पटना: बिहार में एनडीए की सरकार बनने के बाद पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने 15 दिनों तक लगातार जन विश्वास यात्रा किया. उसके बाद आज रविवार को गांधी मैदान पर जन विश्वास रैली का आयोजन किया गया. लालू प्रसाद यादव की रैलियों से तेजस्वी की रैली कई मायनों में अलग रही. राजनीतिक विश्लेषक भी कहते हैं लालू की रैलियों में जमकर हुड़दंग होता था, लेकिन तेजस्वी की रैली में उस तरह का हुड़दंग देखने को नहीं मिला. रैली के नाम में भी आक्रामकता नहीं थी.
ऐसी होती थी लालू की रैलीः एक जमाना था जब राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव बैलगाड़ी पर सवार होकर महंगाई के खिलाफ रैली निकालते थे. तो कभी 'लाठी उठावन-तेल पिलावन महारैला निकालकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्खियां बटोरते थे. लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक सफर पर नजर डालें तो वे ऐसा काम करते थे जो आम जनता के दिमाग पर सीधे असर करता था. यही वजह था कि लालू जनमानस से आसानी से जुड़े थे और उनका जनाधार था. लालू यादव ने पटना के ऐतिहासिक मैदान में जो प्रमुख रैलियां की उसमें कुछ सरकार में रहते हुए की और कुछ सरकार जाने के बाद शक्ति दिखाने के लिए.
1. गरीब रैली (1995): लालू प्रसाद यादव ने यह रैली उस वक्त की थी जब वे जनता परिवार से अलग अपनी पहचान बनाने में जुटे थे. रैली के नाम में गरीब शब्द लाने के पीछे का मकसद था कि वे बिहार के लोगों को समझा सकें कि जनता परिवार के बाकी नेताओं के बीच वे इकलौते ऐसे नेता हैं जो गरीबों के हितैषी हैं.
2. गरीब रैला (1996): इस दौर में केंद्र में बीजेपी सत्ता में आ गई थी, वह राम और मंदिर के नाम पर लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही थी. तभी लालू ने अपने कोर वोटरों को एकजुट करने के लिए रैली की जगह रैला शब्द जोड़ दिया. रैला शब्द के पीछे का मकसद यह था कि वे गरीब वोटरों को बता सकें कि लोग रैली करते हैं. वे गरीबों के लिए रैला कर रहे हैं. लालू की यह सोच काफी हद तक सफल भी रही थी. वे अपने वोटरों तक यह पर्सेप्शन बनाने में सफल रहे कि रैली रैला में तभी तब्दील होगा जब ज्यादा लोग गांधी मैदान पहुंचेंगे. इसी बहाने लालू शक्ति प्रदर्शन करने में सफल रहे.
3. महागरीब रैला (1997): जब लालू के खिलाफ बीजेपी और नीतीश कुमार मुखर हो चुके थे. दोनों मिलकर लालू-राबड़ी के शासन को जंगल राज कहने लगे थे. ऐसे में लालू ने अपना जनाधार बढ़ाने के लिए गरीब में 'महा' शब्द जोड़ दिया. वे इसके जरिए बताने की कोशिश कर रहे थे वे ओबीसी के अलावा समाज के बेहद निचले तबके के भी नेता हैं.
4. लाठी रैला (2003): बिहार की राजनीतिक में लालू यादव का असर कम होने लगा था. ऐसे में अपने जनाधार बचाने के लिए लालू ने लाठी रैला किया था. लाठी उस वर्ग का भी प्रतीक है, जो खेती-किसानी और पशुपालन से जुड़ा है. ये वंचित तबके के हाथ में आए उस 'राजदंड' जैसा भी है, जो अक्सर सत्ता पर काबिज 'बाहुबलियों' के हाथों में देखा जाता रहा है.
5. चेतावनी रैली (2007): बिहार में नीतीश और बीजेपी गठबंधन के सामने लालू अपनी लोकप्रियता गंवा चुके थे. ऐसे में वे अपने कोर वोटरों को फिर से एकजुट करने की कोशिश में थे. वह यह संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि वे नीतीश राज में यादव और मुस्लिम वोटरों के साथ भेदभाव वह बर्दाश्त नहीं करेंगे. और इसको लेकर ही चेतावनी रैली का आयोजन किया था।
6. परिवर्तन रैली (2012): नीतीश कुमार का बीजेपी से दोस्ती टूट चुकी थी. लालू बिहार की राजनीति में नए गठबंधन की उम्मीद लगाए थे. इसी को देखते हुए उन्होंने संदेश देने की कोशिश की, कि अब बिहार में नई सरकार बनने जा रही है. और जो रैली का आयोजन किया परिवर्तन रैली का नाम दिया था
7. 'भाजपा भगाओ देश बचाओ' (2017): बिहार में चुनाव हारने के बाद बीजेपी ने नीतीश से दोबारा दोस्ती कर लालू यादव को सत्ता से बाहर कर दिया. ऐसे में लालू बीजेपी एंटी ग्रुप को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं. साथ ही वे इस रैली के जरिए बताने की कोशिश में हैं कि बिहार में वे भले ही विपक्ष में हैं, लेकिन उनकी शक्ति कम नहीं हुई है। इस रैली में सोनिया गांधी राहुल गांधी ममता बनर्जी सहित कई भाजपा विरोधी दल के नेता शामिल हुए थे।
8. अब तेजस्वी यादव की जन विश्वास रैली (2024): तेजस्वी यादव लालू प्रसाद यादव से अलग राजनीति करते दिख रहे हैं 2020 के विधानसभा चुनाव में तो लालू प्रसाद यादव की तस्वीर भी गायब कर दी थी ए टू जेड की पार्टी तेजस्वी आरजेडी को बता रहे हैं तो कहीं ना कहीं लालू प्रसाद यादव की राजनीति की सीमा से आरजेडी को निकालने की कोशिश कर रहे हैं. तेजस्वी यादव ने रैली में 17 महीने सरकार में रहते नौकरी और रोजगार को लेकर जो काम किया उसे बताने की कोशिश कर रहे हैं और उसके सहारे बिहार के भविष्य को संभालने की बात भी कह रहे हैं तो एक उम्मीद भी जाग रहे हैं.
"आज की रैली में जो भी भीड़ आयी चाहे वह राजद का हो या सहयोगी दलों का तेजस्वी के बुलावे पर आई. इसलिए रैली के नाम से लेकर आयोजन तक तेजस्वी ने अपनी अलग छवि दिखाने की कोशिश की है. यह बड़ा कारण रहा कि कोई भी हुड़दंग करने का साहस नहीं जुटा सका."- रवि उपाध्याय, राजनीतिक विश्लेषक
तेजस्वी के लिए है महत्वपूर्ण: तेजस्वी यादव के लिए यह रैली इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 2019 के चुनाव में आरजेडी का खाता नहीं खुला था. एनडीए को 40 में से 39 सीट पर जीत मिली थी. इसलिए तेजस्वी यादव ने लोकसभा चुनाव घोषणा होने से ठीक पहले बड़ी रैली की है. बिहार में इंडिया गठबंधन के बड़े नेता को अपने साथ दिखाने की कोशिश की है. तेजस्वी के लिए 2024 लोकसभा चुनाव में खोने के लिए कुछ नहीं है. ऐसे में यदि राजद के लिए तेजस्वी मोदी लहर में कुछ भी सीट ले आते हैं तो यह उनकी उपलब्धि रहेगी. इसीलिए रैली का नाम जन विश्वास रैली देकर एक मैसेज देने की कोशिश की है.