झाबुआ। कश्मीर से विस्थापन की पीड़ा और परिवार के चार लोगों की नृशंस हत्या के कभी न खत्म होने वाले दर्द को दिल में बसाए झाबुआ के प्रोफेसर डॉ. रविन्द्र सिंह के जख्म पर अब जाकर कुछ मरहम लग पाया है. धारा 370 हटने के बाद हाल ही में उन्हें उनके पूर्वजों की जन्मस्थली आवेरा उमरखान (मुजफ्फराबाद) जोकि वर्तमान में पाक अधिकृत कश्मीर का हिस्सा है, वहां के मूल निवासी का प्रमाण पत्र मिल गया है. अब उनका एक ही सपना है कि एक दिन कश्मीर के उस हिस्से में तिरंगा लहराए और वे फिर से अपने पूर्वजों की जमीन पर जाकर मत्था टेक सकें.
सन् 1947 में कश्मीरी ब्राह्मणों की तरह ही घर छोड़ना पड़ा
डॉ.रविंद्र सिंह वर्तमान में झाबुआ के आदर्श महाविद्यालय में प्राचार्य हैं. उनके दादाजी स्वर्गीय रूपसिंह और पिता गुरुबचन सिंह वर्तमान में पाक अधिकृत कश्मीर के दुप्पटा जिले की मुजफ्फराबाद तहसील के गांव आवेरा उमरखान पोस्ट गरही के निवासी थे. 1947 में उन्हें अन्य कश्मीरी ब्राह्मणों की तरह ही अपना घर छोड़ना पड़ा था. उस वक्त सरकार ने उन्हें राजस्थान के श्री गंगानगर में विस्थापित किया था. डॉ. रविंद्र सिंह कहते हैं "उनके पिता गुरबचन सिंह अक्सर अपने गांव और बचपन के किस्से सुनाया करते थे. तब से उनके मन में अपने पूर्वजों की जमस्थली को देखने की इच्छा है. धारा 370 हटने के बाद सरकार ने नई व्यवस्था लागू की. जिसके बाद अब उनका पैतृक गांव का मूल निवासी प्रमाण पत्र बन पाया है." रविंद्र सिंह के परिवार में उनकी पत्नी सरबजीत, बेटी डॉ कंवलप्रित और बेटा हर्षदीप सिंह हैं.
जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने भी दिया पक्ष में फैसला
डॉ. रविंद्र सिंह ने बताया हाल ही में जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट ने भी एक महत्वपूर्ण फैसला देते हुए जम्मू-कश्मीर के बाहर रहने वाले सभी 5300 परिवारों के साथ जम्मू-कश्मीर में रहने वाले पीओजेके परिवारों के समान व्यवहार करने के निर्देश दिए हैं. कोर्ट ने सरकार को निर्देश दिया कि 6 माह के भीतर वह जम्मू-कश्मीर के बाहर रहने वाले सभी 5300 पीओजेके परिवारों को नकद सहायता और अन्य सभी लाभ प्रदान करे, जो जम्मू-कश्मीर में रहने वाले पीओजेके डीपी परिवारों को प्रदान किए जा रहे हैं.
कश्मीर से विस्थापन की पूरी कहानी डायरी में
प्रो. डॉ.रविन्द्र सिंह ने बताया "उनके पिता स्वर्गीय गुरबचन सिंह ने कश्मीर से विस्थापन की पूरी कहानी को पंजाबी में एक डायरी में लिखा है. जिसे नाम दिया है-घल्लू घारा. इसमें उन्होंने बताया कि किस तरह से पूरे परिवार और रिश्तेदारों ने घर को छोड़ा और कैसे अलग-अलग कैंप में दिन बिताए. फिर सरकार ने उन्हें राजस्थान के गंगानगर में विस्थापित किया. प्रो. डॉ. रविन्द्र सिंह अब डायरी का हिंदी में अनुवाद कर रहे हैं. डॉ. रविन्द्र सिंह बताते हैं 1947 को जिस दिन कबीलाई हमला हुआ, उस दिन उनके ताऊजी हरनामसिंह मुजफ्फराबाद में श्री हर गोबिंदसाहेबजी गए थे. वे वापस नहीं लौटे. साथ गए लोगों ने बताया हमला करने वालों ने उन्हें लकड़ी के पिट्ठे में डालकर जिंदा जला दिया."
झेलम नदी के किनारे कबिलाइयों ने गोली चलाकर मार डाला
प्रो. रविंद्र सिंह बताते हैं "इस दर्द के साथ पूरा परिवार घर छोड़कर झेलम नदी के किनारे किनारे निकला. रात में जब खाना बनाने के लिए आग जलाई तो कबिलाइयों ने गोलियां चला दीं. जिसमें प्रो. डॉ.रविन्द्र सिंह के फूफाजी बलवंत सिंह और उनकी दो बेटियों की मौत हो गई. इसका ऐसा सदमा लगा कि उनकी बुआ सीता कौर की मानसिक हालत बिगड़ गई. उनके पिता से जब वे सवाल करते थे कि उनका घर कैसा था तो वे कहते थे हमारे घर के आंगन में अखरोट का पेड़ था. उसका तना खोखला था. जब घर छोड़कर निकल रहे थे तो कुछ सामान उसमें भरकर आ गए थे. सोचा था जब वापस लौटेंगे तो सामान निकाल लेंगे, परंतु ऐसा कभी नहीं हो सका. पिता की अंतिम इच्छा थी कि एक बार अपने गांव जाएं लेकिन वह पूरी नहीं हो सकी."
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राहत कैंपों में रहकर बिताए वो दिन नहीं भूल सकते
अपना घर छोड़ने के बाद डॉ. रविन्द्र सिंह के परिजन 1947 में दो माह तक कुरुक्षेत्र में ट्रांजिट कैंप में रहे. इसके बाद 1948 से 1950 तक हिमाचल प्रदेश के चनार में उन्हें रिलीफ कैंप में रखा गया. 1950 से 1952 तक वे लोग योल (कांगड़ा) में रिलीफ कैंप में रहे. फिर सभी परिवारों को राजस्थान के श्री गंगानगर की रायसिंह नगर तहसील के गांव 10 एनपी मोहन नगर में विस्थापित किया गया. तब से पूरा परिवार वहीं रह रहा है. वह बताते हैं कि 1947 में जिस वक्त उनके दादाजी स्वर्गीय रूपसिंह पिता दयालसिंह और उनके पिता स्वर्गीय गुरुबचन सिंह सहित परिजन ने घर छोड़ा था तो सरकारी स्तर पर उनकी संपत्ति का कुल मूल्य 53 हजार रुपए आंका गया था. इसमें 35 हजार कीमत की तो जमीन थी. इसके अलावा 10 हजार का मकान, 5 हजार की अन्य सामग्री और 3 हजार का पशुधन शामिल था. वर्तमान में इस संपत्ति का मूल्य करोड़ों में है.