहार पर शगुन के रूप में टिमटिमाते नजर आते हैं । वाजिब दाम नहीं मिलने से कुम्हार अपना पुस्तैनी व्यवसाय छोड़ने को मजबूर है। क्योंकि इससे उनके परिवार का गुजर-बसर मुश्किल हो गया है। हलांकि अभी भी कुछ लोग है जिन्हें मिट्टी के बर्तन लुभाते हैं, और मिट्टी से बनी वस्तुएं को अच्छे दाम पर खरीदने हैं। शादी में प्रयोग आने वाले मिट्टी के बर्तन आज भी प्रचलन में है। जिसे कुछ कुम्हारों की रोजी-रोटी चलती है। कुम्हारों ने बताया कि महंगाई की मार से मिट्टी भी अछूती नहीं रही कच्चा माल भी महंगा हो गया है। दिन रात मेहनत के बावजूद हमें मजदूरी नहीं मिल पाती जिससे परिवार का गुजारा नहीं होता है।आने वाली पीढ़ी इस धंधा को छोड़ देगी धीरे धीरे इस काम से अब हमारे बच्चे मुह मोड़ रहे है हम लोग किसी तरह अपने पुस्तैनी धंधा को जीवित रखे हुए है। आने वाले दिनों में यह एक इतिहास बन कर रह जायेगा और नई पीढ़ी इससे अनभिग्न हो जाएगी।


Body:कभी उत्सव की शान समझे जाने वाले दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है। और दीपावली में रोशनी करने वाले मिट्टी के कारीगर आज 2 जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं। करवा चौथ हो या दीपावली हो अथवा कोई अन्य त्योहार। कुम्हारों के चाक और बर्तन के बिना पूरे नहीं होते। कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं। लेकिन बदलती जीवनशैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाला कुम्हार आज उपेक्षा का दंश झेल रहा है। बाजारों में चाइनीस झालरों की धमक मिट्टी के दीपक की रोशनी को फीका कर दिया है। शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक चाइनीस दिए की मांग बढ़ती जा रही है। 2 जून की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले कुम्हार का परिवार मिट्टी के व्यवसाय में महीनों लगा रहता है। उसके बावजूद न तो उसे वाजिब दाम मिलते हैं,और ना ही खरीददार। समय की मार आए महंगाई के चलते लोग अब मिट्टी के दिए उतने पसंद नहीं करते। चीन में निर्मित बिजली से जलने वाले दीए और मोमबत्ती रंग-बिरंगे लाइट दीपावली के त्यौहार पर शगुन के रूप में टिमटिमाते नजर आते हैं । वाजिब दाम नहीं मिलने से कुम्हार अपना पुस्तैनी व्यवसाय छोड़ने को मजबूर है। क्योंकि इससे उनके परिवार का गुजर-बसर मुश्किल हो गया है। हलांकि अभी भी कुछ लोग है जिन्हें मिट्टी के बर्तन लुभाते हैं, और मिट्टी से बनी वस्तुएं को अच्छे दाम पर खरीदने हैं। शादी में प्रयोग आने वाले मिट्टी के बर्तन आज भी प्रचलन में है। जिसे कुछ कुम्हारों की रोजी-रोटी चलती है। कुम्हारों ने बताया कि महंगाई की मार से मिट्टी भी अछूती नहीं रही कच्चा माल भी महंगा हो गया है। दिन रात मेहनत के बावजूद हमें मजदूरी नहीं मिल पाती जिससे परिवार का गुजारा नहीं होता है।आने वाली पीढ़ी इस धंधा को छोड़ देगी धीरे धीरे इस काम से अब हमारे बच्चे मुह मोड़ रहे है हम लोग किसी तरह अपने पुस्तैनी धंधा को जीवित रखे हुए है। आने वाले दिनों में यह एक इतिहास बन कर रह जायेगा और नई पीढ़ी इससे अनभिग्न हो जाएगी।


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