श्योपुर: संसार में रहने वाले हर वो मां-बाप अपने बच्चों के प्रति हमेशा कुछ न कुछ करने के लिए तैयार रहते हैं. बच्चों का जीवन कैसे सुखी निकले, इसकी चिंता करते हुए हर उस कर्तव्य को निभाते हैं जो उनके बूते से बाहर होता है. कई परेशानियों का सामना करते हुए अपने बच्चों का भविष्य बनाते हैं और बच्चों को पालकर बड़ा करते हैं, लेकिन उन मां-बाप का क्या, जब उन्हें सहारे की जरूरत होती है? तब जब उनके अपने बच्चे उन्हें वृद्ध आश्रम का रास्ता दिखा देते हैं?
2004 से चल रहा है प्रेरणा वृद्ध आश्रम
शास्त्रों में कहा गया है कि मां-बाप के कर्ज को बच्चे कभी उतार नहीं सकते. वह आजीवन उनके ऋणी रहते हैं. पर यह तो बात हुई शास्त्रों की, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी कई मां-बाप को अपनी जिंदगी बच्चों से दूर वृद्ध आश्रमों में गुजारनी पड़ती है. वह भी उस उम्र में जब उन्हें सबसे ज्यादा परिवार की और ख्याल रखने वाले अपनों की जरूरत होती है. ऐसे में उन्हें अकेला छोड़ दिया जाता है. श्योपुर का प्रेरणा वृद्ध आश्रम 2004 से नियमित रूप संचालित है. यहां बेसहारा बुजुर्गों की सेवा की जाती है. अभी वर्तमान में इस आश्रम में 25 बुजुर्ग हैं. बच्चों द्वारा माता-पिता को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया जाता है, उसके बाद भी यहां के बुजुर्ग अपने बेटों के सुखमय जीवन के लिए दूर से ही मन ही मन आशीर्वाद देते रहते हैं.
बेसहारों का सहारा है प्रेरणा वृद्ध आश्रम
वृद्ध आश्रम में जीवन यापन कर रहे देवीराम कहते हैं, '' मेरा हंसता खेलता परिवार है. पोते-पोती हैं, लेकिन शादी होते ही बेटा बदल गया. एक दिन भी मुझे रोटी नहीं खिलाई. यहां तक की घरवाली ने भी मेरा साथ छोड़ दिया. तब मजबूरी में मुझे वृद्ध आश्रम का सहारा लेना पड़ा. आज भी मैं बच्चों और घरवाली से बात करने की कोशिश करता हूं तो कोई बात नहीं करता है.'' इसी प्रकार आश्रम में मौजूद मां मुन्नी बाई ने बताया, '' मेरे दो बेटे हैं, घरबार जमीन जायदाद सबकुछ उनको सुपुर्द कर दिया. फिर भी मुझे घर में रहने नहीं दिया और बहू बेटों ने मारना-पीटना शुरू किया तो मैं वृद्धाश्रम आ गई और अब 12 महीनों से मैं इस वृद्ध आश्रम में रह रही हूं. अब वृद्धाश्रम के लोग ही मेरा परिवार हैं. मुझे यहां के लोग परिवार की कमी महसूस नहीं होने देते हैं.''
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जरूरत पर मुंह मोड़ लेते हैं बच्चे
वृद्धाश्रम में रहने वाले एक और बुजुर्ग सुशील कुमार सक्सेना कहते हैं, '' जिस तरह मां-बाप अपने बच्चों को पाल-पोसकर बड़ा करते हैं. पढ़ा-लिखाकर उन्हें एक अच्छा इंसान बनाते हैं. फिर उन्हीं मां-बाप को जब उन बच्चों की जरूरत पड़ती है तो वह अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लेते हैं. यह 50 साल पहले हमारे जमाने में नहीं था. आज के बच्चों में और पीढ़ी में ऐसा देखने को मिल रहा है जो कि गलत है.''