गिरिडीह:मकर संक्रांति का पर्व देश के कई हिस्सों में मनाया जाता है. तिल, गुड़, चूड़ा, दही और नया चावल के पकवान के अलावा इस पर्व में चावल से बनने वाले मूढ़ी (मुरमुरे) का भी अपना महत्व है. झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में मूढ़ी से लडडू बनता है. इस पर्व के अलावा मूढ़ी का उपयोग सालों भर किया जाता है.
झारखंड के कई जिलों और पश्चिम बंगाल में तो सुबह का नास्ता ही मूढ़ी है. इसी मूढ़ी को परंपरागत तरीके से बनाने का काम गिरिडीह जिले के सदर प्रखंड के मटरुखा में किया जाता है. मटरुखा पंचायत के मटरुखा और महतोडीह में मूढ़ी बनाने का काम दशकों से चलता आ रहा है. इन दोनों गांव की सैकड़ों महिलाएं अपने परिवार के साथ मूढ़ी बनाने और इसे बेचने का काम करती रही हैं.
शादी-विवाह से लेकर बच्चों को पढ़ाया भी
इस काम में वृद्ध महिलाओं के साथ-साथ युवतियां भी जुड़ी रही हैं. वर्तमान में सौ परिवार के रोजगार का मुख्य साधन मूढ़ी ही है. वैसे कुछ वर्ष पहले तक इस व्यवसाय से इन दोनों गांव की लगभग तीन सौ से अधिक परिवार जुड़े थे. इस कार्य से जुड़ी वृद्ध साबिया देवी, सगोरी देवी के अलावा सगोरी की बेटी खोमा देवी, कौशल्या देवी, प्रशांत मंडल, संजय मंडल बताते हैं कि पहले एक-एक परिवार 24-25 किलो से लेकर 50 किलो चावल का मूढ़ी बनाकर बेचते थे. लेकिन जलावन, चावल के महंगा होने और मशीन से मूढ़ी बनाने के कारण उनके व्यवसाय पर असर पड़ा है. अभी एक सप्ताह में आठ किलो मूढ़ी बनाते हैं और बेचते हैं. वे बताते हैं कि इस काम से उनलोगों ने बच्चों को पढ़ाया, शादी की, रोजगार से लेकर नौकरी के लिए तैयार किया. लेकिन अब मुश्किलें आ रही हैं.
लकड़ी की आंच में तैयार होता है मूढ़ी