रांचीः साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है.इसके जरिए न केवल भूत, बल्कि वर्तमान को भी जाना जा सकता है.मगर विडंबना यह है कि आज भी जनजातियों के बारे में कई चीजें ऐसी हैं जो लेखनी में उतर नहीं पाई हैं या यूं कहें कि जो कुछ प्रकाश में आई भी हैं वह अन्य भाषा में लिखी गई पुस्तकों की तरह पाठक तक नहीं पहुंच पाई हैं.जनजातीय भाषा में लिखी गई पुस्तकें आज भी काफी कम हैं और हालत यह है कि कुछ की लिपी लुप्त हो चुकी है तो कुछ आज भी पहेली बनी हुई है.इन सबके बीच आदिवासी महोत्सव के दौरान पहली बार पुस्तक मेला का आयोजन राज्य सरकार के द्वारा किया गया.
40 रुपये से 15 हजार तक की किताबें उपलब्ध
जनजातियों के सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर लिखी गई एक से बढ़कर एक किताबें इस पुस्तक मेला में लोगों के बीच आकर्षण का केंद्र बनी हुई हैं. अन्य भाषाओं के साथ ट्राइबल लैंग्वेज में लिखी गई किताबें लोगों की पसंद बन रही हैं.
पुस्तक प्रेमियों में दिखा उत्साह
इस संबंध में पुस्तक मेला में आई अपराजिता मुंडा कहती हैं कि इस तरह के आयोजन से जनजातीय सभ्यता-संस्कृति को जाना जा सकता है. पुस्तक मेला का आयोजन कर सराहनीय काम किया गया है. वहीं दुमका से आए रसिक बास्की कहते हैं आज के युग में अपने बारे में भी यदि हम नहीं जान पाएं तो इससे ज्यादा दुखद बात क्या होगी. पुस्तक के जरिए जनजातियों की सभ्यता और संस्कृति को समझा जा सकता है और इसमें और निखार आने की संभावना है.
पुस्तक मेला में लगाए गए हैं पांच स्टॉल