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मध्य प्रदेश में जंगल का निजीकरण, 40% फॉरेस्ट निजी हाथों में सौंपने की तैयारी - MADHYA PRADESH FOREST PRIVATIZATION

एमपी में बिगड़े वनों को सुधारने के लिए निवेशकों को किया जा रहा आमंत्रित. निजी कंपनियों को 60 साल की लीज पर मिलेगी जमीन.

MADHYA PRADESH FOREST PRIVATIZATION
मध्य प्रदेश में जंगलों का निजीकरण (ETV Bharat)

By ETV Bharat Madhya Pradesh Team

Published : Feb 15, 2025, 7:10 PM IST

Updated : Feb 15, 2025, 11:04 PM IST

जबलपुर: मध्य प्रदेश की मोहन सरकार प्रदेश के 40% जंगलों को निजी हाथों में सौंपने जा रही है. यह जमीन लगभग 37 लाख हेक्टेयर है. इसमें छोटे निवेशकों को 10 हेक्टेयर और बड़े निवेशकों को 1000 हेक्टेयर तक की जमीन पर जंगल विकसित करने के लिए आमंत्रित किया गया है. निजी कंपनियों को यह जमीन 60 साल की लीज पर दी जा रही है. राज्य सरकार का दावा है कि जो बिगड़े हुए वन हैं जिन्हें निजी निवेश से सुधारने की कोशिश की जाएगी.

मध्य प्रदेश में जंगलों का निजीकरण

मध्य प्रदेश सरकार ने वन विभाग की वेबसाइट पर 'सीएसआर, सीईआर और अशासकीय निधियों के उपयोग से वनों की पुनर्स्थापना की नीति' जारी की है. इसमें बताया गया है कि मध्य प्रदेश में लगभग 95 लाख हेक्टेयर में जंगल हैं. इनमें से 37 लाख हेक्टेयर जंगल बिगड़े हुए वनों की स्थिति में है. इन जंगलों को राज्य सरकार अपने संसाधनों से पुनर्स्थापित नहीं कर पा रही है.

फॉरेस्ट निजी हाथों में सौंपने की तैयारी (ETV Bharat)

सीएसआर फंड का इस्तेमाल

राज्य सरकार ने अपनी नीति में लिखा है कि वह इन जंगलों को निजी हाथों में देने जा रहे हैं. इन जंगलों को फिर से हरा भरा करने के लिए बड़ी कंपनियों के कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी और कॉर्पोरेट एनवायरमेंटल रिस्पांसिबिलिटी के फंड का इस्तेमाल किया जाएग. दरअसल बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों को इन दोनों मदों में अपनी कुल कमाई का 3% देना होता है.

सीएसआर फंड का इस्तेमाल (ETV Bharat)

कम से कम 10 हेक्टेयर का दिया जाएगा जंगल

राज्य सरकार ने अपनी नीति में बताया है कि एक कंपनी, संस्था, व्यक्ति या स्वयंसेवी संस्था को 10 हेक्टेयर तक का बिगड़ा जंगल दिया जाएगा. ये जंगल का हिस्सा अगले 60 सालों तक निजी हाथों में रहेगा. राज्य सरकार के वन विभाग और जिसे जंगल दिया जा रहा है उसके बीच में एक अनुबंध होगा. इस अनुबंध के तहत अनुबंध के पहले ही साल में जंगल सुधारने की गतिविधि शुरू करनी होगी. वन भूमि का इस्तेमाल दूसरे किसी काम में नहीं किया जाएगा. वन विभाग की सहमति से इस पूरे इलाके में पौधे लगाने होंगे. और यदि 2 साल के भीतर पौधे नजर नहीं आएंगे तो अनुबंध रद्द भी किया जा सकता है.

जंगलों को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी (ETV Bharat)

कार्बन क्रेडिट संस्था के खाते में

वन उपज वन विभाग के माध्यम से बेची जाएगी हालांकि इसका आधा फायदा उस संस्था को भी दिया जाएगा, जिसने इस जंगल को विकसित किया है. वहीं दूसरी तरफ निजी कंपनी या संस्था को कार्बन क्रेडिट का मुनाफा मिलेगा. पर्यावरण खराब करने वाली कंपनियों को कार्बन क्रेडिट बढ़ाने की जिम्मेदारी है.

बड़े निवेशकों के लिए आमंत्रण

इसी नीति में एक प्रस्ताव यह भी है कि, 1000 हेक्टेयर तक के जंगल को यदि कोई निजी कंपनी विकसित करना चाहेगी तो निजी निवेश के माध्यम से वनों की पुनर्स्थापना का भी प्रस्ताव है. इस जंगल से जो भी वन उपज प्राप्त होगी उसका 20% भाग वन समिति को 80% वन विकास निगम और निजी कंपनी को मिलेगा. इस प्रस्ताव में भी फल वनोपज का 50% हिस्सा निजी कंपनी को मिलेगा.

पर्यावरणविद् कर रहे नीति का विरोध

पर्यावरणविद् और वन प्रबंधन के जानकार जयंत वर्माका कहना है कि "इस नीति में कई लूप पोल हैं. सरकार जिस जमीन को निजी हाथों में देने जा रही है उसके निजीकरण के पहले केंद्र सरकार से अनुमति लेनी होगी क्योंकि वन भूमि केंद्र का मामला है. इसमें राज्य सरकार अपने मन से कुछ नहीं कर सकती.

निजी कंपनियों को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि पर्यावरण सुधरे या वनों की स्थिति सुधरे या फिर उसे क्षेत्र में रहने वाले आदिवासियों का भला हो. निजी कंपनियां तो अपना भला देखेंगी और वह ऐसे पेड़ पौधों का उत्पादन करेंगी, जिनसे ज्यादा मुनाफा होगा. इससे हो सकता है कि वन उपज बढ़ जाए लेकिन पर्यावरण सुधरने की कोई उम्मीद नहीं है."

'बिगड़े वनों की परिभाषा स्पष्ट नहीं'

पर्यावरणविद् जयंत वर्माका कहना है कि "इस नीति में जिन बिगड़े वनों की बात की जा रही है, यदि वे किसी गांव के आसपास हैं तो ग्राम सभा की अनुमति लेनी होगी लेकिन यह दिखावा होगा. वहीं बिगड़े वनों की परिभाषा भी स्पष्ट नहीं है. शासन के नजरिए से जिस जमीन पर कीमती इमारती लकड़ी नहीं है वह बिगड़ा जंगल मान लिया जाता है. भले ही उसमें आदिवासियों के उपयोग की या पर्यावरण के लिए जरूरी पेड़ पौधे ही क्यों ना लगे हो.

दरअसल जंगलों में कुछ पेड़ पौधे ऐसे होते हैं जिनका कोई आर्थिक लाभ नहीं है लेकिन पारिस्थितिकी के लिए इनका जंगल में होना जरूरी है. जाहिर सी बात है कि निजी कंपनी के लिए यह पौधे किसी काम के नहीं हैं और हो सकता है कि इन्हें कंपनी नष्ट कर दे."

'वन विभाग का नजरिया अंग्रेजों जैसा'

पर्यावरणविद् जयंत वर्माका कहना है कि "इससे जंगलों की स्थिति तो नहीं सुधरेगी पर यह जरूर है कि कंपनियां जंगलों में ईको टूरिज्म जरूर शुरू कर देंगी. भारत में वन अधिनियम अंग्रेजों के जमाने में बना था और अंग्रेजों ने इसे जंगलों को विकसित करने के लिए नहीं बल्कि वन उपज कैसे निकली जाए उसके लिए कानून बनाया था.

अभी भी वन विभाग का नजरिया अंग्रेजों जैसा ही है और वे केवल वन उपज के लिए ही जंगल तैयार करते हैं. ना तो उनका नजरिया पर्यावरण को सुधारना है और ना ही वे जंगल को जंगली जानवरों और आदिवासियों के लिए विकसित करना चाहते हैं. इसलिए अभी भी जंगलों में फल वाले पौधे नहीं लगाए जाते केवल इमारती लकड़ियों के पौधों का ही वृक्षारोपण किया जाता है."

Last Updated : Feb 15, 2025, 11:04 PM IST

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