टिहरी: उत्तराखंड को यूं ही देवभूमि नहीं कहा जाता है. यहां पर जगह-जगह पौराणिक और धार्मिक स्थानों की अपनी-अपनी गाथा है, जिनमें से एक है सुरकंडा मंदिर, जहां पर मां सती के शीर्ष वाले भाग की पूजा होती है. यहां भक्तों द्वारा पहाड़ों के पारंपरिक वाद्य यंत्र ढोल से मां का आह्वान किया जाता है. मान्यता है कि इस दौरान मां अपने पश्वाओं पर अवतरित होकर भक्तों को अशीर्वाद देती है.
यूं तो सालभर मां के मंदिर मे भक्तों का तांता लगा रहता है, लेकिन गंगा दशहरा, शारदीय नवरात्र और चैत्र नवरात्र में लोग भारी संख्या में मां के दर्शनों के लिए यहां पहुंचते हैं. चैत्र नवरात्र पूरा होने पर भारी संख्या में श्रद्धालु मां के दर्शनों के लिए सुरकंडा पहुंच रहे हैं. मान्यता है कि नवरात्र में मां की अपने भक्तों पर खास कृपा बरसती है. इस मौके पर लोग मंदिर के पास नालू के धागे को बांधकर अपनी मन्नत मांगते हैं. मन्नत पूरी होने पर लोग पुनः मां के दर्शनों के लिए पहुंचते हैं और मां की पूजा अर्चना कर प्रसाद चढ़ाते हैं.
मां सुरकंडा मंदिर टिहरी जिले के कद्दूखाल के ऊपर पहाड़ की चोटी पर स्थित है. मंदिर के गर्भ गृह मां की एक सुंदर प्रतिमा है. यहां चंबा-धनौल्टी-मसूरी मोटरमार्ग के कद्दूखाल से लगभग 1.25 किलोमीटर की पैदल दूरी चढ़कर पहुंचा जाता है. मंदिर में पहुंचने के लिए लोगों के लिए कद्दूखाल की दूरी देहरादून से लगभग 70 किलोमीटर है. वहीं, ऋषिकेश से चंबा होते हुए लगभग 82 किलोमीटर की दूरी तय कर कद्दूखाल पहुंचा जा सकता है.
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मां सुरकंडा मंदिर समुद्र तल से लगभग 10,000 फीट की ऊंचाई पर सुरकुट पर्वत पर स्थित है. जहां से चारों तरफ प्रकृति के सुंदर और आकर्षक नजारे के साथ-साथ बर्फ से ढकी उच्च हिमालय की चोटियां भी दिखाई देती है. मंदिर परिसर के चारों तरफ निचले झुके भाग में रौसुली व थुनेर का घना जंगल है. जिनकी पत्तियां यहां का मुख्य प्रसाद माना जाता है, जिन्हें यहां आने वाली महिला श्रद्धालु अपनी सिर पर बाँधती हैं. लोग इसे अपने अपने घरों मे ले जाकर पूजा स्थल पर भी रखते हैं.
मंदिर से हिमालय की अधिष्ठात्री देवी के भी दर्शन होते हैं. मंदिर के आसपास इंद्रगुफा, भैरव मंदिर, हनुमान मंदिर और यज्ञशाला भी है. जहां पर विधि विधान से शादियों का अुनष्ठान भी किया जाता है. मंदिर से लगभग 100 मीटर की दूरी पर एक जलकुंड भी है. जहां पर मां गंगा की पूजा होती है. इस कुंड के पवित्र जल कभी भी दूषित नहीं होता है.
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सुरकंडा में हर साल गंगा दशहरा बड़े धूमधाम से मनाया जाता है. जहां पर भक्तों द्वारा भंडारे का भी आयोजन किया जाता है. मंदिर में शारदीय नवरात्र व चैत्र नवरात्र का भी आयोजन होता है. यहां पर दूर दराज से श्रद्धालु पहुंचते हैं और मां से मन्नतें मांगते हैं. मां के प्रति भक्तों का गहरा लगाव है. यहां के मुख्य पुजारी लेखवार हैं. पर्यटन नगरी धनौल्टी के पास होने से यहां देशी-विदेशी पर्यटक भी भारी संख्या मे पहुंचते हैं.
शास्त्रों के अनुसार मान्यता है कि जब राजा दक्ष ने भगवान शंकर को अपने यज्ञ मे निमत्रंण नहीं दिया तो माता सती (पार्वती) से यह अपमान नहीं सहा गया और अपने पिता दक्ष के यहां कनखल पहुंचकर यज्ञ कुंड में कूदकर देह त्याग कर दिया. इसी बात से शंकर भगवान क्रोधित होकर अपने विराट रूप में आ गये और माता सती (पार्वती) के मृत शरीर को अपने कंधे पर उठाकर चारों दिशाओं मे घुमने लगे. जिस पर भगवान विष्णु ने अपने चक्र से माता के शरीर को खंडित कर दिया, जिनमें से मां के सिर का भाग यहीं गिरा था. जिससे इसे सुरकंडा कहा जाता है.
पहाड़ों की रानी मसूरी व पर्यटन नगरी धनौल्टी आने वाले देशी व विदेशी सैलानी भी मां के जयकारे लगाते हुए भारी संख्या में यहां पर पहुंचते हैं. कद्दूखाल से सुरकंडा मंदिर तक जाने के लिए रोपवे का कार्य भी पूरा हो चुका है, जिसे जल्द ही शुरू कर दिया जाएगा.