गोपालगंज: गोपालगंज नाम सुनते ही मन में एक पवित्रता का भाव जग जाता है. इसका सदियों पुराना इतिहास भी है. जिसके बारे में हर कोई नहीं जानता है. आखिर में बिहार के इस जिले का नाम गोपालगंज क्यों पड़ा?, इसका इतिहास क्या है? इन सब सवालों के जवाब इस खबर में मिलेगा. इन सभी सवालों के जवाब जानने के लिए हमें उन 174 साल पुराने इतिहास को जानना होगा जिस समय राजा-महाराजा हुआ करते थे.
हथुआ के मंदिर से जुड़ा है इतिहासः गोपालगंज से हथुआ के उस मंदिर का इतिहास जुड़ा है जिसे स्व. महाराज बहादुर राजेन्द्र प्रताप शाही की पत्नी महारानी श्यामसुन्दरी कुंवर ने निर्माण करायी थी. वर्ष 1850 में इस मंदिर की नींव रखी गयी थी. यह मंदिर प्राचीन हथुआ राज के गौरवशाली अतीत व वैभव को समेटे हुए है. मंदिर व इसका परिसर अदभूत नक्काशी, वास्तुकला व कलाकृति का बोध कराता है. वर्ष 1850 में महारानी ने इंस मंदिर की नींव रखी थी.
दस वर्ष में मंदिर का हुआ था निर्माणःकुल 13 बीघा, 3 कट्ठा 14 धुर में फैले इस मंदिर को बनाने में दस साल लगे थे. लंबे समय बाद 15 अप्रैल 1866 को इस मंदिर में वृंदावन के बांके बिहारी के तर्ज पर भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित की गयी थी. मंदिर को बनाने में उस जमाने में कुल 4 लाख, 50 हजार चांदी के सिक्के खर्च हुए थे. वर्तमान वह 54 करोड़ रुपये होगा. महारानी ने स्त्री धन से मंजिर का निर्माण कराया था. मुख्य द्वार के छत पर शहनाई गूंजती थी.
1878 में महारानी का निधन हो गयाः मंदिर के अलावा तीन कोठी, विशाल चबूतरा व तालाब के अलावा भव्य मुख्य द्वार है. इस मंदिर के रख रखाव में स्थापना के समय 30 हजार रुपया प्रति वर्ष खर्च होते थे. महारानी मंदिर के बगल में स्थित कोठी में रहती थी. वर्ष 1878 में महारानी के निधन के बाद हथुआ राज ने इस मंदिर को टेक ओवर किया था. इस मंदिर के उपर छोटे-छोटे 108 गुंबजों में लगे सोने के कलश गुंबज की चोरी वर्ष 1984 में हो गयी थी.