शिमला: हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में एक धार्मिक आयोजन हो रहा है. जिसे भुंडा महायज्ञ कहते हैं साथ ही शिमला जिले के रोहड़ू में हो रहे इस कार्यक्रम को 'रोहड़ू का कुंभ' भी कहा जा रहा है. दरअसल चार दशक बाद हो रहे इस महा आयोजन की सबसे बड़ी रस्म शनिवार 4 जनवरी को निभाई जाएगी, जिसमें एक शख्स रस्सी के सहारे कई मीटर गहरी खाई को लांघेंगा. आयोजन में 1 लाख से 5 लाख के बीच श्रद्धालुओं के आगमन का अनुमान है. इलाके के 1500 के करीब परिवार इन लाखों श्रद्धालुओं की मेजबानी करेंगे. रोहड़ू के इस कुंभ को भुंडा के नाम से जाना जाता है. ईटीवी भारत इस लेख में प्राचीन भुंडा महायज्ञ के बारे में छोटी सी छोटी जानकारी आपको दे रहा है.
क्या है भुंडा महायज्ञ
भुंडा महायज्ञ में आस्था का सैलाब उमड़ता है. शिमला में रोहड़ू की स्पैल वैली में इस भुंडा महायज्ञ की पिछले तीन सालों से इसकी तैयारी चल रही थी. 2 जनवरी से भुंडा महायज्ञ की शुरुआत हो चुकी है. भुंडा यज्ञ से हिमाचल के लोगों की धार्मिक आस्था जुड़ी है. ये यज्ञ हिमाचल वासियों की धार्मिक आस्था का प्रतिनिधित्व करता है. इस बार एप्पल वैली के नाम से मशहूर स्पैल वैली में देवता महाराज बकरालू के निवास स्थान दलगांव में ये भुंडा महायज्ञ हो रहा है. इससे पहले साल 1985 में देवता बकरालू महाराज के मंदिर में इसका आयोजन हुआ था. अब रोहड़ू और रामपुर क्षेत्र के करीब पांच लाख लोग लगभग चार दशकों के बाद इस महायज्ञ के साक्षी बनेंगे.
हिमाचल प्रदेश विश्विद्यालय के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर और भुंडा पर शोध कर चुके डॉ. भवानी कहते हैं कि, 'परशुराम ने शांद, भुंडा, बधपुर, भढ़ोदी चार यज्ञ शुरू करवाए थे. भुंडा भी इन्हीं में से एक है. पश्चिमी हिमालय में भंडासुर राक्षस का आतंक बढ़ गया था. इसके बध के लिए शक्ति यज्ञ रचाया गया था. इसे ही भुंडा यज्ञ कहा जाता है. इसकी उत्पति ब्रह्मांड पुराण से मानी जाती है. वर्तमान में ये यज्ञ एकता और भाईचारे का प्रतीक है. इसका संबंध खुशहाली और समृद्धि से है.'
हिमाचल में भुंडा अलग-अलग स्थानों पर मनाया जाता है. निरमंड, रामपुर, शिमला, सिरमौर के क्षेत्रों सहित हिमाचल के कई स्थानों पर अलग अलग समय में देव प्रांगण में भुंडा का आयोजन होता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार हर 12 साल बाद भुंडा अलग अलग क्षेत्रों में लोग भुंडा का आयोजन करते हैं, लेकिन अब समय की व्यस्तता और खर्च अधिक होने के कारण इसका आयोजन 12 साल बाद नहीं हो पाता है. अब इसके आयोजन के लिए तीन-तीन दशक भी बीत जाते हैं. 2005 में देवता साहिब बौंद्रा महाराज के प्रांगण में भुंडा महायज्ञ हुआ था. बछूंछ में भी इसका आयोजन हुआ था.
परशुराम से जुड़ा है इतिहास
दलगांव के स्थानीय निवासी रिटायर्ड कर्नल और सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के ओएसडी कुलदीप सिंह बाशंष्टु ने बताया कि, 'परशुराम ने इस क्षेत्र में भ्रमण किया और कई तरह की जातियों और लोगों को बसाया है, लेकिन यहां कुछ राक्षस प्रवृतियां भी थीं. इसके कारण लोग तरक्की नहीं कर पा रहे थे. अत: इन राक्षसी शक्तियों के खात्में के लिए भगवान परशुराम ने भुंडा यज्ञ शुरू किया था. यजुर्वेद में इसका वर्णन नरमेज्ञ यज्ञ के रूप में मिलता है. भुंडा यज्ञ का आयोजन हर 12 साल में होता हैं. इस यज्ञ में कई देवी, देवताओं की पूजा होती है. इस यज्ञ के आयोजन से नाकारात्मक शक्तियों का विनाश, लोगों का उत्थान होता है. इससे क्षेत्र में खुशहाली आती है.'
एक महीने से बांटे जा रहे थे निमंत्रण
शिमला में रोहड़ू की स्पैल वैली में देवता बकरालू जी महाराज के निवास स्थान दलगांव में हो रहे भुंडा महायज्ञ में नौ गांवों दलगांव, ब्रेटली, खशकंडी, कुटाड़ा, बुठाड़ा, गांवना, खोडसू, करालश और भमनोली के ग्रामीण भाग ले रहे हैं. ग्रामीणों ने दूर-दूर के रिश्तेदारों को बीते एक महीने से निमंत्रण बांटने शुरू कर दिए थे. सभी मेहमान दलगांव में अपने रिश्तेदारों के पास पहुंच चुके हैं. इस महायज्ञ में तीन स्थानीय देवता और तीन परशुराम शामिल हुए हैं.
ये रहेगा भुंडा का कार्यक्रम
ओएसडी कर्नल (रि.) कुलदीप सिंह बाशंष्टु ने बताया कि, 'तीन स्थानीय देवताओं में बौंद्रा, महेश्वर, मोहरिश देवता शामिल हुए. वहीं, तीन परशुराम में परशुराम गुम्मा, परशुराम अंदरेयोठी व परशुराम खशकंडी शामिल हैं. इन तीनों को भगवान परशुराम का अवतार माना जाता है भुंडा में 2 जनवरी को संघेड़ा की रस्म निभाई गई. संघेड़ा में सभी देवता और लोग इकट्ठा होते हैं. वहीं, आज शिखा पूजन की रस्म निभाई गई. इस दौरान देवियों की पूजा की गई और पूरे गांव की परिक्रमा की गई, ताकि गांव बुरी शक्तियों से सुरक्षित रहे. 4 जनवरी को बेड़ा का आयोजन होगा और पांच जनवरी को देवताओं की विदाई का कार्यक्रम उछड़ पाछड़ रहेगा'
4 जनवरी को होगी बेड़ा की रस्म
भुंडा महायज्ञ में 4 जनवरी को बेड़ा की रस्म होगी. इसमें बेड़ा पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी के बीच बंधी रस्सी से खाई (घाटी) को पार करता है. सूरत राम (65 साल) नौवीं बार बेड़ा बनकर रस्सी के सहारे मौत की घाटी को पार करेंगे. 1985 में बकरालू महाराज के मंदिर में इससे पहले भुंडा यज्ञ हुआ था उस दौरान भी सूरत राम 21 साल के थे और उन्होंने ही उस दौरान भी बेड़े की भूमिका निभाई थी. हिमाचल में अलग अलग स्थानों पर होने वाले भुंडा महायज्ञों में सूरत राम अब तक आठ बार बेड़ा की भूमिका निभा चुके हैं.
कठोर नियमों का करना होता है पालन
बेड़ा सूरत राम ने कहा कि, 'वो देवता के मंदिर में पूरे नियम के साथ ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे. आस्था की खाई को पार करने के लिए विशेष घास से खुद रस्सा तैयार किया है. इसे तैयार करने में अपने चार सहयोगियों के साथ करीब ढाई महीने का समय लगा. भुंडा महायज्ञ के लिए बेड़ा को तीन महीने देवता के मंदिर में ही रहना पड़ता है. बेड़ा के लिए एक समय का भोजन मंदिर में ही बनता है. अनुष्ठान के समापन होने तक न तो बाल और न ही नाखून काटे जाते हैं. सुबह चार बजे भोजन करने के बाद फिर अगले दिन सुबह चार बजे भोजन किया जाता है. यानी 24 घंटे में केवल एक बार भोजन किया जाता है. इस दौरान अधिकतम मौन व्रत का पालन किया जाता है.इसके अलावा अन्य प्रतिबंध भी रहते हैं.'
खास प्रकार की घास से बनती है रस्सी
बेड़ा सूरत राम ने कहा कि, 'भुंडा महायज्ञ के दौरान बेड़ा रस्सी के जरिए मौत की घाटी को लांघते हैं. ये रस्सी दिव्य होती है और इसे मूंज कहा जाता है. ये विशेष प्रकार के नर्म घास की बनी होती है. इसे खाई के दो सिरों के बीच बांधा जाता है. भुंडा महायज्ञ की रस्सी को बेड़ा खुद तैयार करते हैं.'
कौन है बेड़ा
हिमाचल विश्विद्यालय में हिंदी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर भवानी सिंह ने कहा कि, 'बेड़ा पतंग गंधर्व समुदाय की अप्सरा प्रमद्वारा के पुत्र हैं, लेकिन भृगु ऋषि से इन्हें श्राप मिला था. श्राप मिलने के बाद ये सर्प योनि में चले गए थे. सर्प योनि में जाने में उन्होने लोगों को सताना शुरू कर दिया. परशुराम जी ने इनका बध किय था, लेकिन परशुराम जी से इन्होंने एक वचन लिया था कि जब कभी भी शक्ति यज्ञ ( भुंडा) का आयोजन होगा तो उनके कुल की पूजा की जाएगी. सर्प आकार के रस्से पर बेड़ा घाटी को पार करेगे. तब से लेकर अब तक भुंडा में बेडा की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. '
पूजनीय समझा जाता है बेड़ा
कर्नल कुलदीप सिंह बाशंष्टु ने बताया कि, 'बेड़ा परिवार के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी बेड़ा की भूमिका निभाते आ रहे हैं. ये वेदा जाति के लोग होते हैं. पुराने समय में बेड़ा की रस्म से पहले बेड़ा की पत्नी उस स्थान पर विध्वा बनकर बैठी होती थी जहां पर रस्सी से फिसलकर बेड़ा को पहुंचना होता था. रस्सी पर बेड़ा को कफन बांध कर तैयार किया जाता था. अगर वो रस्सी से घाटी को पार कर गया तब भी वो पूजनीय समझा जाता था और और बीच में ही अगर कोई हादसा होने के कारण उसकी जान चली जाती थी तो वी भी उसे पूजनीय ही माना जाता था.'
अंग्रेजों ने लगाया था प्रतिबंध
19वीं सदी में अंग्रेजी सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था. उनका मानना था कि इससे इंसानी जान को खतरा होता है, लेकिन आजादी के बाद ये प्रथा फिर शुरू हुई, लेकिन अब बेड़ा की सुरक्षा के लिए पुख्ता इंतजाम किए जाते हैं. रस्सी के नीचे नेट(जाली) लगाई जाती है, ताकि किसी तरह का कोई नुकसान न हो.
100 करोड़ का है बजट
दलगांव में भुंडा में सैकड़ों मेहमान पहुंचे हैं. इसका बजट 100 करोड़ है. ग्रामीण ने घर में मेहमानों के लिए नए पक्के घर, शौचालयों आदि का निर्माण करवाया है. सभी ग्रामीणों के रिश्तेदार पहुंच चुके हैं. गांव के लोग मेहमाननवाजी में लगे हैं. जो लोग भुंडा देखने के लिए जाएंगे जिनका गांव में कोई रिश्तेदार नहीं है, उनके खाने पीने की व्यवस्था बकरालू महाराज मंदिर के लंगर में होगी.
खुद को सौभाग्यशाली समझते हैं लोग
देव खशकंडी गांव के रहने वाले देव शर्मा बताते हैं कि, '1985 में मेरी उम्र महज दो साल की थी. उस दौरान भुंडा महायज्ञ का आयोजन यहां हुआ था. आज मेरी उम्र 41 साल हो गई है और मुझे भुंडा यज्ञ देखने का मौका मिल रहा है और इसके लिए मैं खुद को सौभाग्यशाली समझता हूं. मेरा ये मनुष्य जन्म सफल हो गया, अगली बार न जाने कब इसका आयोजन हो.'
यहां से हुई थी भुंडा की शुरुआत
भुंडा को मनाने की परंपरा कुल्लू के निरमंड से हुई थी, लेकिन इसके बाद इसका प्रचलन शिमला में भी शुरू हुआ है. डॉ. भवानी के मुताबिक, 'भुंडा महायज्ञ की परम्परा कहां से और कब आरम्भ हुई यह तथ्य बहुत ही रोचक है. ये महायज्ञ पौराणिक और वैदिक है. इस महायज्ञ की परम्परा का आरम्भ मंडी जिले में स्थित करसोग में काव नाम स्थान से शुरु हुआ था. सबसे पहले भूंडा महायज्ञ यहीं मनाया गया था, जिसके अवशेष आज भी कामाक्षा माता मन्दिर, काव में उपलब्ध हैं. काव के बाद ममेल, जिला मण्डी, निरथ, दत्तनगर, जिला शिमला में भुंडा महायज्ञ को मनाया गया था. इसके पश्चात जिला कुल्लू के निरमंड में इस महायज्ञ को मनाया गया.'
शिमला जिले में यह परम्परा कैसे पहुंची, यह भी एक रोचक तथ्य है. वृद्धजनों के अनुसार जब निरमंड में महायज्ञ हुआ था तो उस समय वहां पर भुंडा में प्रयोग किए जाने वाला रस्सा टूट गया था, इसका टूटा हुआ टुकड़ा मुराल पर्वत को पार करते हुए शिमला जिले के गांव नड़ला में बिजली की तरह गिरा. स्थानीय लोग इससे भयभीत हुए और उन्होंने अपने कुल देवता की आराधना की. नड़ला के देवता ने लोगों को सलाह दी कि ये रस्सा उनके गुरु परशुराम का है. अत: इसकी पूजा की जाए तब से लेकर शिमला में भुंडा का आयोजन होने लगा.