सरगुजा: समाज में विधवाओं को आज भी अभिषाप के तौर पर देखा जाता है. कई पति की मौत के बाद उसे परिवार से भी बेदखल कर दिया जाता है. ऐसे में विधवा महिलाओं की मदद के लिए सामाजिक संगठन और संस्था आगे आते हैं. कुछ महिलाओं को इन संगठनों से मदद मिल जाती है कुछ मदद के लिए पूरी जिदंगी भटकते रहते हैं. ऐसे में जरुरतमंद महिलाओं को ये जानकारी होनी जरुरी है कि उसे कहां से सरकार मदद मिल सकती है.
क्या कहते हैं सामाजिक कार्यकर्ता: इस बारे में ईटीवी भारत ने सामाजिक कार्यकर्ता वंदना दत्ता से बातचीत की. उन्होंने कहा, "समाज का दृष्टिकोण विधवा हो चुका है. कुछ समाज में विधावाओं को अछूत जैसा मानते हैं, उनको शादी विवाह से दूर रखा जाता है. वो अपने ही बच्चे की शादी में शामिल नहीं हो पाती हैं. जो बड़े-बड़े करोड़पति लोग हैं, वो तो बिना शादी के या विधवा नहीं भी हुए हैं तो दो-दो, तीन-तीन शादी करते हैं. या फिर लीव इन में रहते हैं. उनको तो समाज अछूत नहीं समझता है. उनकी हर बात ढंकी रहती है. इस समाज का दृष्टिकोण ही विधवा हो चुका है."
मैं एक बार वृंदावन गई थी. वहां विधवाओं की स्थिति बड़ी दयनीय है. वो लोग ज्यादातर हमारे ही समाज के हैं. हजारों की संख्या में वहां विधवा बहने हैं. वो लोग भगवान कृष्ण की भक्ती करती हैं. भीख भी मांगती हैं. कुछ एनजीओ, कुछ धनाढय लोग मदद करते हैं. उनकी संस्था को चलाते हैं. शासन के ऊपर भी ये एक बोझ है. मैंने कुछ लोगों से पूछा कि आप यहां कैसे आ गई, तो वो बताई कि हमारे घर के लोग यहां छोड़कर चले गए. अब हमारा जीवन भगवान के लिए है. ऐसा घर वालों ने उन्हें कहा, ये उनकी सोच हो चुकी है. -वंदना दत्ता, सामाजिक कार्यकर्ता
समाज के लोग विधवा महिला को नहीं करते प्रोत्साहित: सामाजिक कार्यकर्ता वंदना दत्ता ने कहा, "एक बार लोगों ने कात्यायनी विवाह आयोजित किया था, लेकिन विधवा विवाह के लिए बहुत सारे विधुर तो आए लेकिन विधवा बहनें बहुत कम आगे आई. दो बार हमने ये कार्यक्रम आयोजित किया. उसमें जैसे 100 विधुर आए तो विधवा बहनों की संख्या 15 -20 थी. इसका अर्थ यही होता है कि समाज के जो लोग हैं, वो विधवा विवाह को प्रोत्साहित नहीं करते हैं. जब मैं वृंदावन से लौटकर आई तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री को पत्र लिखा था कि क्यों ना वहीं पश्चिम बंगाल में इनके लिए आश्रम बनवाए, जिससे कम से कम परिवार के लोग मिलने जुलने आते रहे. हालांकि वो लोग कहती हैं कि अब हमको लेने भी आयेंगे तो हम नहीं जाएंगे."
यानी कि भले ही आज के दौर में कई चीजों में बदलाव हो रहा हो, लेकिन विधवाओं के जीवन में कुछ भी नहीं बदला है. उन्हें या तो विधवा होने के बाद घरवालों के ताने सुनने पड़ते हैं, या फिर घरवाले ही उन्हें अपने परिवार और समाज से अलग भीख मांगने के लिए छोड़ जाते हैं.
23 जून 2011 को मिली मान्यता: माना जाता है कि अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस को संयुक्त राष्ट्र संघ ने 23 जून 2011 को पहली बार मान्यता दी. मान्यता देने के पीछे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनके सामने आने वाली चुनौतियों, अधिकारों और उनके कल्याण को लेकर आवाज उठाना मुख्य मकसद था.