गुवाहाटी:पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अहम पक्षी गिद्ध के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है. गिद्ध हमारे आसपास पड़े मृत जानवर के मांस खाकर वातावरण को दुर्गंध से मुक्त बनाते हैं और वायु प्रदूषण को भी कम करते हैं. चिंता की बात है कि इसके बावजूद हमारे समाज में इसे मनहूस पक्षी के रूप में ही जाना जाता है. जागरूकता की कमी के कारण यह लाभकारी पक्षी असम में विलुप्त होने के कगार पर है.
'बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी' नामक संस्था असम में इस पक्षी को विलुप्त होने से बचाने के लिए काम कर रही है. इस संस्था की एक शाखा गुवाहाटी में भी है, जो कई वर्षों से गिद्धों का बचाव और संरक्षण कर रही है. गुवाहाटी शहर के पास रानी में स्थित गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र के वरिष्ठ प्रबंधक सचिन पी रानाडे ने ईटीवी भारत से एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में बताया कि पूरी दुनिया में गिद्धों की कुल 15 प्रजातियां हैं और भारत में गिद्धों की 9 प्रजातियां हैं जिनमें से दो प्रजातियां असम में पाई जाती हैं. उन्होंने कहा कि 1980 में भारत में चार करोड़ गिद्ध थे. करीब 20 साल पहले असम में गिद्धों की संख्या लाखों में थी. भारत में अब करीब 4,000 गिद्ध बचे हैं. असम में लगभग 2000 ओरिएंटल व्हाइट रम्प्ड (सफेद दुम वाले) और 500 स्लेंडर बिल्ड (पतले चोंच वाले) गिद्ध बचे हैं.
व्हाइट रम्प्ड और स्लेंडर बिल्ड को असम के गिद्धों की मूल प्रजाति माना जाता है. सर्दी के मौसम में हिमालयी ग्रिफॉन और सिनेरियस गिद्ध प्रवासी पक्षियों के रूप में असम में आते हैं. कभी-कभी दो या तीन यूरेशियन ग्रिफॉन प्रजाति के गिद्ध भी प्रवासी पक्षी के रूप में असम आते हैं.
क्यों गिद्धों की संख्या कम हो रही?
रानाडे कहते हैं कि पशुओं के उपचार में बड़े पैमाने पर उपयोग की जाने वाली एनाल्जेसिक दवा डाइक्लोफेनाक के कारण भारत के साथ-साथ असम में भी कई गिद्धों की मृत्यु हो गई है. अगर किसी बीमार पशु को यह दवा दी जाती है और इस दौरान 2-3 दिन के वह मर जाता है तो उसके मृत शरीर में दवा का प्रभाव शेष रहता है. ऐसे जानवरों के शव खाने से गिद्ध की किडनी फेल हो जाती है और उनकी मौत हो जाती है. उन्होंने बताया कि पशुओं के इलाज में इस्तेमाल होने वाली एसिक्लोफेनाक और कैप्टोप्रिल गिद्धों की मौत का मुख्य कारण हैं. उन्होंने बताया कि तीनों दवाओं पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. लेकिन अभी भी ये प्रतिबंधित दवाएं कहीं न कहीं उपलब्ध हैं और इनका इस्तेमाल कम मात्रा में होता है. जबकि इस इस्तेमाल पूरी तरह बंद होना जाहिए. उनका मानना है कि लोगों को भी जागरूक होना चाहिए.
पारिस्थितिकी तंत्र कैसे प्रभावित हो रहा है?
सचिन रानाडे ने बताते हैं कि गिद्धों की संख्या में कमी के कारण स्ट्रीट डॉग और हिंसक स्वभाव के आवारा कुत्ते समाज के लिए खतरा बन गए हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में कुत्तों के झुंड खेतों या सड़क पर पालतू जानवरों जैसे बकरी, गाय को काटते हैं, या शिकार करते हैं. गिद्धों की संख्या लाखों से घटकर मात्र कुछ हजार रह गई है. गिद्धों के लुप्त होने से कुत्तों का स्वभाव हिंसक हो गया है. उनका कहना है कि पहले आवारा कुत्ते वही खाते थे जो हम आमतौर पर घर में खाते हैं. उन्हें मांस एक या दो टुकड़ा ही खिलाया जाता था. लेकिन गिद्धों के न होने के कारण कुत्ते पशुओं के शवों को खा रहे हैं. लगातार मांस खाने से कुत्तों का स्वभाव बदल गया है. उनमें प्रजनन की दर भी बढ़ी है.
गिद्धों की संख्या में बड़ी गिरावट के कारण सूअरों और मक्खियों से फैलने वाली कई बीमारियों की संख्या में भी वृद्धि हुई है. बता दें कि गिद्ध अन्य मांसाहारी जीवों जैसे कुत्ते, कौवे, चूहे आदि की तुलना में शवों को अधिक तेजी से और सफाई से खाते हैं. इसके अलावा, गिद्ध अपने मजबूत पाचन तंत्र की मदद से मृत शरीर में मौजूद संक्रामक रोगों जैसे एप्था डायसिस, एंथ्रेक्स, रेबीज आदि के कीटाणुओं को भी पचा सकते हैं. इस कारण मनुष्यों और जानवरों में बीमारियां फैलने का खतरा भी कम हो जाता है. रानाडे कहते हैं कि गिद्धों की संख्या में गिरावट के कारण शव खाने वाले कुत्तों की संख्या में वृद्धि हुई है. जिसके कारण रेबीज संक्रमण में वृद्धि हुई है. इसके अलावा, विभिन्न संक्रामक रोगों के कीटाणुओं की उपस्थिति के कारण एप्था और एंथ्रेक्स में वृद्धि हुई है.
रानी गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र
बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी द्वारा 2007 में रानी क्षेत्र में वन विभाग के सहयोग से इसकी स्थापना की गई थी. केंद्र में वर्तमान में 161 गिद्ध हैं. इनमें 20 चूजे हैं. वहीं, 108 सफेद दुम वाले गिद्ध और 53 पतली चोंच वाले गिद्ध हैं. चूजों सहित कुल गिद्धों में से 95 का जन्म प्रजनन के जरिये केंद्र में हुआ है. रानाडे ने बताया कि केंद्र में फिलहाल 8 लोग काम कर रहे हैं. गिद्धों के लिए विशेष पिंजरे तैयार किए गए हैं. इसके अंदर एक ऐसा वातावरण होता है जिससे गिद्ध अपना घोंसला बना सकता है. इसके अलावा पानी की व्यवस्था की जा रही है. सप्ताह में दो बार भोजन दिया जाता है. भोजन एक निश्चित दूरी से दिया जाता है ताकि गिद्धों को परेशानी न हो. यहां गिद्धों को उनके अनुकूल जंगली वातावरण दिया जाता है.
उन्होंने कहा कि गिद्धों की सभी गतिविधियों पर सीसीटीवी कैमरे से नजर रखी जाती है. अगर सब कुछ ठीक रहा, तो अगले साल कुछ गिद्धों को केंद्र से पहली बार प्रकृति की गोद में छोड़ा जा सकता है. पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाने में गिद्धों की भूमिका के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए केंद्र विभिन्न स्थानों पर जागरूकता कार्यक्रम भी आयोजित कर रहा है.
ये भी पढ़ें-कीड़ों की रक्षा करें, पक्षियों की रक्षा करें के साथ मनाया जा रहा विश्व प्रवासी पक्षी दिवस