रीवा।विंध्याचल की गोद में बसे रीवा की पहचान समूचे देश में अलग ही रही है, क्योंकि देश के ह्रदय स्थली में बसे मध्य प्रदेश की सियासत ही विंध्य के बगैर अधूरी है. रीवा को विंध्य के सियासत का गढ़ कहा जाता है. वैसे तो देश की आजादी के पूर्व मध्य प्रदेश का कोई अस्तित्व ही नहीं था. 1947 में देश को अंग्रेजों से आजादी मिली. 4 अप्रैल 1948 में नवगठित राज्य विंध्य प्रदेश का उद्घाटन हुआ. जिसकी राजधानी रीवा बनी और विंध्य प्रदेश के राज प्रमुख महाराजा मार्तण्ड सिंह बने.
वर्ष 1950 के दौरान देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई और वर्ष 1951-52 के दरमियान आम चुनाव याने के लोकसभा चुनाव की शुरुआत हुई. 1956 में मध्य प्रदेश राज्य का गठन हुआ और विंध्य प्रदेश की मध्य प्रदेश मिला दिया गया.
तानसेन और बीरबल की धरती विंध्य के रीवा का चुनावी इतिहास
विंध्य प्रदेश का मध्य प्रदेश में विलय हुए भले ही 68 वर्ष बीत गए हो, लेकिन आज भी विंध्य प्रदेश समूचे देश में अपनी एक अलग ही पहचान बनाए हुए है, क्योंकि इसी विंध्य में बघेल राजवंश ने 300 सालों तक राज किया. अकबर के नवरत्नों में शामिल तानसेन और बीरबल की जन्मभूमि भी विंध्य ही है. ये वही विंध्य की भूमि है. जिसने देश को सफेद शेर दिए. ये वही विंध्य की धरती है, जहां के सुंदरजा आम ने दुनिया के कई देशों में अपनी पहचान बनाई. दुनिया भर में मशहूर सुपाड़ी से निर्मित खिलौने और कलाकृति भी विंध्य के रीवा की देन है.
वर्ष 1952 में हुआ था पहला लोकसभा चुनाव
अब बात करें विंध्य के रीवा में सियासत की तो यह क्षेत्र अपने आप में एक महान विरासत को समेटे हुए है. विंध्य के रीवा की सियासत भी बेहद दिलचस्प रही है. रीवा संसदीय सीट की अगर बात की जाए तो इस सीट में 1952 से लेकर वर्ष 2019 तक 67 सालों के दौरान अब तक यहां पर 17 लोकसभा चुनाव हुए. जिसमें 11 सांसद चुने गए. 68 वर्षों में यह सीट हमेशा ही अनारक्षित रही और यहां की जानता ने कांग्रेस के अलावा किसी भी पार्टी को ज्यादा समय तक टिकने के मौका ही नहीं दिया.
1952 से 1971 तक लागातार इस सीट में कांग्रेस का कब्जा
देश आजाद होने के बाद 1952 में रीवा संसदीय सीट का पहली बार लोकसभा चुनाव हुआ. जिसके बाद 1952 से लेकर 1967 तक लगातार चार बार यह संसदीय सीट कांग्रेस के कब्जे में रही. पहला चुनाव में राजभान सिंह तिवारी ने कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़ा और अपनी जीत दर्ज कराई. दूसरा चुनाव 1957 में हुआ, तब कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार बदला और शिवदत्ता उपाध्याय को अपना प्रत्याशी घोषित किया. चुनाव हुए जिसके बाद एक बार फिर कांग्रेस के खाते में रीवा संसदीय सीट आ गई. 1962 में एक बार फिर कांग्रेस ने शिवदत्ता को चुनावी मैदान पर उतारा और जीत हसिल की. 1967 में कांग्रेस ने एक बार फिर अपने उम्मीदवार का चेहरा बदला और एस एन शुक्ला को अपना कैंडिडेट घोषित किया. चुनाव हुए और चौथी बार रीवा संसदीय सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार निर्वाचित हुए.
1971 में महाराजा मार्तण्ड सिंह ने जीता था निर्दलीय चुनाव
इसके बाद वर्ष 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में रीवा रियासत के महाराजा मार्तण्ड सिंह निर्दलीय प्रत्याशी बनकर चुनावी मैदान में उतरे और अपनी जीत दर्ज कराई, लेकिन 1977 के लोकसभा चुनाव में यमुना प्रसाद शास्त्री ने भारतीय लोकदल पार्टी से चुनाव लड़कर जीत हसिल की. जो भारत के पहले नेत्रहीन सासंद रहे. वर्ष 1980 में महाराजा मार्तण्ड सिंह एक बार निर्दलीय प्रत्याशी बनकर चुनावी मैदान पर उतरे और जीत का ताज अपने सिर पर रखा. 1984 में कांग्रेस ने एक बार फिर अपना प्रत्याशी बदला और इस बार महराजा मार्तण्ड सिंह को कांग्रेस से टिकट देकर चुनाव लड़वाया और महाराजा मार्तण्ड सिंह ने अपनी जीत दर्ज कराई. इस तरह रीवा संसदीय सीट से महाराजा मार्तण्ड सिंह कुल तीन बार सांसद चुने गए.
वर्ष 1977 और 1989 में यमुना प्रसाद शास्त्री ने जीता चुनाव
1989 में दूसरी बार यमुना प्रसाद शास्त्री चुनावी मैदान पर उतरे और रीवा संसदीय सीट से जानता दल की टिकट पर चुनाव लडे़. रीवा की जानता से उन्हें अपना नेता चुना. जिसके बाद वह दूसरी बार रीवा के सांसद बने. इसके बाद वर्ष 1991 में रीवा संसदीय सीट में एक दम से बदलाव देखने को मिला और पहली बार इस सीट से बसपा ने बाजी मारी और भीम सिंह पटेल रीवा के सांसद चुने गए. इसी तरह वर्ष 1996 में हुए लोकसभा चुनाव में बसपा ने अपना उम्मीदवार बदला और बुद्धसेन पटेल को अपना उम्मीदवार बनाया. चुनाव हुए और लागातार दूसरी बार बसपा ने यहां से जीत हासिल की.
1998 में बदला चुनावी गणित और बीजेपी प्रत्याशी ने दर्ज कराई जीत
1998 के रीवा संसदीय सीट का पूरा चुनावी गणित ही पलट गया. इस बार बीजेपी ने चंद्रमणि त्रिपाठी को अपना उम्मीदवार बनाया. चुनाव में परिणाम भी भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में आए. चंद्रमणि त्रिपाठी रीवा से सांसद चुने गए. 1999 के चुनाव में कांग्रेस ने पण्डित श्रीनिवास तिवारी के बेटे सुंदर लाल तिवारी को टिकट देकर अपना उम्मीदवार घोषित किया और 15 साल बाद इस सीट में कांग्रेस की वापसी हुई. सुंदर लाल तिवारी रीवा संसदीय सीट से निर्वाचित होकर सांसद बने.
2004 में दोबारा संसद बने बीजेपी के चंद्रमणि त्रिपाठी
2004 के चुनाव में बीजेपी ने एक बार फिर रीवा संसदीय सीट से चंद्रमणि त्रिपाठी पर भाग्य आजमाया और चंद्रमणि त्रिपाठी इस बार फिर खरे उतरे. उन्होंने बीजेपी को जीत दिलाई और रीवा के सांसद चुने गए. वहीं 2009 के चुनाव में देवराज सिंह पटेल को बसपा ने अपना उम्मीदवार घोषित करके चुनावी मैदान पर उतारा और दूसरी बार बसपा ने इस सीट पर अपना कब्जा जमा लिया.