पटना: अपनी राजनैतिक जीवन के 42वें साल को मना रही बीजेपी कभी आरजेडी सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव (RJD supremo Lalu Prasad Yadav) की भी सहयोगी रही थी. तब साल 90 के दशक का था, पार्टी जनता दल की थी, बिहार का बंटवारा नहीं हुआ था और राजनीति के तमाम समीकरण लालू प्रसाद के साथ जुड़ रहे थे. वर्तमान में राज्य की सियासत को देखें या फिर राष्ट्रीय राजनीति हर तरफ लालू प्रसाद का चेहरा बीजेपी के सबसे मुखर विरोधी के रूप में पहचाना जाता है.
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तब हर तरफ थी कांग्रेस की लहर: आज देश के करीब 17 राज्यों में अपनी या फिर सहयोगियों के साथ सरकार चला रही बीजेपी के जैसे ही इसी देश में एक ऐसा ही वक्त था, जब देश की हर पार्टी के निशाने पर सबसे पहले कांग्रेस पार्टी हुआ करती थी. आज के दौर में बीजेपी को रोकने के लिए जैसे सभी विरोधी पार्टियां एक हो जाती है, ठीक उसी प्रकार तब कांग्रेस को रोकने के लिए विभिन्न विरोधी दल अपने मतभेद को भूलाकर एक साथ गलबहियां करते थे.
कांग्रेस पार्टी की बोलती थी तूती: तब कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और गुजरात से लेकर मिजोरम तक कांग्रेस पार्टी की तूती बोलती थी. चुनाव चाहे जब भी हो, कांग्रेस पार्टी को बहुमत मिलता था. 1984 के बाद देश में राजनीति ने नई करवट लेना शुरू किया. 1988 में जनता पार्टी, लोकदल (ब) और जनमोर्चा का विलय हुआ. देश की राजनीति में जनता दल नाम की पार्टी सामने आई. तब केंद्र में वीपी सिंह और चौधरी देवीलाल काफी सक्रिय थे.
मंडल के सामने कमंडल की धार: 1990 के विधानसभा चुनाव के वक्त एक तरफ देश में जहां मंडल कमीशन की चर्चा हो रही थी. वहीं, दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी सत्ता के गलियारे में अपनी राजनीतिक पकड़ को और मजबूत करने के लिए कमंडल की राजनीति को धार देने में लगी हुई थी. दोनों के रास्ते अलग जरूर थे, लेकिन दोनों ही दल एक मसले पर एक जैसी ही राय रखते थे और वह मसला था कांग्रेस का विरोध. कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने के लिए एक तरफ बीजेपी जहां केंद्र में वीपी सिंह सरकार को समर्थन दे रही थी, वहीं दूसरी तरफ बिहार में भी कुछ ऐसा ही सीन बन गया.
कांग्रेस को सत्ता से दूर करने का प्लान: इस दौरान ही बिहार में विधानसभा का चुनाव हुआ. तब बिहार का बंटवारा नहीं हुआ था और आज का झारखंड बिहार का हिस्सा हुआ करता था. तब बिहार विधानसभा में 324 सीटें हुआ करती थी. इस चुनाव में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी को महज 71 सीटें मिली, वहीं दूसरी तरफ जनता दल ने 122 सीटों पर विजय प्राप्त करके अपनी मजबूत उपस्थिति को दर्शाया, हालांकि जनता दल भी अभी बहुमत के जादुई आंकड़े से दूर थी और उसे समर्थन की जरूरत थी. तब के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के 39 सदस्य चुने गए थे. मंडल व कमंडल की राजनीति के बीच का पुल बना और सत्ता से कांग्रेस को दूर करने का प्लान भी बना.
बिहार की राजनीति का एक नया अध्याय: तब केंद्र सरकार की ही तर्ज पर बिहार में बीजेपी ने जनता दल को समर्थन दिया, लेकिन इन सबके बाद भी जनता दल में भी सीएम बनने के लिए दो ध्रुव बन चुके थे, जिसमें रामसुंदर दास लालू प्रसाद यादव को चुनौती पेश कर रहे थे. तब जनता दल के अंदर ही वोटिंग हुई और लालू प्रसाद ने इसमें जीत हासिल की और नेता चुने गए. 10 मार्च 1990 वह तारीख थी, जब लालू प्रसाद पहली बार बिहार के सीएम की कुर्सी पर बैठे और बिहार की राजनीति का एक नया अध्याय शुरू हुआ. तब से लेकर अब तक लालू प्रसाद बिहार की राजनीति की एक ऐसी धुरी बने हुए हैं, जिसके बिना राज्य की राजनीति अधूरी मानी जाती है.
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हालांकि, बीच के कुछ सालों को छोड़कर पिछले करीब 14 सालों से बीजेपी बिहार में सत्तासीन है, लेकिन लालू प्रसाद की प्रासंगिकता अभी भी बनी हुई है. यानि लालू सत्ता में रहे या न रहें, राजनीति उनके इर्द गिर्द घूमती जरूर है. लालू प्रसाद की पार्टी आरजेडी की प्रदेश प्रवक्ता रितु जायसवाल (RJD State Spokesperson Ritu Jaiswal) कहती हैं कि बिहार की राजनीति में अगर लालू प्रसाद सार्वभौम भूमिका में हैं, तो उसका सबसे बड़ा कारण उनकी विचारधारा है. वह अपने सिद्धांतों पर हमेशा अडिग रहे हैं और आज भी हैं. जब बीजेपी के साथ उन्होंने जुड़ने का फैसला किया, तब के राजनीतिक हालात कुछ और थे. हालांकि, उन्होंने कभी भी कंप्रोमाइज नहीं किया.
''लालू प्रसाद और राजद आज भी अपनी जगह पर अडिग हैं. लालू प्रसाद की राजनीति ने राज्य में सामाजिक परिवर्तन का बड़ा उदाहरण पेश किया. जिसे आज भी महसूस किया जाता है और आगे भी किया जाता रहेगा. लालू प्रसाद की सबसे बडी उपलब्धि दलितों, पिछड़ों और कमजोर वर्ग को आवाज देना रही. यह वह दौरा था जब लोग अपने हक को लेकर बोल नहीं पाते थे. लालू प्रसाद का दौर सामाजिक समानता का दौर था. लंबे वक्त की राजनीति के बाद आगे का विजन ब्लॉक हो जाता है, लेकिन लालू प्रसाद ने उसे कायम रखा. उनकी पार्टी आज भी उनके विजन को जारी रखे हुए है.''- रितु जायसवाल, प्रदेश प्रवक्ता, राष्ट्रीय जनता दल
''राजनीति व संभावनाएं दोनों एक साथ चलती रहती हैं. जब बीजेपी ने लालू प्रसाद का साथ दिया तो उनका संख्या बल बहुत कम था, लेकिन रणनीति थी. उस वक्त कमल को खिलाने की बात थी. इसके बाद दिनोंदिन बीजेपी मजबूत होती गई और आज की तारीख में देश स्तर पर यह पार्टी बहुत मजबूत है. इसमें कहीं कोई दो राय नहीं है कि तब बीजेपी का लालू प्रसाद के साथ जाना उनकी रणनीति थी. राजनीति में संभावनाएं बनी रहती हैं, इसमें पूर्णविराम नहीं लगता है.''- रवि उपाध्याय, राजनीतिक विश्लेषक
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