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100 करोड़ के महायज्ञ का समापन, बेड़ा सूरत राम ने 9वीं बार लांघी 'मौत की घाटी' - BHUNDA MAHAYAGYA SHIMLA

स्पैल वैली आयोजित भुंडा महायज्ञ में कल बेड़ा की रस्म निभाई गई. बेड़ा सूरत राम ने इस रस्म को 9वीं बार निभाया

भुंडा महायज्ञ का हुआ समापन्न
भुंडा महायज्ञ का हुआ समापन्न (ETV BHARAT)
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By ETV Bharat Himachal Pradesh Team

Published : Jan 5, 2025, 6:56 PM IST

Updated : Jan 5, 2025, 7:39 PM IST

शिमला: जिला में रोहड़ू उपमंडल में स्थित स्पैल वैली के दलगांव में देवता बकरालू जी महाराज के मंदिर में भुंडा महायज्ञ का समापन हो गया. भुंडा साहस, श्रद्धा और परंपरा का प्रतीक है. इस अनुष्ठान के दौरान स्थानीय देवताओं की पूजा-अर्चना की गई और पूरे क्षेत्र में धार्मिक माहौल बना रहा. बीते कल भुंडा महायज्ञ में बेड़ा सूरत राम ने बेड़े की रस्म निभाई. इस रस्म को देखने के लिए प्रदेशभर से लाखों लोग दलगांव पहुंचे थे. बेड़ा की रस्म देखने पहुंचे लोगों में काफी उत्साह नजर आया. बेड़ा सूरत राम ने मुंजी नाम की घास से बनी विशेष रस्सी की सहायता से झूलते हुए एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक सफलतापूर्वक पहुंचे.

भुंडा में उपस्थित जनसमूह ने जोरदार उत्साह और तालियों से बेड़ा सूरत राम का का अभिनंदन किया. सूरत राम द्वारा रस्म को सफलतापूर्वक निभाए जाने पर उपस्थित जनसमूह ने जोरदार उत्साह और तालियों से उनका अभिनंदन किया.इस मौके पर स्थानीय संगीत, नृत्य और पारंपरिक उत्सव ने माहौल को और भी रोमांचक बना दिया. भुंडा महायज्ञ ने न केवल स्थानीय जनता को एकजुट किया, बल्कि यह पर्व हिमाचल की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित और प्रसारित करने का एक अनोखा माध्यम भी बना. इस महायज्ञ का बजट 100 करोड़ रुपये था और एक से पांच लाख लोगों ने इस महायज्ञ में हिस्सा लिया.

भुंडा में हुई बेड़ा की रस्म (ETV BHARAT)

बकरालू जी महाराज के मंदिर में 39 साल बाद हुआ आयोजन

बकरालू जी महाराज के मंदिर में लगभग 39 साल बाद भुंडा महायज्ञ का आयोजन किया गया. इससे पहले 1985 में भुंडा महायज्ञ का आयोजन किया गया था. भुंडा को देवभूमि हिमाचल की हिमाचल की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा माना जाता है. ये न केवल शारीरिक साहस का प्रदर्शन है, बल्कि धार्मिक और आध्यात्मिक समर्पण का भी प्रतीक है.

बकरालू जी महाराज का रथ और मंदिर
बकरालू जी महाराज का रथ और मंदिर (ETV BHARAT)

हिमाचल में अलग अलग स्थानों पर मनाया जाता है भुंडा

हिमाचल में भुंडा अलग-अलग स्थानों पर मनाया जाता है. निरमंड, रामपुर, शिमला, सिरमौर के क्षेत्रों सहित हिमाचल के कई स्थानों पर अलग अलग समय में देव प्रांगण में भुंडा का आयोजन होता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार हर 12 साल बाद भुंडा अलग अलग क्षेत्रों में लोग भुंडा का आयोजन करते हैं, लेकिन अब समय की व्यस्तता और खर्च अधिक होने के कारण इसका आयोजन 12 साल बाद नहीं हो पाता है.

भुडा में बेड़ा की रस्म निभाते बेड़ा सूरत राम
भुडा में बेड़ा की रस्म निभाते बेड़ा सूरत राम (ETV BHARAT)

क्या है भुंडा महायज्ञ

हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर और भुंडा पर शोध कर चुके डॉ. भवानी कहते हैं कि, 'परशुराम ने शांद, भुंडा, बधपुर, भढ़ोदी चार यज्ञ शुरू करवाए थे. भुंडा भी इन्हीं में से एक है. पश्चिमी हिमालय में भंडासुर राक्षस का आतंक बढ़ गया था. इसके बध के लिए शक्ति यज्ञ रचाया गया था. इसे ही भुंडा यज्ञ कहा जाता है. इसकी उत्पति ब्रह्मांड पुराण से मानी जाती है. वर्तमान में ये यज्ञ एकता और भाईचारे का प्रतीक है. इसका संबंध खुशहाली और समृद्धि से है.'

परशुराम से जुड़ा है इतिहास

वहीं, दलगांव के स्थानीय निवासी रिटायर्ड कर्नल और सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के ओएसडी कुलदीप सिंह बाशंष्टु ने बताया कि, 'परशुराम ने इस क्षेत्र में भ्रमण किया और कई तरह की जातियों और लोगों को बसाया है, लेकिन यहां कुछ राक्षस प्रवृतियां भी थीं. इसके कारण लोग तरक्की नहीं कर पा रहे थे. अत: इन राक्षसी शक्तियों के खात्में के लिए भगवान परशुराम ने भुंडा यज्ञ शुरू किया था. यजुर्वेद में इसका वर्णन नरमेज्ञ यज्ञ के रूप में मिलता है. भुंडा यज्ञ का आयोजन हर 12 साल में होता हैं. इस यज्ञ में कई देवी, देवताओं की पूजा होती है. इस यज्ञ के आयोजन से नाकारात्मक शक्तियों का विनाश, लोगों का उत्थान होता है. इससे क्षेत्र में खुशहाली आती है.'

बकरालू जी महाराज में हुआ भुंडा महायज्ञ का आयोजन
बकरालू जी महाराज में हुआ भुंडा महायज्ञ का आयोजन (ETV BHARAT)

बेड़ा की रस्म होती है खास

भुंडा महायज्ञ में सबसे महत्वपूर्ण रस्म बेड़ा की होती है. इसमें बेड़ा (बेड़ा जाति का व्यक्ति) पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के बीच बंधी रस्सी से खाई (घाटी) को पार करता है. बेड़ा सूरत राम ने राम (65 साल) शनिवार को नौवीं बार बेड़ा बनकर रस्सी के सहारे मौत की घाटी को पार किया. इससे पहले हिमाचल में अलग अलग स्थानों पर होने वाले भुंडा महायज्ञों में सूरत राम अब तक आठ बार बेड़ा की भूमिका निभा चुके थे. बेड़ा की रस्म के दौरान बेड़ा रस्सी के जरिए मौत की घाटी को लांघते हैं. ये रस्सी दिव्य होती है और इसे मूंज कहा जाता है. ये विशेष प्रकार के नर्म घास की बनी होती है. इसे खाई के दो सिरों के बीच बांधा जाता है. भुंडा महायज्ञ की रस्सी को बेड़ा खुद तैयार करते हैं.

भुंडा महोत्सव
भुंडा महोत्सव (ETV BHARAT)

कौन होता है बेड़ा

हिमाचल विश्विद्यालय में हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर भवानी सिंह ने कहा कि, 'बेड़ा पतंग गंधर्व समुदाय की अप्सरा प्रमद्वारा के पुत्र हैं, लेकिन भृगु ऋषि से इन्हें श्राप मिला था. श्राप मिलने के बाद ये सर्प योनि में चले गए थे. सर्प योनि में जाने में उन्होने लोगों को सताना शुरू कर दिया. परशुराम जी ने इनका बध किय था, लेकिन परशुराम जी से इन्होंने एक वचन लिया था कि जब कभी भी शक्ति यज्ञ ( भुंडा) का आयोजन होगा तो उनके कुल की पूजा की जाएगी. सर्प आकार के रस्से पर बेड़ा घाटी को पार करेगे. तब से लेकर अब तक भुंडा में बेडा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है.'

पौराणिक और वैदिक है भुंडा महायज्ञ

ये महायज्ञ पौराणिक और वैदिक है. भुंडा महायज्ञ की परम्परा कहां से और कब आरम्भ हुई यह तथ्य बहुत ही रोचक है. डॉ. भवानी के मुताबिक, ' इस महायज्ञ की परम्परा का आरम्भ मंडी जिले में स्थित करसोग में काव नाम स्थान से शुरु हुआ था. सबसे पहले भूंडा महायज्ञ यहीं मनाया गया था, जिसके अवशेष आज भी कामाक्षा माता मन्दिर, काव में उपलब्ध हैं. काव के बाद ममेल, जिला मण्डी, निरथ, दत्तनगर, जिला शिमला में भुंडा महायज्ञ को मनाया गया था. इसके पश्चात जिला कुल्लू के निरमंड में इस महायज्ञ को मनाया गया.'

ये भी पढ़ें: हिमाचल के 100 करोड़ वाले महायज्ञ की कहानी, कैसे इस 'कुंभ' का नाम पड़ा भुंडा, कौन हैं पहाड़ के परशुराम

ये भी पढ़ें: एक समय भोजन और तपस्वी का जीवन, ढाई महीने में तैयार हुई भुंडा महायज्ञ की रस्सी

शिमला: जिला में रोहड़ू उपमंडल में स्थित स्पैल वैली के दलगांव में देवता बकरालू जी महाराज के मंदिर में भुंडा महायज्ञ का समापन हो गया. भुंडा साहस, श्रद्धा और परंपरा का प्रतीक है. इस अनुष्ठान के दौरान स्थानीय देवताओं की पूजा-अर्चना की गई और पूरे क्षेत्र में धार्मिक माहौल बना रहा. बीते कल भुंडा महायज्ञ में बेड़ा सूरत राम ने बेड़े की रस्म निभाई. इस रस्म को देखने के लिए प्रदेशभर से लाखों लोग दलगांव पहुंचे थे. बेड़ा की रस्म देखने पहुंचे लोगों में काफी उत्साह नजर आया. बेड़ा सूरत राम ने मुंजी नाम की घास से बनी विशेष रस्सी की सहायता से झूलते हुए एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी तक सफलतापूर्वक पहुंचे.

भुंडा में उपस्थित जनसमूह ने जोरदार उत्साह और तालियों से बेड़ा सूरत राम का का अभिनंदन किया. सूरत राम द्वारा रस्म को सफलतापूर्वक निभाए जाने पर उपस्थित जनसमूह ने जोरदार उत्साह और तालियों से उनका अभिनंदन किया.इस मौके पर स्थानीय संगीत, नृत्य और पारंपरिक उत्सव ने माहौल को और भी रोमांचक बना दिया. भुंडा महायज्ञ ने न केवल स्थानीय जनता को एकजुट किया, बल्कि यह पर्व हिमाचल की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित और प्रसारित करने का एक अनोखा माध्यम भी बना. इस महायज्ञ का बजट 100 करोड़ रुपये था और एक से पांच लाख लोगों ने इस महायज्ञ में हिस्सा लिया.

भुंडा में हुई बेड़ा की रस्म (ETV BHARAT)

बकरालू जी महाराज के मंदिर में 39 साल बाद हुआ आयोजन

बकरालू जी महाराज के मंदिर में लगभग 39 साल बाद भुंडा महायज्ञ का आयोजन किया गया. इससे पहले 1985 में भुंडा महायज्ञ का आयोजन किया गया था. भुंडा को देवभूमि हिमाचल की हिमाचल की संस्कृति का अभिन्न हिस्सा माना जाता है. ये न केवल शारीरिक साहस का प्रदर्शन है, बल्कि धार्मिक और आध्यात्मिक समर्पण का भी प्रतीक है.

बकरालू जी महाराज का रथ और मंदिर
बकरालू जी महाराज का रथ और मंदिर (ETV BHARAT)

हिमाचल में अलग अलग स्थानों पर मनाया जाता है भुंडा

हिमाचल में भुंडा अलग-अलग स्थानों पर मनाया जाता है. निरमंड, रामपुर, शिमला, सिरमौर के क्षेत्रों सहित हिमाचल के कई स्थानों पर अलग अलग समय में देव प्रांगण में भुंडा का आयोजन होता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार हर 12 साल बाद भुंडा अलग अलग क्षेत्रों में लोग भुंडा का आयोजन करते हैं, लेकिन अब समय की व्यस्तता और खर्च अधिक होने के कारण इसका आयोजन 12 साल बाद नहीं हो पाता है.

भुडा में बेड़ा की रस्म निभाते बेड़ा सूरत राम
भुडा में बेड़ा की रस्म निभाते बेड़ा सूरत राम (ETV BHARAT)

क्या है भुंडा महायज्ञ

हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर और भुंडा पर शोध कर चुके डॉ. भवानी कहते हैं कि, 'परशुराम ने शांद, भुंडा, बधपुर, भढ़ोदी चार यज्ञ शुरू करवाए थे. भुंडा भी इन्हीं में से एक है. पश्चिमी हिमालय में भंडासुर राक्षस का आतंक बढ़ गया था. इसके बध के लिए शक्ति यज्ञ रचाया गया था. इसे ही भुंडा यज्ञ कहा जाता है. इसकी उत्पति ब्रह्मांड पुराण से मानी जाती है. वर्तमान में ये यज्ञ एकता और भाईचारे का प्रतीक है. इसका संबंध खुशहाली और समृद्धि से है.'

परशुराम से जुड़ा है इतिहास

वहीं, दलगांव के स्थानीय निवासी रिटायर्ड कर्नल और सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के ओएसडी कुलदीप सिंह बाशंष्टु ने बताया कि, 'परशुराम ने इस क्षेत्र में भ्रमण किया और कई तरह की जातियों और लोगों को बसाया है, लेकिन यहां कुछ राक्षस प्रवृतियां भी थीं. इसके कारण लोग तरक्की नहीं कर पा रहे थे. अत: इन राक्षसी शक्तियों के खात्में के लिए भगवान परशुराम ने भुंडा यज्ञ शुरू किया था. यजुर्वेद में इसका वर्णन नरमेज्ञ यज्ञ के रूप में मिलता है. भुंडा यज्ञ का आयोजन हर 12 साल में होता हैं. इस यज्ञ में कई देवी, देवताओं की पूजा होती है. इस यज्ञ के आयोजन से नाकारात्मक शक्तियों का विनाश, लोगों का उत्थान होता है. इससे क्षेत्र में खुशहाली आती है.'

बकरालू जी महाराज में हुआ भुंडा महायज्ञ का आयोजन
बकरालू जी महाराज में हुआ भुंडा महायज्ञ का आयोजन (ETV BHARAT)

बेड़ा की रस्म होती है खास

भुंडा महायज्ञ में सबसे महत्वपूर्ण रस्म बेड़ा की होती है. इसमें बेड़ा (बेड़ा जाति का व्यक्ति) पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के बीच बंधी रस्सी से खाई (घाटी) को पार करता है. बेड़ा सूरत राम ने राम (65 साल) शनिवार को नौवीं बार बेड़ा बनकर रस्सी के सहारे मौत की घाटी को पार किया. इससे पहले हिमाचल में अलग अलग स्थानों पर होने वाले भुंडा महायज्ञों में सूरत राम अब तक आठ बार बेड़ा की भूमिका निभा चुके थे. बेड़ा की रस्म के दौरान बेड़ा रस्सी के जरिए मौत की घाटी को लांघते हैं. ये रस्सी दिव्य होती है और इसे मूंज कहा जाता है. ये विशेष प्रकार के नर्म घास की बनी होती है. इसे खाई के दो सिरों के बीच बांधा जाता है. भुंडा महायज्ञ की रस्सी को बेड़ा खुद तैयार करते हैं.

भुंडा महोत्सव
भुंडा महोत्सव (ETV BHARAT)

कौन होता है बेड़ा

हिमाचल विश्विद्यालय में हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर भवानी सिंह ने कहा कि, 'बेड़ा पतंग गंधर्व समुदाय की अप्सरा प्रमद्वारा के पुत्र हैं, लेकिन भृगु ऋषि से इन्हें श्राप मिला था. श्राप मिलने के बाद ये सर्प योनि में चले गए थे. सर्प योनि में जाने में उन्होने लोगों को सताना शुरू कर दिया. परशुराम जी ने इनका बध किय था, लेकिन परशुराम जी से इन्होंने एक वचन लिया था कि जब कभी भी शक्ति यज्ञ ( भुंडा) का आयोजन होगा तो उनके कुल की पूजा की जाएगी. सर्प आकार के रस्से पर बेड़ा घाटी को पार करेगे. तब से लेकर अब तक भुंडा में बेडा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है.'

पौराणिक और वैदिक है भुंडा महायज्ञ

ये महायज्ञ पौराणिक और वैदिक है. भुंडा महायज्ञ की परम्परा कहां से और कब आरम्भ हुई यह तथ्य बहुत ही रोचक है. डॉ. भवानी के मुताबिक, ' इस महायज्ञ की परम्परा का आरम्भ मंडी जिले में स्थित करसोग में काव नाम स्थान से शुरु हुआ था. सबसे पहले भूंडा महायज्ञ यहीं मनाया गया था, जिसके अवशेष आज भी कामाक्षा माता मन्दिर, काव में उपलब्ध हैं. काव के बाद ममेल, जिला मण्डी, निरथ, दत्तनगर, जिला शिमला में भुंडा महायज्ञ को मनाया गया था. इसके पश्चात जिला कुल्लू के निरमंड में इस महायज्ञ को मनाया गया.'

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ये भी पढ़ें: एक समय भोजन और तपस्वी का जीवन, ढाई महीने में तैयार हुई भुंडा महायज्ञ की रस्सी

Last Updated : Jan 5, 2025, 7:39 PM IST
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