गोपालगंजः दीपावली यानि दीपों का उत्सव. लेकिन बदले परिदृश्य में दीपों का व्यवसाय आज संकट के दौर से गुजर रहा है. करवा चौथ हो या दीपावली हो अथवा कोई अन्य त्योहार. कुम्हारों के चाक पर बने दीप के बिना पूरे नहीं होते. जबकि दीपावली में रोशनी करने वाले मिट्टी के कारीगर आज 2 जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं.
कुम्हार के चाक से बने खास दीपक दीपावली में चार चांद लगाते हैं. लेकिन बदलती जीवनशैली और आधुनिक परिवेश में मिट्टी को आकार देने वाले कुम्हारों को उपेक्षा का दंश झेलना पड़ रहा है. बाजारों में चाइनीज झालरों की धमक मिट्टी के बने दीपक की रोशनी को फीका कर रही है. चाइनीज झालरों की मांग शहर से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक बढ़ती जा रही है.
पुश्तैनी धंधा छोड़ने पर मजबूर कुम्हार
बता दें कि 2 जून की रोटी के लिए कड़ी मेहनत करने वाले कुम्हार का परिवार महीनों लगा रहता है. इसके बावजूद न तो उसे वाजिब दाम मिलता है और ना ही खरीददार. दूसरी तरफ चाइनीज दीये, मोमबत्ती और रंग-बिरंगे लाइट दीपावली के त्यौहार टिमटिमाते नजर आते हैं. आलम यह है कि उचित दाम नहीं मिलने से कुम्हार अपनी पुश्तैनी व्यवसाय छोड़ने को मजबूर है. क्योंकि इससे उनके परिवार का गुजर-बसर तक मुश्किल हो गया है.
मंहगाई में गुजारा हुआ मुश्किल
हालांकि अभी भी कुछ लोग हैं, जिन्हें मिट्टी के बर्तन लुभाते हैं और इसे खरीदते भी हैं. शादी में प्रयोग आने वाले मिट्टी के बर्तन आज भी प्रचलन में है. जिसके कारण कुछ कुम्हारों की रोजी-रोटी चलती है. कुम्हारों ने ईटीवी भारत को बताया कि महंगाई की मार से मिट्टी भी अछूती नहीं है. अब कच्चा माल भी महंगा हो गया है. दिन रात मेहनत के बावजूद उन्हें मजदूरी नहीं मिल पाती, ऐसे में परिवार का गुजारा नहीं होता है. कुम्हारों का कहना है कि अगर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी इस धंधे को छोड़ देगी.
कहीं इतिहास न बन जाए मिट्टी के बर्तन
मिट्टी के कारीगर नागेंद्र पंडित बताते हैं कि उनके बच्चे इससे मुह मोड़ रहे हैं. किसी तरह अपने पुश्तैनी धंधे को जीवित रखे हैं. इस तरफ सरकार भी ध्यान नहीं दे रही है. लोग चाईनीज सामान खरीदने में कोई मोलभाव नहीं करते लेकिन मिट्टी के बर्तन खरीदने में 100 रुपए का सामान 50 में मांगते हैं. ऐसा ही रहा तो आने वाले दिनों में यह एक इतिहास बन कर रह जायेगा और नई पीढ़ी इससे अनभिज्ञ रह जायेगी.