पटना: बिहार बीजेपी में अगड़े और पिछड़े की लड़ाई (Forward backward fight in Bihar BJP) छिड़ी है. बीजेपी को लेकर सवर्ण वोटरों की नाराजगी भी बढ़ती (Upper caste voters displeasure over BJP) जा रही है. बिहार विधान परिषद चुनाव और बोचहां विधानसभा उपचुनाव में इसकी बानगी देखने को मिली. बीजेपी और एनडीए ने इस उपचुनाव में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. प्रचार में नेताओं भारी फौज उतार दी थी, लेकिन आरजेडी प्रत्याशी के हाथों एनडीए उम्मीदवार को भारी मतों के अंतर से हार मिली. पार्टी अब विधान परिषद और राज्यसभा चुनाव के जरिए डैमेज कंट्रोल की कोशिश में है.
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बिहार भाजपा में पिछड़ी जातियों का बोलबाला: बिहार में 15 फीसदी वोट बैंक पर सवर्णों का कब्जा है. सवर्ण वोटर बीजेपी के कोर वोटर माने जाते हैं. हाल के कुछ वर्षों में सवर्ण वोटरों की नाराजगी देखने को मिली है. प्रदेश में ज्यादातर पदों पर पिछड़ी जाति के लोगों को जगह मिली है. सुशील चौधरी और देवेश कुमार अगड़ी जाति से हैं. दोनों ही पार्टी में महामंत्री हैं.
दरअसल, भूपेंद्र यादव बिहार के प्रभारी हैं और प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल हैं. केंद्रीय गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय की भूमिका भी बिहार भाजपा में अहम है. ऐसे में सवर्ण नेताओं को यह लग रहा है कि उनकी पार्टी में उनकी उपेक्षा हो रही है. भाजपा से बगावत कर सच्चिदानंद राय विधान परिषद का चुनाव लड़े जीते. सच्चिदानंद राय ने कहा है कि हम अब अगड़ी जाति की उपेक्षा बर्दाश्त नहीं करेंगे.
इधर, भाजपा के कद्दावर नेता और राज्य के पूर्व मंत्री सुरेश शर्मा की नाराजगी भी सतह पर आ गई है. उपचुनाव के दौरान सुरेश शर्मा बिल्कुल निष्क्रिय दिखे. यहां तक कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मंच साझा तक नहीं किया. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष संजय जायसवाल का भी उपचुनाव के दौरान विरोध हुआ. लाख कोशिशों के बावजूद सुरेश शर्मा नहीं माने और काफी हद तक बीजेपी को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा.
डैमेज कंट्रोल की कवायद शुरू: आने वाले कुछ महीनों में बिहार में राज्यसभा और विधान परिषद की खाली सीटों पर चुनाव होने हैं. भाजपा दोनों चुनावों के जरिए सवर्ण वोट बैंक को साधने की कोशिश करेगी. आगामी 7 जुलाई को राज्यसभा की कुछ सीटें खाली हो रही हैं. भाजपा के राज्यसभा सांसद सतीश दुबे और गोपाल नारायण सिंह का कार्यकाल खत्म होने वाला है. भाजपा के खाते में 2 सीटें जाएंगी. राजद भी 2 सीटों पर जीत हासिल कर करेगीय जदयू के खाते में 1 सीट जाएगी. पार्टी को एक और सीट का फायदा होगा. किंग महेंद्र की सीट पर उपचुनाव होने हैं.
आपको बता दें कि राज्यसभा की एक सीट के लिए 41 विधायकों का समर्थन चाहिए. भाजपा बहुत आसानी से दो नेताओं को राज्यसभा भेज सकती है. साल 2020 में विवेक ठाकुर को राज्यसभा भेजा गया था. साल 2021 में देवेश कुमार विधान परिषद भेजे गए थे. एक बार फिर पार्टी पर अगड़ी जातियों का दबाव है.
नेताओं की नाराजगी दूर करने का प्रयास: मिल रही जानकारी के मुताबिक सतीश चंद्र दुबे ब्राह्मण कोटे से राज्यसभा भेजे जा सकते हैं. पूर्व विधायक और पार्टी के उपाध्यक्ष मिथिलेश तिवारी भी दौड़ में शामिल हैं. इधर, राजपूत जाति से संजय टाइगर को पार्टी भेज सकती है. पूर्व सांसद आरके सिन्हा के पुत्र ऋतुराज सिन्हा भी दौड़ में शामिल हैं. पूर्व मंत्री सुरेश शर्मा की नाराजगी को पार्टी कम करने की कोशिश करेगी. एक सीट पिछड़ी जाति के कोटे में जाएगी. पिछड़ी जाति में प्रेम रंजन पटेल का नाम सबसे आगे है. पिछली बार भी प्रेम रंजन पटेल का नाम भेजा गया था.
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विधान परिषद का कार्यकाल भी 19 जुलाई को खत्म हो रहा है. कुल 7 पद खाली हो रहे हैं. भाजपा के खाते में जहां 2 सीटें जाएंगी. वहीं, जदयू के खाते में 1 तय है. राजद को भी 2 सीटें मिलेंगी. इससे अलग भाजपा और जदयू मिलकर एक सीट हासिल कर पाएगी. दूसरी ओर आरजेडी और लेफ्ट पार्टी भी मिलकर एक सीट पर कब्जा सर सकते हैं. विधान परिषद की एक सीट के लिए 31 मतों की दरकार होगी.
मुकेश सहनी के अलग होने के बाद विधान परिषद का एक सीट जाना तय है. अर्जुन सहनी फिलहाल विधान पार्षद हैं. पार्टी उन्हें दोबारा भेज सकती है. कैबिनेट में सहनी कोटे से एक मंत्री भी बनाया जाना है. भाजपा अगड़ी जाति से एक नेता को विधान परिषद भेजेगी. इसकी पूरी संभावना है क्योंकि पार्टी पर अगड़ी जाति के नेताओं का भारी दबाव है. अनिल शर्मा, राजेश वर्मा, संजय टाइगर और मिथिलेश तिवारी के नाम दावेदारों की सूची में शामिल हैं. इनमें से किसी एक का विधान परिषद जाना तय माना जा रहा है.
बीजेपी प्रवक्ता अरविंद सिंह ने कहा है कि पार्टी सब को सम्मान देती है. अगर थोड़ी बहुत नाराजगी है तो उसे दूर कर लिया जायेगा. भाजपा नेता ने कहा कि संगठन बड़ा है और कुछ लोग नाराज हो सकते हैं. इसका यह मतलब नहीं है कि वह पार्टी के विरोध में जाएंगे. जहां तक पद का सवाल है तो पद कम हैं और कार्यकर्ताओं की संख्या ज्यादा है लेकिन पार्टी मेहनत के आधार पर कार्यकर्ताओं को पुरस्कृत करती है.
पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक कौशलेंद्र प्रियदर्शी का मानना है कि भूपेंद्र यादव, नित्यानंद राय और संजय जायसवाल की टीम के सक्रियता के बाद पार्टी के अंदर अगड़ी जाति के नेता उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. चुनावों के दौरान नतीजों पर उसका असर भी देखने को मिला है. पार्टी के सामने डैमेज कंट्रोल ही एक विकल्प है.
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