बगहा: वाल्मीकि टाइगर रिजर्व से सटे आदिवासी बहुल इलाके की पहचान कभी रेड कॉरिडोर के तौर पर हुआ करती थी. साल 1980 के दशक में यहां नक्सली गतिविधियों और डकैतों के तांडव की वजह से ना तो कोई बसना चाहता था और ना हीं आने जाने की हिम्मत कर पाता था. आलम यह था की हरनाटांड़ में वीरानगी छाई रहती थी और महज गिनती के परिवार बसते थे. प्रत्येक सप्ताह बुधवार को यहां हाट लगता था लेकिन आज इलाके की फिजा बदल गई है और अब बाजार में प्रतिदिन रौनक रहती है.
एक डॉक्टर जिसने बदली गांव की तस्वीर: दरअसल वर्ष 1984 में दरभंगा मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई करने वाले कृष्णमोहन रॉय आदिवासी बहुल क्षेत्र के पहले डॉक्टर बने. जिसके बाद उप स्वास्थ्य केंद्र लौकरिया में उनका पदस्थापन हुआ लेकिन साल 1992 में जब उनका स्थानांतरण सीतामढ़ी हुआ तो पारिवारिक मजबूरियों की वजह से उन्होंने अपनी सरकारी नौकरी छोड़ने का फैसला किया. उन्होंने हरनाटांड़ में अपना निजी क्लीनिक स्थाई तौर पर खोल लिया.
यूपी और नेपाल से भी आते हैं मरीज: काफी संघर्ष के बाद डॉक्टर कृष्ण मोहन रॉय की ऐसी पहचान बनी की बिहार, उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों से भारी संख्या में लोग इलाज के लिए पहुंचने लगे. लिहाजा आदिवासी युवक-युवतियों के लिए डॉक्टर के एम रॉय आइकन बन गए. नतीजा यह हुआ की आज आदिवासी समुदाय में 40 से 50 डॉक्टर हैं, जिसमें से हरनाटांड़ में 20 से 25 ने अपना निजी क्लीनिक खोल लिया है. यही वजह है कि यह इलाका अब मेडिकल हब के रूप में मशहूर हो गया है.
डॉ कृष्णमोहन रॉय बने प्रेरणा स्रोत: लेप्रोस्कोपी एंड लेजर सर्जन एमबीबीएस डॉक्टर बृजकिशोर काजी बताते हैं कि उनके प्रेरणा स्रोत यहां के प्रसिद्ध डॉक्टर कृष्णमोहन रॉय हैं. दशकों पूर्व जब इस अतिपिछड़े दुर्गम आदिवासी बहुल इलाके में कोई डॉक्टर या अस्पताल नहीं हुआ करता था और मरीजों को लाने ले जाने का एकमात्र साधन चारपाई था तब पूरे सेवा भाव से डॉक्टर रॉय हीं लोगों का इलाज किया करते थे.
"डॉक्टर कृष्णमोहन रॉय मरीजों के घर तक अपना क्लीनिक छोड़ कर चले जाते थे. धीरे-धीरे आसपास के गांव तक उनके बारे में लोगों को जानकारी हुई और फिर मरीजों की संख्या में वृद्धि हुई. साथ हीं युवाओं और अभिभावकों में भी जागरूकता आई. जिसके बाद अभी इस इलाके में 40 से 50 की संख्या में आदिवासी युवक युवतियां डॉक्टर हैं."-डॉ. बृजकिशोर काजी, लेप्रोस्कोपी एंड लेजर सर्जन
50 से 100 रुपये है फीस: पिछले कुछ सालों में हरनाटांड़ में निजी नर्सिंग होम का जाल बिछ गया है. अब तो लेजर तकनीक या अन्य अत्याधुनिक संसाधनों से लोगों का इलाज किया जा रहा है. साथ हीं सभी निजी अस्पतालों के डॉक्टर आज भी महज 50 से 100 रुपये के फीस में मरीजों को देखते हैं. इस परंपरा की शुरुवात भी सभी के आइकन और गुरु के एम रॉय की ही देन है.
हरनाटांड़ बना मेडिकल हब: उप स्वास्थ्य केंद्र हरनाटांड़ के चिकित्सा पदाधिकारी डॉक्टर राजेश कुमार नीरज बताते हैं कि जब मेरा पदस्थापन यहां हुआ तो मुझे भी डर लगता था. हालांकि यहां आने के बाद स्थितियां पहले से बेहतर लगी. यह ऐसा इलाका है जहां प्रत्येक आदिवासी गांव में एक से दो डॉक्टर मिल जाएंगे. हरनाटांड़ आज मेडिकल हब बना हुआ है.
"यहां बिहार के अलावा यूपी से लोग इलाज कराने पहुंचते हैं क्योंकि इस इलाके में 20 से 25 निजी क्लीनिक हैं, जो आदिवासी डॉक्टरों द्वारा संचालित हो रहे हैं. 90 से 98 फीसदी चिकित्सक डिग्रीधारी हैं, फिर भी स्वास्थ्य विभाग के स्तर से लगातार इन अस्पतालों की मॉनिटरिंग होती है."-डॉ राजेश कुमार नीरज, चिकित्सा पदाधिकारी, उप स्वास्थ्य केंद्र हरनाटांड़
जमीन का रेट छू रहा है आसमान: वहीं स्थानीय लोगों का कहना है कि एक समय था जब लोग इस इलाके में बसना नहीं चाहते थे. आज मेडिकल हब बनने के बाद हर कोई यहां बसना चाहता है और व्यवसाय करना चाहता है. यहां जमीन का रेट आसमान छू रहा है और जिला हेडक्वार्टर के जमीनों से ज्यादा महंगा है. महज 100 मीटर के दायरे में यहां हर विभाग के डॉक्टर मिल जाएंगे जो काफी कम खर्च में बेहतर इलाज करते हैं इसमें 8 से 9 तो सर्जन डॉक्टर हैं.
स्थानांतरण के बाद बदली कहानी: इस इलाके की तस्वीर बदलने की वजह बने डॉक्टर कृष्णमोहन राय बताते हैं कि कुछ मजबूरियों की वजह से हरनाटांड़ में अपना क्लीनिक खोला था. दरभंगा मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस और राम मनोहर लोहिया अस्पताल दिल्ली से रेजिडेंट सर्जरी एवं आर्थोपेडिक्स करने के बाद 1984 में उन्हें नौकरी मिल गई थी. उप स्वास्थ्य केंद्र लौकरिया (हरनाटांड़) में पदस्थपना हुई, इसी बीच 1992 में उनका स्थानांतरण सीतामढ़ी कर दिया गया. जिसके बाद पारिवारिक कारणों और कुछ मजबूरियों की वजह से मैंने नौकरी छोड़ दी और पिताजी के सलाह पर हरनाटांड़ में निजी क्लीनिक खोला.
"मैं जब यहां आया तो सिर्फ बुधवार को हाट बाजार लगता था उसी दिन मैं अपने क्लीनिक पर बैठता था. धीरे-धीरे चार वर्षों के संघर्ष के बाद स्थितियां सुधरी और फिर मरीजों का विश्वास जमना शुरू हुआ, नतीजतन उनकी संख्या में बढ़ोतरी हुई. उस समय थारूओं को आरक्षण नहीं मिला था लेकिन वर्ष 2003 में आरक्षण मिलने के बाद कई युवक-युवतियों ने मेडिकल के क्षेत्र में कामयाबी हासिल की और फिर यहां अपना-अपना निजी नर्सिंग होम खोलना शुरू किया. आज यह इलाका अस्पतालों का गांव बन गया है और हर तरह के इलाज की सुविधा यहां मौजूद है." -डॉ. कृष्णमोहन रॉय, एमबीबीएस सर्जन आर्थोपेडिक्स
हरनाटांड़ शहर से कम नहीं: बता दें कि हरनाटांड़ आज किसी शहर से कम नहीं है. मेडिकल हब होने के कारण कई लोगों का यहां रोजी रोजगार चलता है. होटल के अलावा बाइक और ट्रैक्टर के कंपनियों की एजेंसियां भी खुल गईं हैं. कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं की पूर्व में नक्सल प्रभावित यह इलाका आज आदिवासियों की आर्थिक राजधानी है जहां तकरीबन डेढ़ लाख से ज्यादा की आबादी आश्रित है.