कुल्लू: देशभर में दशहरा का पर्व मनाया जाता है, लेकिन हिमाचल के कुल्लू का दशहरा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. देवी देवताओं का महाकुंभ अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव 13 अक्टूबर से जिला कुल्लू में ढालपुर मैदान में शुरू होगा. इसकी शुरुआत कैसे हुई ये भी एक रोचक कहानी है. कुल्लू दशहरा उत्सव की शुरुआत 16वीं शताब्दी में हुई थी और कल्लू के राजा जगत सिंह ने इसकी शुरुआत की थी. कल्लू के राजा जगत सिंह के समय में अयोध्या से भगवान रघुनाथ जी की मूर्ति यहां लाई गई और उन्हें सारा राज पाठ भी रघुनाथ जी को सौंप दिया गया था. उसके बाद से लेकर यह अंतरराष्ट्रीय दशहरा उत्सव यहां पर मनाया जा रहा है.
कुल्लू के विभिन्न ग्रामीण इलाकों से देवी देवता ढालपुर के मैदान में 7 दिनों तक विराजते हैं और उनके दर्शनों के लिए देश-विदेश से लोग यहां आते हैं. बात 1637 की है. राजा जगत सिंह के शासनकाल में मणिकर्ण घाटी के टिप्परी गांव में एक गरीब ब्राह्मण दुर्गादत्त रहता था. राजा को किसी ने सूचना दी कि ब्राह्मण के पास सूचे मोती हैं, लेकिन ब्राह्मण ने अपन पास कोई मोती न होने की बात कही, लेकिन राजा ने फिर मोतियों की मांग की. डर के मारे ब्राह्मण ने अपने परिवार सहित अपने घर में आग लगाकर आत्मदाह कर लिया. गरीब ब्राह्मण के इस आत्मदाह का दोष राजा जगत सिंह को लगा. इससे राजा जगत सिंह को भारी ग्लानि हुई और इस दोष के कारण राजा को एक असाध्य रोग भी हो गया था.
राजा को हो गया था असाध्य रोग
असाध्य रोग से ग्रसित राजा जगत सिंह को झीड़ी के एक पयोहारी बाबा किशन दास ने सलाह दी कि वह अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से भगवान राम चंद्र, माता सीता और रामभक्त हनुमान की मूर्ति लाएं. इन मूर्तियों को कुल्लू के मंदिर में स्थापित करके अपना राज-पाठ भगवान रघुनाथ को सौंप दें तो उन्हें ब्रह्महत्या के दोष से मुक्ति मिल जाएगी. इसके बाद राजा जगत सिंह ने श्री रघुनाथ जी की प्रतिमा लाने के लिए बाबा किशनदास के चेले दामोदर दास को अयोध्या भेजा था.
भगवान रघुनाथ को सौंपा राजपाठ
बताया जाता है कि बड़े जतन से जब अयोध्या से मूर्ति को चुराकर हरिद्वार पहुंचे तो वहां उन्हें पकड़ लिया गया और उनकी पिटाई के बाद उनसे मूर्तियां छीन लीं. जब आयोध्या के पंडित मूर्ति को वापस ले जाने लगे तो वो भारी हो गई कई लोग इन मूर्तियों को नहीं उठा सके. जब इन्हें पंडित दामोदर ने उठाया तो मूर्ति फूल के समान हल्की हो गई. ऐसे में पूरे प्रकरण को स्वयं भगवान रघुनाथ की लीला जानकार अयोध्या के पुजारियों ने मूर्ति को कुल्लू लाने दिया. कहते हैं कि इन मूर्तियों के दर्शन के बाद राजा का रोग खत्म हो गया था. स्वस्थ होने के बाद राजा ने अपना जीवन और राज्य भगवान रघुनाथ को समर्पित कर दिया और इस तरह से यहां दशहरे की शुरूआत हुई.
भगवान राम ने दिलाई रोग से मुक्ति
भगवान राम के कुल्लू आने पर राजा को रोग से मुक्ति मिल गई और 1660 में राजा ने पूरा राज पाठ भगवान रघुनाथ के नाम कर दिया और खुद छड़ीबरदार बनकर सेवा करने लगे. साल 1660 में भगवान रघुनाथ की मूर्ति मकराहड, मणिकर्ण, हरिपुर, नगर होते हुए कुल्लू पहुंची और भगवान रघुनाथ के सम्मान में 1660 से दशहरा उत्सव का आयोजन किया जाने लगा. अश्विन महीने के पहले पंद्रह दिनों में राजा यहां के सभी 365 देवी-देवताओं को ढालपुर घाटी में रघुनाथ जी के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं और पर्व के पहले दिन दशहरे की देवी, मनाली की हिडिंबा कुल्लू आती हैं. इन्हे राजघराने की देवी माना जाता है. कुल्लू के प्रवेशद्वार में उनका स्वागत किया जाता है और राजसी ठाठ-बाट से राजमहल में उनका प्रवेश होता है. हिडिंबा के बुलावे पर राजघराने के सब सदस्य उनका आशीर्वाद लेने आते हैं. इसके उपरांत ढालपुर में हिडिंबा का प्रवेश होता है.