कांकेर: कांकेर में अब भी कई ऐसे इलाके हैं, जहां नदी पर पुल तैयार नहीं हो पाये हैं. कांकेर जिला मुख्यालय से 70 किलोमीटर दूर परवी और खड़का गांव है. इन दोनों गांवों के बीच मंघर्रा नाला पड़ता है. कई बार ग्रामीणों ने नाले में पुल की मांग की. आश्वासन तो मिला लेकिन पुल नहीं बना. इसके बाद तीन गांवों के लोगों ने मिलकर 4 दिन में पुल तैयार कर दिया.
ऐसे तैयार किया पुल: खड़का, भुरका और जलहुर के ग्रामीणों ने नाले में पुल बनाने की ठानी. सभी ने मिलकर बांस-बल्लियों का इंतजाम किया. जंगल से बड़ी और छोड़ी लकड़ियों के साथ ही बांस लाया गया. छोटे बड़े पत्थरों को इकट्ठा किया गया. बिना सीमेंट और रेत के बने इस पुल को बनाने के लिए 4 पिलर तैयार किए गए. ये पिलर्स लकड़ियों, बांस और पेड़ की टहनियों से तैयार किया गया. बांस का गोल घेरा बनाकर लकड़ियों को अंदर तक फंसाया गया. इन्हें मजबूती देने के लिए इसके अंदर छोटे बड़े पत्थर भरे गए.
तीन गांव के लोगों ने मिलकर बनाया इकोफ्रेंडली पुल: इस काम में गांव के पुरुषों से लेकर महिलाओं ने भी हाथ बंटाया. पिलर्स तैयार होने के बाद फिर ऊपर मोटी लकड़ियों से चारों पिलर्स को जोड़ा गया. उसके ऊपर बांस से बनी चादर बिछाई गई. इस तरह तीन गांव के लोगों ने 4 दिन तक मेहनत कर इको फ्रेंडली पुल बनाया. इस बांस लकड़ी के पुल से गाड़ियां भी आसानी से गुजरने लगी है.
4 दिन में तीन गांव के लोगों ने मिलकर पुल बनाया. आने जाने में काफी तकलीफ होती है. राशन नहीं ला पा रहे थे. बच्चे स्कूल नहीं जा पा रहे थे - ग्रामीण
जंगल से लकड़ी और बांस लेकर आए. 4 दिन की मेहनत लगी. गांव वालों ने खुद ही मिलकर बनाया. बाजार भी नहीं जा पाते थे.- ग्रामीण
गांव में कभी एंबुलेंस नहीं आती. किसी भी गर्भवती महिला की डिलीवरी गांव में ही होती है. -ग्रामीण महिला
गांव वालों ने क्यों बनाया बांस लकड़ी का पुल: ग्रामीणों का कहना है कि "पुल नहीं होने से बारिश के दिनों में जान जोखिम में डालकर नाला पार करना पड़ता है. रोजमर्रा की चीजें लाना है. चाहे राशन लाना हो, बच्चों को स्कूल जाना हो, सभी को इस नाले को पार करके जाना पड़ता है. तबीयत खराब होने पर किसी को अस्पताल ले जाने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. बारिश के 4 महीने उनके लिए किसी मुसीबत से कम नहीं रहते. पुल के बनने से अब आने जाने में काफी आसानी हो गई है."