नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हत्या के मामले में सजा कम करने से अपराध की गंभीरता और जीवन की पवित्रता को कमजोर करने का जोखिम होगा. अदालत ने कहा कि महत्वपूर्ण अंगों को निशाना बनाने के इरादे से की गई हत्या, खासकर समूह में, क्रूरता के उस स्तर को दर्शाती है, जिसके लिए उचित दंडात्मक कार्रवाई जरूरी होती है.
शीर्ष अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में किए गए अपराधों के अक्सर दूरगामी परिणाम होते हैं, जो तत्काल जान गंवाने से कहीं अधिक होते हैं, और वे सामाजिक अशांति पैदा करते हैं और कानून के शासन में जनता के विश्वास को कमजोर करते हैं.
जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस प्रसन्ना बी वराले की पीठ ने 6 दिसंबर को दिए गए फैसले में 2006 में केरल में प्रतिद्वंद्वी एलडीएफ कार्यकर्ता की हत्या मामले में यूडीएफ समर्थक की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास की सजा को बरकरार रखा.
10 अप्रैल, 2006 को यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) और लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) के समर्थकों के बीच केरल के पथाईकरा (Pathaikkara) गांव में एक पुस्तकालय के पास अपने चुनाव चिह्न के चित्रांकन को लेकर विवाद हुआ था और एक-दूसरे पर हमला कर दिया था.
पीठ की ओर से निर्णय लिखने वाले जस्टिस नाथ ने अपीलकर्ता के इस तर्क को अस्वीकार कर दिया कि हत्या करने के पीछे उसका कोई जानबूझकर इरादा नहीं था और यह अपराध आपसी बीच-बचाव में हुआ. जस्टिस नाथ ने कहा कि शरीर के प्रमुख हिस्सों पर जानबूझकर वार करने और ताकत का प्रयोग करने से यह संकेत मिलता है कि अपीलकर्ता को अपने कार्यों के संभावित घातक परिणाम के बारे में अवश्य पता था.
पीठ ने कहा, "आईपीसी की धारा 300 के प्रावधानों के तहत, ऐसी चोटों का कारण बनने का इरादा, जो मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त है, हत्या माना गया है, और भले ही हत्या का कारण बनने के इरादे के अलावा अन्य तत्व साबित हो जाएं, घातक कार्यों के परिणाम का ज्ञान ही आरोपी व्यक्ति को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त है."