आरोपी को जूतों की माला पहनाकर घुमाने पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा, न्याय वितरण प्रणाली को शर्मसार करने वाला- Police Parading Accused - police parading accused Shameful - POLICE PARADING ACCUSED SHAMEFUL
SC On Police Parading Accused : हाल के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को गिरफ्तार करने और हिरासत में लेने के दौरान संवैधानिक और वैधानिक सुरक्षा उपायों का पालन नहीं करने के लिए जांच एजेंसियों और पुलिस के आचरण पर नाराजगी व्यक्त की. पढ़ें सुमित सक्सैना की रिपोर्ट...
नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि पुलिस अधिकारियों को नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए सबसे अधिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए. कोर्ट ने कहा कि पुलिस को व्यक्ति की गरिमा की रक्षा पर जोर देना चाहिए. इसके साथ ही कोर्ट ने एक पुलिस निरीक्षक के आचरण पर चिंता व्यक्त की. कोर्ट एक पुलिस निरीक्षक जिस पर एक आरोपी को हथकड़ी पहनाकर और अर्धनग्न अवस्था में घुमाने का आरोप लगा था के मामले की सुनवाई कर रही थी. पुलिस निरीक्षक ने महाराष्ट्र के एक कस्बे की सड़कों पर एक आरोपी को गले में जूते की माला पहना कर उसकी परेड करायी गई थी.
शीर्ष अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि इस तरह के जघन्य कृत्यों के प्रति शून्य-सहिष्णुता का दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है. कोर्ट ने कहा कि सत्ता में बैठे व्यक्तियों की ओर से एक सामान्य नागरिक के खिलाफ ऐसे कृत्य संपूर्ण न्याय वितरण प्रणाली को शर्मसार करते हैं.
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने डीके बसु मामले में बंदियों की सुरक्षा और गिरफ्तारी पर निर्धारित दिशानिर्देशों का हवाला देते हुए कहा कि यह दुखद है कि आज भी, यह अदालत डीके बसु मामले में सिद्धांतों और निर्देशों को दोबारा लागू करने के लिए मजबूर है.
न्यायमूर्ति अमानुल्लाह जिन्होंने पीठ की ओर से निर्णय लिखा ने कहा कि डीके बसु से पहले, इस अदालत ने प्रेम शंकर शुक्ला बनाम दिल्ली प्रशासन, (1980) मामले में अपनी चिंता व्यक्त की थी कि व्यक्ति की गरिमा की रक्षा कैसे की जाए और इसे राज्य या जांच एजेंसी के हितों के साथ कैसे संतुलित किया जाए.
पीठ ने 18 मार्च को दिए अपने फैसले में कहा कि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पुलिस बलों और गिरफ्तारी और हिरासत की शक्ति वाली सभी एजेंसियों को सभी संवैधानिक और वैधानिक सुरक्षा उपायों का ईमानदारी से पालन करने के लिए एक सामान्य निर्देश होगा और इस अदालत द्वारा निर्धारित अतिरिक्त दिशानिर्देश जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है और/या उनकी हिरासत में भेजा जाता है.
याचिकाकर्ता को जून 2015 में 30,000 रुपये की चोरी के मामले में गिरफ्तार किया गया था. उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी गिरफ्तारी के बाद तत्कालीन पुलिस इंस्पेक्टर ने उन्हें हथकड़ी पहनाकर हवालात से बाहर निकाला और उनके गले में जूतों की माला डालकर अर्धनग्न कर सड़कों पर घुमाया और उनकी जाति के संदर्भ में उनके साथ गाली-गलौज की गई और उनके साथ मारपीट भी की गई. याचिकाकर्ता ने दावा किया कि अपीलकर्ता को जमानत दिए जाने के बावजूद पुलिस अधिकारी ने उसे चार घंटे तक अवैध रूप से हिरासत में रखा.
अपीलकर्ता ने पुलिस अधिकारी के खिलाफ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के तहत विभागीय जांच और आपराधिक कार्यवाही शुरू करने की मांग करते हुए बॉम्बे उच्च न्यायालय का रुख किया और मुआवजे की मांग की.
उच्च न्यायालय ने आंशिक रूप से याचिका को स्वीकार कर लिया, जिसमें उसने पुलिस अधिकारी की ओर से देय 75,000/- रुपये का मुआवजा देने का आदेश दिया, लेकिन एससी/एसटी अधिनियम के तहत उसके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई शुरू करने के लिए कोई निर्देश देने से इनकार कर दिया.
शीर्ष अदालत के समक्ष अपीलकर्ता के वकील ने कहा कि यह न्याय का मखौल होगा यदि उनके मुवक्किल की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के इस तरह के घोर उल्लंघन और अधिकारी द्वारा अधिकार के दुरुपयोग को बिना किसी वास्तविक प्रभावी दंड के केवल 'सख्त चेतावनी' के साथ माफ कर दिया जाता है. शीर्ष अदालत ने कहा कि पुलिस अधिकारी सेवानिवृत्त हो चुका है और पहले ही अपीलकर्ता को 1,75,000 रुपये का भुगतान कर चुका है, जिसमें उसके 7 जुलाई, 2023 के आदेश के अनुसार 1,00,000 रुपये भी शामिल हैं.
कोर्ट ने कहा कि अदालत को प्रतिवादी नंबर 2 (पुलिस अधिकारी) की ओर से इस तरह की मनमानी कार्रवाई की कड़ी निंदा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है, जिसने अपने आधिकारिक पद का पूरी तरह से दुरुपयोग किया. पीठ ने कहा कि शीर्ष अदालत को पुलिस अधिकारी की ओर से कोई और कदम उठाने की आवश्यकता नहीं है और मामले को अब अंततः शांत करने की आवश्यकता है और कहा कि न्याय को दया के साथ जोड़ा जाना चाहिए.