छिंदवाड़ा: दिवाली के मौके पर देश के हर घर में रोशनी होती है. मंदिरों और मठों में पूजा की जाती है. लेकिन मध्य प्रदेश का एक ऐसा गांव है जहां के आदिवासी न तो इस दिन दीये जलाते हैं और न ही घरों में रोशनी करते हैं. क्योंकि यह लोग दशहरा के बाद से सवा महीने का मातम मनाते हैं. आखिर क्यों छाया रहता है उनके गांव में मातम, जानिए कहानी.
सवा महीने रावण की मौत का मनाते हैं मातम
छिंदवाड़ा के रावनवाड़ा गांव में मूल रूप से आदिवासी लोग निवास करते हैं. यहां के लोग दशहरा के बाद से ही सवा महीने तक मातम मनाते हैं. इसलिए दिवाली के दिन ना तो घर में दीपक जलाते हैं और ना ही किसी तरह की रोशनी करते हैं.
अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के जिला अध्यक्ष महेश सराठी ने बताया कि, ''मान्यता है कि आदिवासियों के आराध्य रावण की मृत्यु के सवा महीने पूरे नहीं होने पर दिवाली में मातम मनाते हैं. आदिवासियों का मानना है कि आपदा आने पर रावण और मेघनाथ उनकी रक्षा करते हैं. दशहरा पर श्री राम ने रावण को परास्त किया था उसके बाद रावण वीरगति को प्राप्त हो गए थे. इसलिए ना तो उनके देव स्थल पर रोशनी होती है और ना दिवाली पर किसी तरह का जश्न.
गांव में है रावण का मंदिर, गांव का नाम रावनवाड़ा
गांव की एक पहाड़ी पर रावण का मंदिर है. यहां पर आदिवासी लोग पूजा पाठ करते हैं. दशहरा के मौके पर भले ही पूरे देश में बुराई के प्रतीक के रूप में रावण का दहन किया जाता है लेकिन इस गांव में रावण की पूजा होती है. उसके बाद ही सवा महीने तक मातम मनाया जाता है.
इसी तरह की परंपरा चारगांव के रावण गोठुल और उमरेठ के मेघनाथ खंडेरा में भी की जाती है. आदिवासी समाज के ब्लॉक उपाध्यक्ष राहुल सराठी ने बताया कि, ''आदिवासी समाज सनातन धर्म को भी मानता है, जिसमें सभी हिंदू धर्म के अनुसार पूजन विधि करते हैं. दिवाली पर घरों की साफ सफाई की जाती है. धन की देवी लक्ष्मी जी की पूजा भी करते हैं. लेकिन ना तो रोशनी की जाती है और ना ही किसी तरह से दिया जलाया जाता है.''