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राजा को रोग से मुक्ति दिलाने के लिए अयोध्या से चुरा कर लाई गई थी मूर्तियां, जानिए कुल्लू दशहरे का इतिहास

भगवान रघुनाथ के सम्मान में 1660 से दशहरा उत्सव का आयोजन किया जा रहा है. इसका इतिहास कुल्लू के राजा जगत सिंह से जुड़ा है.

कुल्लू दशहरा
कुल्लू दशहरा (ETV BHARAT)

By ETV Bharat Himachal Pradesh Team

Published : Oct 7, 2024, 5:08 PM IST

Updated : Oct 7, 2024, 5:15 PM IST

कुल्लू: देशभर में दशहरा का पर्व मनाया जाता है, लेकिन हिमाचल के कुल्लू का दशहरा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. देवी देवताओं का महाकुंभ अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव 13 अक्टूबर से जिला कुल्लू में ढालपुर मैदान में शुरू होगा. इसकी शुरुआत कैसे हुई ये भी एक रोचक कहानी है. कुल्लू दशहरा उत्सव की शुरुआत 16वीं शताब्दी में हुई थी और कल्लू के राजा जगत सिंह ने इसकी शुरुआत की थी. कल्लू के राजा जगत सिंह के समय में अयोध्या से भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति यहां लाई गई और उन्हें सारा राज पाठ भी रघुनाथ जी को सौंप दिया गया था. उसके बाद से लेकर यह अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव यहां पर मनाया जा रहा है.

कुल्लू के विभिन्न ग्रामीण इलाकों से देवी देवता ढालपुर के मैदान में 7 दिनों तक विराजते हैं और उनके दर्शनों के लिए देश-विदेश से लोग यहां आते हैं. बात 1637 की है. राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के टिप्परी गांव में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था. राजा को किसी ने सूचना दी कि ब्राह्मण के पास सूचे मोती हैं, लेकिन ब्राह्मण ने अपन पास कोई मोती न होने की बात कही, लेकिन राजा ने फिर मोतियों की मांग की. डर के मारे ब्राह्मण ने अपने परिवार सहित अपने घर में आग लगाकर आत्मदाह कर लिया. गरीब ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा जगत सिंह को लगा. इससे राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था.

राजा को हो गया था असाध्य रोग

असाध्य रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाएं. इन मूर्तियों को कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी. इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा था.

भगवान रघुनाथ को सौंपा राजपाठ

बताया जाता है कि बड़े जतन से जब अयोध्या से मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो वहां उन्हें पकड़ लिया गया और उनकी पिटाई के बाद उनसे मूर्तियां छीन लीं. जब आयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वो भारी हो गई कई लोग इन मूर्तियों को नहीं उठा सके. जब इन्हें पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई. ऐसे में पूरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या के पुजारियों ने मूर्ति को कुल्लू लाने दिया. कहते हैं कि इन मूर्तियों के दर्शन के बाद राजा का रोग खत्म हो गया था. स्वस्थ होने के बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया और इस तरह से यहां दशहरे की शुरूआत हुई.

रघुनाथ जी की मूर्ति (ETV BHARAT)

भगवान राम ने दिलाई रोग से मुक्ति

भगवान राम के कुल्लू आने पर राजा को रोग से मुक्ति मिल गई और 1660 में राजा ने पूरा राज पाठ भगवान रघुनाथ के नाम कर दिया और खुद छड़ीबरदार बनकर सेवा करने लगे. साल 1660 में भगवान रघुनाथ की मूर्ति मकराहड, मणिकर्ण, हरिपुर, नगर होते हुए कुल्लू पहुंची और भगवान रघुनाथ के सम्मान में 1660 से दशहरा उत्सव का आयोजन किया जाने लगा. अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा यहां के सभी 365 देवी-देवताओं को ढालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं और पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं. इन्हे राजघराने की देवी माना जाता है. कुल्लू के प्रवेशद्वार में उनका स्वागत किया जाता है और राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में उनका प्रवेश होता है. हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उनका आशीर्वाद लेने आते हैं. इसके उपरांत ढालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है.

1966 तक कुल्लू दशहरा को राज्य स्तर का दर्जा मिला

आजादी के बाद साल 1966 तक कुल्लू दशहरा को राज्य स्तर का दर्जा मिला और 1970 में अंतरराष्ट्रीय स्तर का दर्जा देने की घोषणा की गई, लेकिन इसे मान्यता नहीं मिल पाई. ऐसे में साल 2017 में से अंतरराष्ट्रीय उत्सव का दर्जा दिया गया और इस देव महाकुंभ को देखने के लिए देश-विदेश से भी भारी संख्या में पर्यटक ढालपुर पहुंचते हैं. पूरे देश भर में जहां नवरात्रि में रामलीला का आयोजन किया जाता है. तो वहीं, ढालपुर के दशहरा उत्सव में ना तो रामलीला की जाती है और ना ही रावण के पुतले को जलाया जाता है. यहां पर विजयदशमी के दिन अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव की शुरुआत होती है और भगवान रघुनाथ के रथ यात्रा के साथ-साथ इस मेले को ढालपुर मैदान में मनाया जाता है. अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि से शुरू होने के एक सप्ताह बाद इसका समापन किया जाता है और इसे देवी देवताओं का वार्षिक सम्मेलन भी कहा जाता है. कहा जाता है कि विजयदशमी के दिन भगवान राम के द्वारा रावण की सेना पर जीत हासिल की गई थी. ऐसे में दशमी के दिन ही यहां पर दशहरा उत्सव की शुरुआत हो जाती है.

कुल्लू दशहरे में निकली जलेब (फाइल फोटो)

लुभावना होता है कुल्लू दशहरे का नजारा

दशहरा उत्सव के दौरान यहां के स्थानीय लोगों की रंग-बिरंगी पौशाके देखते ही बनती है. या यूं कहे की उत्सव में चार चांद लगा देती हैं. पहाड़ के विभिन्न रास्तों से घाटी में आते हुए देवताओं के इस अनुष्ठान को देख लगता है कि सभी देवी-देवता स्वर्ग का द्वार खोल कर धरती पर आनंदोत्सव मनाने आ रहे हैं. इस दौरान रंगबिरंगी पालकियों में सभी देवी देवताओं की मूर्तियों को रखा जाता है और यात्रा निकाली जाती है. उत्सव के छठे दिन सभी देवी-देवता इकट्ठे आ कर मिलते हैं जिसे 'मोहल्ला' कहते हैं. रघुनाथ जी के इस पड़ाव पर उनके आसपास अनगिनत रंगबिरंगी पालकियों का दृश्य बहुत ही अनूठा और लुभावना होता है और सारी रात लोगों का नाच गाना चलता है.

सातवें दिन होता है लंका दहन

दशहरे के दौरान एक रथ यात्रा भी निकाली जाती है. पहाड़ी से माता भेखली का आदेश मिलते ही रथ यात्रा शुरू होती है. रस्सी की सहायता से रथ को इस जगह से दूसरी जगह ले जाया जाता है. जहां यह रथ छह दिन तक ठहरता है. राज परिवार के सभी पुरुष सदस्य राजमहल से दशहरा मैदान की ओर धूम-धाम से रवाना होते हैं. कुल्लू दशहरा उत्सव में सातवें दिन लंका दहन किया जाता है और उसके साथ ही दशहरे का समापन किया जाता है. लंका दहन के दिन भी रथ यात्रा निकाली जाती है और भगवान रघुनाथ वापस रघुनाथपुर अपने मंदिर की ओर लौट जाते हैं.

कुल्लू दशहरा (फाइल फोटो)

2014 में मूर्तियां हो गई थी चोरी

सुल्तानपुर स्थित ऐतिहासिक मंदिर से नेपाली युवक 2014 में भगवान रघुनाथ के अलावा नरसिंह, हनुमान, गणपति और शालिग्राम की मूर्तियों को चुरा लिया था. उस दौरान कुल एक किलो सोने और दस किलो चांदी की मूर्तियां और अन्य सामान गायब हुआ था. जिसे बाद में साल 2015 के जनवरी माह में पुलिस के द्वारा बरामद भी कर लिया गया था. ऐसे में भगवान रघुनाथ की मूर्ति की चोरी होने पर जिला कुल्लू में शोक की लहर दौड़ गई थी और कई दिनों तक रघुनाथपुर के साथ लगते इलाकों में लोगों के घरों में चूल्हा भी नहीं जला था. भगवान रघुनाथ की मूर्ति मिलने के बाद लोगो में हर्ष की लहर दौड़ गई थी और बसंत पंचमी का त्योहार धूमधाम से मनाया गया था.
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Last Updated : Oct 7, 2024, 5:15 PM IST

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