वाराणसी :महज 17 साल की उम्र थी, पति का साथ छूट चुका था, गोद में चार बच्चे थे और ससुरालवालों ने बेदखल कर दिया. जीवन में ऐसा भूचाल आया कि लगने लगा सब खत्म हो चुका है. भविष्य में कुछ नजर नहीं आ रहा था, मगर उस समय हार नहीं मानी और दोबारा उठ खड़ी हुई. समाज के बंधनों को तोड़ा, लड़ीं और खुद को साबित कर दिखाया. हम बात कर रहे हैं देश की पहली डोमरानी यानी बड़की मालकिन जमुना देवी की. जमुना देवी मनिकर्णिका घाट पर शवों के लिए आग देने का काम करती हैं. जमुना देवी उन महिलाओं में शामिल हैं, जिन्होंने अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जिया और परिवार के लिए एक मजबूत दीवार बनकर खड़ी रहीं.
सहनी पड़ा समाज का उलाहना :"सब कोई जब रोवत देखै ल, त सबके तकलीफ होला. हम तो उहां घाट पर बैठे ली. हमके तकलीफ न होत होई? हमहू के बहुत कष्ट रहल है वह समय. बाकी अब आदत पड़ गइल हौ. अब कोनो तकलीफ न होला. शुरू में जब आग देवे के रहल है तो बहुत डर लगै." ये कहना है जमुना देवी के शुरुआती दिनों का. जब उन्होंने मणिकर्णिका घाट पर शवों को जलाने का काम शुरू किया था. उस समय एक महिला का घाट पर शवों को जलाना आखिर किसे स्वीकार होता? उन्हें भी समाज के तानों और उलाहनों को झेलना पड़ा. महिला होने के नाते उन्हें लोग घाट पर स्वीकार नहीं कर पा रहे थे. हालांकि संघर्ष के बल पर आज वह डोमरानी हैं.
शुरू में शव जलाने के लिए जाने पर लगता था डर :जमुना देवी बताती हैं कि जब पहली बार गद्दी पर बैठीं तो बहुत सारी तकलीफें हुईं. पहले तो जब कोई किसी को रोता हुआ देखता है तो सबको तकलीफ होती है. अब तो आदत हो गई है, अब कोई तकलीफ नहीं होती है. जब शुरू-शुरू में शव को आग देना पड़ती था तो भी डर लगता था. उस समय जब लोग घाट पर शव लेकर आते थे तो पहला सवाल यही होता था कि घाट पर महिला क्यों बैठी है? दिन काटते-काटते कट गया. एक-एक महीना पर शव जलाने के लिए नंबर आता था. जमुना देवी कहती हैं कि रात को सोते वक्त कानों में 'राम नाम सत्य' गूंजता रहता. मुझे लगता फिर शव आ गया है. रात भर ऐसे ही सपने आते थे. सुबह जब नींद खुलती तो सब सही मिलता था. इसके बाद अपने कर्मचारियों के साथ घाट पर बैठना शुरू कर दिया. कोई न कोई मेरे साथ बैठा रहता था. मेरे डर के कारण मुझे कोई अकेला नहीं छोड़ता था. घाट पर कोई महिला नहीं जाती है. इसलिए हमको देखकर शव लाने वाले लोग अचंभित हो जाते थे. लोग कहते थे कि महिला यहां क्यों बैठी है? इसका क्या काम है यहां? हमसे कोई नहीं पूछता था. कर्मचारियों से पूछते थे कि यहां पर क्यों बैठी है.
गरीबों की शव जलाने में करती हैं मदद :घाट पर सिर्फ शव जलाना ही काम नहीं होता है. बल्कि उन लोगों की मदद भी कर दी जाती है. जिनके पास शव जलाने के लिए लकड़ी-पैसे नहीं होते हैं. जमुना देवी बताती हैं कि एक-एक महीने पर घाट की गद्दी पर बैठने का मौका आता है. साढ़े तीन दिन की गद्दी होती है. घाट पर जब कोई गरीब आता है तो उसकी मदद भी की जाती है. लकड़ी नहीं है, किराया नहीं है तो उनकी मदद की जाती है. मदद नहीं होगी तो कैसे उनके लाए शव जलाए जाएंगे. मणिकर्णिका से उनका शव वापस तो जाएगा नहीं. बहुत से अस्पताल से शव आते हैं. पैसे खर्च हो जाते हैं उनके. ऐसे में उनकी भी मदद की जाती है.