देहरादून: प्रदेश में कृषि को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार तमाम योजनाएं चला रही है. साथ ही किसानों की आय दोगुनी करने के लिए भी राज्य सरकार समय-समय पर तमाम अभियान चलाती रही है, जिससे किसान खेती से मुंह न फेरे, लेकिन मौजूदा समय में उत्तराखंड में हर साल कृषि भूमि कम होती जा रही है. इसके क्या कारण हैं ? क्यों साल दर साल घट रही है खेती भूमि, क्यों बढ़ रहा है उत्पादन? इस पर विशेष...
विषम भौगोलिक परिस्थितियों के चलते राज्य में आपदा जैसे हालात बनना आम बात है. यही वजह है कि आपदा के दौरान कृषि भूमि को काफी नुकसान पहुंचता है. तो वहीं, मॉसूमन सीजन में कृषि भूमि का कटाव बढ़ जाता है, जिससे न सिर्फ कृषि भूमि को काफी नुकसान पहुंचता है, बल्कि किसानों की फसलों को भी भारी भरकम नुकसान पहुंचता है. खास बात यह है कि साल दर साल कृषि भूमि को हो रहे नुकसान के बावजूद भी राज्य में फसलों का उत्पादन बढ़ रहा है.
उत्तराखंड राज्य की अर्थव्यवस्था में कृषि व्यवसाय एक मुख्य भूमिका निभाता है, क्योंकि राज्य की 70 फीसदी ग्रामीणों की आय का मुख्य साधन कृषि ही है. सतत विकास लक्ष्य (SDG) के तहत कृषि को मुख्य रूप से SDG-2 में रखा गया है, क्योंकि सतत विकास लक्ष्यों में भी कृषि का प्रत्यक्ष रूप से योगदान है. आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट से मिली जानकारी के अनुसार, राज्य स्थापना के समय कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था, जो अब घटकर 6.72 हेक्टेयर रह गया है. तो वही, परती भूमि का क्षेत्रफल 1.07 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1.60 लाख हेक्टेयर हो गया है. इसके साथ ही राज्य में पर्वतीय क्षेत्रों में केवल 13 प्रतिशत और मैदानी क्षेत्रों में 94 प्रतिशत सिंचित क्षेत्रफल है.
नई कृषि तकनीकी और उन्नत बीज के चलते बढ़ रहा उत्पादन
उत्पादन बढ़ने में उन्नत बीज और नई तकनीकी की अहम भूमिका होती है. हालांकि, पहले नई तकनीकी उपलब्ध नहीं थी, जिसके चलते खेतों में अधिक मेहनत करनी पड़ती थी, बावजूद इसके उत्पादन कम होता था, लेकिन अब नई तकनीकी और उत्तम बीज के चलते उत्पादन बढ़ रहा है. साथ ही कृषि को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार तमाम योजनाएं भी चला रही है.
उत्पादन बढ़ाने के लिए क्लस्टर पर विचार- कृषि मंत्री
कृषि मंत्री सुबोध उनियाल ने बताया कि कई कारणों से कृषि भूमि का क्षेत्रफल कम हो रहा है, लेकिन राज्य सरकार उत्पादन को बढ़ाने के लिए तमाम योजनाएं भी संचालित कर रही है. जिससे न सिर्फ उत्पादन बढ़ेगा बल्कि किसानों को भी मुनाफा होगा. कृषि मंत्री ने कहा कि राज्य सरकार यह कोशिश कर रही है कि राज्य में क्लाइमेट को देखते हुए अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग उत्पादों के लिए स्पेसिफिक बेल्ट बनाए. यही वजह है कि राज्य में क्लस्टर बनाए जा रहे हैं और 15 से 20 क्लस्टर में एक ही तरह करने के पर विचार कर रही है, जिससे राज्य में अधिक से अधिक उत्पादन किया जा सके.
इन आंकड़ों पर एक नजर
क्या होती है क्लस्टर आधारित खेती?
सरल भाषा में समझें तो क्लस्टर का अर्थ समूह होता है. योजना के अनुसार खेती के लिये 50 या उससे अधिक किसानों का एक समूह (क्लस्टर) बनाकर 50 एकड़ भूमि पर खेती की जाती है. खास बात ये है कि क्लस्टर से मिले उत्पादों के प्रमाणीकरण के लिए किसानों पर कोई आर्थिक बोझ नहीं पड़ता. सरकार खुद उत्पाद को प्रमाणित करती है. किसानों को फसल उत्पादन, बीज, कटाई व परिवहन के लिए धनराशि भी उपलब्ध करवाई जाती है साथ ही किसानों द्वारा तैयार किए गए उत्पादों को बाजार भी उपलब्ध कराया जाता है.
जैविक खेती के लिए क्लस्टर बनाने से लेकर उत्पाद को बाजार देने का काम कृषि विभाग करता है. जैविक समूह का गठन कर किसानों को प्रशिक्षण दिया जाता है. ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन किया जाता है. फिर खेत की मिट्टी की जांच की जाती है, ताकि किसान स्वयं का बीज, खाद व कीटनाशक तैयार कर खेती में उपयोग करें.
खेती से इस प्रकार उत्पादन किया जा रहा है कि कम भूमि में अच्छे उत्पादन के अनुसार तथा बाजार के अनुरूप रहे. इसके साथ ही कृषि में अधिक से अधिक रोजगार का सृजन किया जा सके.
भौगोलिक, जलवायु और मिट्टी संबंधी विविधता वाले विशाल देशों में से एक भारत है, इसलिये यहां कृषि स्वरूप में पर्याप्त विविधता है. भारत के अलग-अलग क्षेत्र विशेष फसल की कृषि के लिये आदर्श स्थल हैं. जैसे- गुजरात और महाराष्ट्र में कपास उगाने के लिये आदर्श स्थितियां हैं तो कर्नाटक, झारखंड और असम में मूंगे की विभिन्न किस्मों के लिये विशेष परिस्थितियां पाई जाती हैं.
इसी को ध्यान में रखते हुये देश में किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिये कृषि अर्थव्यवस्था के क्षेत्रीकरण संबंधी पूर्व अध्ययनों की जांच करने के बाद योजना आयोग द्वारा यह सिफारिश की गई थी कि कृषि-आयोजन संबंधी नीतियां कृषि-जलवायु क्षेत्रों के आधार पर तैयार की जानी चाहिए. इस प्रकार की कृषि जलवायु विविधता को देखते हुए देश में क्लस्टर आधारित कृषि की अच्छी संभावनाएं हैं.