जयपुर:राजधानी में इन दिनों बारिश का दौरा चल रहा है, लेकिन ये बारिश का पानी न तो जयपुर का भूजल स्तर बढ़ा रहा है और न ही कहीं स्टोर हो रहा है. नालों में व्यर्थ बहता ये पानी आज जयपुर के उस रेन वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम की याद दिला रहा है जो अब सिर्फ किताबों तक सिमट कर रह गया है. इतिहास गवाह है कि जयपुर में पानी की एक-एक बूंद की कद्र की जाती थी, उसको सहेज कर रखा जाता था.
टांके-बावड़ी में वर्षा जल स्टोर किया जाता था, जिससे वर्षाकाल के बाद बचे हुए 10 महीने में नियमित जलापूर्ति हो पाती थी, लेकिन अब शहर में ऐसा देखने को नहीं मिलता. आज बावड़ियों की संभाल नहीं होने से कुछ सूख चुकी हैं. वर्षा जल का संचय करने वाली नहरें नाले बन चुकी हैं. जयपुर की तीनों चौपड़ों का स्वरूप बदल चुका है. यही वजह है कि जयपुर के जिस जलसंवर्धन को वैज्ञानिक भी स्टडी किया करते थे, वो आज सिर्फ किताबी ज्ञान बनकर रह गई है.
जल संवर्धन का ध्यान : ईटीवी से खास बातचीत में इतिहासकार देवेंद्र कुमार भगत ने बताया कि 18 नवम्बर 1727 को महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने जिस जयपुर की नींव रखी थी, उसमें जल संवर्धन का भी ध्यान रखा गया. परकोटे में बनी तीनों चौपड़, बावड़ियां, नहरें इसी वर्षा जलसंवर्धन के उदाहरण हैं. जयपुर की संरचना में वर्षा जल संचयन और बारिश के निकासी का विशेष तौर पर इंतजाम किया गया था. चूंकि जयपुर के पास अपना वाटर रिसोर्स नहीं था, ऐसे में जयपुर वासियों की पेयजल समस्या का समाधान करने के लिए सवाई जयसिंह ने हरमाड़ा के पास से एक नहर निकाली थी, जिससे बालानंद मठ के पीछे सरस्वती कुंड में वर्षा जल का स्टोरेज होता था और जयपुर के अंदर वो नहर गोपनीय रूप से चलती थी, जिसे गुप्त गंगा भी कहते थे.