मुजफ्फरपुर: उत्तर बिहार की आर्थिक राजधानी मुजफ्फरपुर एक समय में लहठी उद्योग के लिए भी विश्व विख्यात हुआ करता था. यहां की बनी लहठी ने दूसरे राज्यों सहित पड़ोसी देश नेपाल में भी एक अलग पहचान बना रखी थी. लेकिन, अब इस कारोबार से जुड़े लोगों की आर्थिक तंगी और सरकारी मदद के अभाव से यह व्यवसाय बंद होने के कगार पर आ गई है.
पलायन कर रहे लोग
लाह की लहठी के निर्माण के लिए विश्व प्रसिद्ध कुढ़नी प्रखंड के चैनपुर वाजिद गांव में अब सन्नाटा पसर गया है. एक समय में यहां की बनी लाह की लहठी की काफी मांग हुआ करती थी. मुजफ्फरपुर से लेकर देश की कई चूड़ी मंडी में यहां के लाह की लहठी की एक खास पहचान हुआ करती थी. मुनाफा कम होने की वजह से उद्यमी इस व्यवसाय से मुंह मोड़ने लगे हैं. इस कारण से सुंदर और कलात्मक चूड़ी बनाने वाले हाथ मजदूरी करने हो विवश हैं. लोग रोजगार के लिए यहां से पलायन कर रहे हैं.
सरकार दे रही सिर्फ अंग्रेजी दम
स्थानीय लोगों ने बताया कि सरकार सिर्फ दावे करती है. जमीनी स्तर पर उन्हें कुछ नहीं मिला है. जिन लोगों के पास जमीन की कागजात है, उन्हें ही लोन मिलती है. खासकर गरीब तबके के लोगों को कुछ नहीं मिलती. सरकार कहती तो है कि वह गरीबों के लिए बहुत कुछ कर रही है, लेकिन उन्हें कुछ नहीं मिलता है. बैंक में जाने पर बैंक का कहना है कि यह गांव उस बैंक के अंदर आता हीं नहीं है. स्थानीय लोगों ने आसपास के सभी स्थानीय बैंकों में जाकर देख लिया. सभी बैंकों ने इस गांव को अपने एरिया के अंदर बताने से इन्कार कर दिया.
1970 से चल रहा चुड़ी का निर्माण
आपको बता दें कि यहां के कारीगर ऑर्डर और मेटेरियल के अनुसार 50 रुपए से लेकर 5 लाख रुपए या उससे भी कीमती कंगन बनाया करते थे. यहां लाह से निर्मित चुड़ी भी बनाई जाती थी. इस धंधे को अब गिने-चुने लोगों ने हीं जीवित रखा है. कहा जाता है कि यहां के एक व्यक्ति ने जयपुर जाकर वहां से चुड़ी का निर्माण सिखा था. वर्ष 1970 में उन्होंने वापस आकर यहां पर चु़ड़ी का निर्माण शुरु किया. आसपास के लोगों को भी लाह की चूड़ी बनानी सिखाई. आज इस गांव में 400 ऐसा परिवार है जो इस कार्य में लगा हुआ है.
लहठी कारीगरों के ऋण में घोटाला
सेवा यात्रा के दौरान 2011 में मुख्यमंत्री ने उद्योग से जुड़े सभी व्यक्तियों को 1 लाख देने की घोषणा की थी, लेकिन इसकी जमीनी हकीकत कुछ और ही है. लहठी के थोक विक्रेताओं को तो 1 लाख रुपए का ऋण मिला, लेकिन कुछ अल्पसंख्यक लहठी कारीगरों को मात्र 50 हजार रुपए ही मिले. कई लोगों को यह राशि भी नहीं मिली. उसके बाद स्थानीय बैंक ने भी इस योजना में दिलचस्पी नहीं दिखाई.