वाराणसी : भौतिक संपदा और भारत की धरोहर को संभालना बेहद जरूरी है और अगर इनके संरक्षण के साथ इन्हें सुरक्षित रखने के लिए किसी कानून के बनाए जाने के बाद अगर उसके जरिए काम किया जाए तो चीज और बेहतर तरीके से संचालित होती है. हालांकि इन चीजों को ऑपरेट करते हुए देश की संपदा और संस्कृति को सुरक्षित रखने की कवायद कुछ लोग ही कर पाते हैं. ऐसे ही हैं बनारस के जीआई मैन डॉ. रजनीकांत. जीआई (जियोग्राफिकल इंडिकेशन) देश के अलग-अलग राज्यों में ज्योग्राफिकल इंडिकेशन के लिए कई तरह की चीजों को शामिल किया जा चुका है. यह लिस्ट कभी 10 से 12 होती थी, लेकिन आज इनकी संख्या 600 से भी ज्यादा है. इसका श्रेय जाता है वाराणसी के पद्मश्री डॉ. रजनीकांत को.
ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जीआई) हिंदी में इसे भौगोलिक संकेत टैग के नाम से जाना जाता है. जिसे किसी खास क्षेत्र से जुड़े उत्पादों के लिए दिया जाता है. इस टैग से यह पता चलता है कि कोई उत्पाद किसी खास जगह से जुड़ा है. जीआई टैग से उत्पाद की गुणवत्ता और खासियतों को उस जगह की वजह से माना जाता है. यह टैग उत्पाद को दूसरों की नकल से बचाता है और यह भी सुनिश्चित करता है कि सिर्फ़ अधिकृत लोग ही उस उत्पाद के नाम का इस्तेमाल कर सकें. यही वजह है कि इस दिशा में काम करने वाले डॉ. रजनीकांत ने देश के अलग-अलग हिस्सों और अलग-अलग राज्यों से एक-एक करके एक दो नहीं बल्कि 250 से ज्यादा प्रोडक्ट को अपने दम पर रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया में पूरा करके दर्ज करवाने का काम किया है. जिसकी वजह से इन्हें 2019 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया.
डॉ. रजनीकांत बताते हैं कि 2007 में उन्होंने इस प्रयास की शुरुआत की थी. उस वक्त उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि आने वाले समय में उनका यह प्रयास बड़ा रूप ले लेगा. उनका कहना है कि भारत में साल 1999 में जीआई टैग को लेकर कानून बनाया गया था और साल 2003 में इसकी प्रक्रिया शुरू हुई. साल 2004 में दार्जिलिंग की चाय को पहला जीआई टैग मिला था. इसके बाद 2007 में उन्होंने इस काम से जुड़कर शुरू की जीआई के लिए लड़ाई. जिसके बाद अब तक भारत में 400 से ज़्यादा चीज़ों को जीआई टैग मिल चुका है.