बेंगलुरु :जलवायु परिवर्तन पर मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक 'अल नीनो' की समुद्री घटनाओं को प्रभवित कर रही हैं. सतह के पानी का एक सामयिक वार्मिंग चरण को कि सुदूर उष्णकटिबंधीय पूर्वी प्रशांत महासागर से शुरू होता है. ऐसे में दक्षिण अमेरिकी देश पेरू से दूर महासागर में होने वाली किसी घटना को लेकर भारत के लोग क्यों चिंतित होंगे? हालांकि इससे मौसम का प्रभाव अर्थव्यवस्थाओं पर महत्वपूर्ण वैश्विक प्रभाव पड़ सकता है. प्रशांत महासागर में पानी का गर्म होना दक्षिण एशियाई मानसून सहित दुनिया के कई हिस्सों में बारिश के पैटर्न से जटिल रूप से संबंधित है, जो कि भारत में रहने वाले अरबों लोगों के लिए जीवन रेखा है.
'यिन और यांग' की तरह - चीनी अवधारणा के बीच 'अल नीनो' स्पेक्ट्रम का केवल एक छोर है और दूसरे छोर को 'ला नीना' कहा जाता है. यह तब बनता है जब भूमध्यरेखीय पूर्वी प्रशांत महासागर ठंडी जल सतह बनाता है. इसे सबसे पहले पेरू के मछुआरों ने देखा. उन्होंने स्पेनिश में अल नीनो और ला नीनो शब्द गढ़े, जिसका अर्थ है 'छोटा लड़का' और 'छेटी लड़की'. वैज्ञानिक इस घटना को अल नीलो-दक्षिणी दोलन-ईएनएसओ चक्र कहते हैं.
सामान्य समय के दौरान ये 'ट्रेड विंड्स' भूमध्य रेखा के समानांतर पूर्व से पश्चिम की ओर चलती हैं, जिससे दक्षिण अमेरिका के प्रशांत महासागर से गर्म पानी एशियाई पक्ष की ओर बहने के लिए मजबूर हो जाता है. वहीं ये हवाएं इस क्षेत्र में ऊपरी गर्म पानी को दूर धकेलने में मदद करती हैं, जिससे ठंडे पोषक तत्वों से भरपूर पानी को नीचे से ऊपर उठने में मदद मिलती है ताकि ऊपर उठने की प्रक्रिया सक्रिय रहे. फलस्वरूप ऐसी प्रक्रिया सूक्ष्म प्लवक से लेकर मछली तक समुद्र के जीवन को पनपने में मदद करती है. लेकिन अल नीनो चरण के दौरान, पूर्वी हवाएं गर्म पानी को अमेरिका के पश्चिमी तट की ओर धकेलते हुए अपनी ताकत खो देती हैं, जबकि ला नीना के दौरान पूर्वी हवाएं ताकत इकट्ठा कर लेती हैं.
हालांकि, गर्म और ठंडे चरणों के बीच प्रशांत महासागर की ओर ले जाने वाली मूलभूत प्रक्रियाएं समुद्र और वायुमंडल के बीच जटिल अंतःक्रिया में निहित हैं. दक्षिणी दोलन की घटना की खोज सबसे पहले गिल्बर्ट थॉमस वॉकर ने की थी, जो 1904 में भारत में मौसम विज्ञान वेधशालाओं के महानिदेशक के रूप में कार्यरत थे. उन्होंने भारत और दुनिया के अन्य हिस्सों से बड़ी मात्रा में मौसम डेटा के सहसंबंध पैरामीटर विकसित करने के लिए अपने ठोस गणितीय ज्ञान का उपयोग किया.
वह भारत और प्रशांत महासागर के बीच वायुमंडलीय दबाव के वैकल्पिक बदलाव के पैटर्न और भारत सहित उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में परिवर्तनशील तापमान और वर्षा पैटर्न के साथ इसके संबंध की रिपोर्ट करने वाले पहले व्यक्ति थे. हालांकि वॉकर अपने समय से बहुत आगे थे लेकिन उन दिनों किसी ने उनके निष्कर्षों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. गिल्बर्ट वॉकर के नाम पर तथाकथित 'वॉकर सर्कुलेशन' की पुनः खोज 1960 के दशक में उपग्रह अवलोकनों की मदद से संभव हुई, जिसने इस तथ्य को स्थापित किया कि महासागर और वायुमंडल वास्तव में युग्मित है. इसका वैश्विक जलवायु पर प्रभाव पड़ता है. इतना ही नहीं इन दिनों उन्नत उपग्रह प्रौद्योगिकियां जैसे उन्नत अति उच्च-रिज़ॉल्यूशन रेडियोमीटर द्वारा एकत्र किए गए डेटा हमें महासागरों की सतह के तापमान की विसंगतियों की निगरानी करने में मदद करते हैं. इससे अब हम कई उपग्रहों से वैश्विक वर्षा डेटा को मिश्रित करने में सक्षम हैं.