मसूरीः प्रकृति के चितेरे हिमवंत कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल की आज 76वीं पुण्यतिथि (Chandra Kunwar Bartwal 76th Death Anniversary) है. इस मौके लोगों ने मालरोड स्थित चंद्र कुवर बर्त्वाल की मूर्ति पर माल्यार्पण किया. साथ ही पुष्पांजलि अर्पित उनके योगदान को याद किया.
चंद्र कुंवर बर्त्वाल शोध संस्थान मसूरी (Chandra Kunwar Bartwal Research Institute Mussoorie) और द हिल्स ऑफ मसूरी (The Hills of Mussoorie) के अध्यक्ष शूरवीर सिंह भंडारी ने कहा कि चंद्र कुंवर बर्त्वाल प्रकृति के चितेरे कवि थे. उन्होंने मात्र 28 साल की कम उम्र में अपनी कविताओं के माध्यम से प्रकृति, हिमालय, राजनीति, पशु पक्षी, ब्रिटिश शासन, विश्व युद्ध आदि को सामने लाया. वे जिस स्थान पर गए, वहां की स्थिति और कीट पतंगों पर कविताएं लिखी. चंद्र कुवर बर्त्वाल ऐसे महान कवि थे कि उनकी तुलना पश्चिम के जॉन कीटस, विलियम वाटवर्थ से की जा सकती है.
उन्होंने बताया कि चंद्र कुवर बर्त्वाल ने अल्प आयु में कई कविताएं और रचनाएं लिखी. उनके काव्य और रचनाओं को संरक्षित करने का प्रयास किया जाना चाहिए. उन्होंने सरकार से मांग की है कि प्राथमिक स्कूलों में कक्षा 1 से 5 तक कवि चंद्र कुवर बर्त्वाल की कविताएं पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए. जिससे आने वाली पीढ़ियों को भी चंद्र कुवर बर्त्वाल के बारे में बताया जा सके. उनके लेख, कविताओं के माध्यम से प्रकृति के महत्व को भी समझाया जा सके.
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जानिए कौन हैं हिमवंत कवि चंद्र कुंवर बर्त्वालः जन कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल (Chandra Kunwar Bartwal) का जन्म रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में 20 अगस्त 1919 को हुआ था. उन्होंने मात्र 28 साल के जीवन में एक हजार अनमोल कविताएं, 24 कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य का अनमोल खजाना हिंदी साहित्य को दिया. मृत्यु पर आत्मीय ढंग और विस्तार से लिखने वाले चंद्र कुंवर बर्त्वाल हिंदी के पहले कवि हैं.
चंद्र कुंवर बर्त्वाल 28 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए थे. लेकिन इस छोटी सी उम्र में भी वह देश-दुनिया को सुंदर साहित्य दे गए. चंद्र कुंवर बर्त्वाल की कविताएं मानवता को समर्पित थीं. बेशक वह प्रकृति के कवि पहले थे. शूरवीर ने कहा कि बर्त्वाल हिंदी साहित्य के एक मात्र ऐसे कवि थे जिन्होंने हिमालय, प्रकृति व पर्यावरण के साथ-साथ मनुष्य की सुंदर भावनाओं और संवेदनाओं को अपनी कविताओं में पिरोया. उनकी कविताएं हिमालय व प्रकृति प्रेम की साक्षी रही हैं.
कालिदास को मानते थे गुरुः 'मैं न चाहता युग-युग तक पृथ्वी पर जीना, पर उतना जी लूं जितना जीना सुंदर हो. मैं न चाहता जीवन भर मधुरस ही पीना, पर उतना पी लूं जिससे मधुमय अंतर हो'. ये पंक्तियां हैं हिंदी के कालिदास के रूप में जाने माने प्रकृति के चहेते कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल की. विश्व कवि कालिदास को अपना गुरु मानने वाले चंद्र कुंवर बर्त्वाल ने चमोली के पोखरी और रुद्रप्रयाग के अगस्त्यमुनि में अध्यापन भी किया था.
हिमवंत कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल (Chandra Kunwar Bartwal) को प्रकृति प्रेमी कवि माना जाता है. उनकी कविताओं में हिमालय, झरनों, नदियों, फूलों, खेतों, बसंत का वर्णन तो होता ही था, लेकिन उपनिवेशवाद का विरोध भी दिखता था. आज उनके काव्य पर कई छात्र पीएचडी कर रहे हैं.
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युवावस्था में हुए टीबी के शिकारः कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल (Himwant Kavi Chandra Kunwar Bartwal) प्रमुख कविताओं में विराट ज्योति, कंकड़-पत्थर, पयस्विनी, काफल पाकू, जीतू, मेघ नंदिनी हैं. युवावस्था में ही वह टीबी के शिकार हो गए थे. इसके चलते उन्हें पांवलिया के जंगल में बने घर में एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़ा था. मृत्यु के सामने खड़े कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल ने 14 सितंबर, 1947 को हिंदी साहित्य को बेहद समृद्ध खजाना देकर दुनिया को अलविदा कह दिया था.
मृत्यु के बाद मिली पहचानः कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल की मृत्यु के बाद उनके सहपाठी शंभुप्रसाद बहुगुणा ने उनकी रचनाओं को प्रकाशित करवाया और यह दुनिया के सामने आईं. इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि आज भी हिंदी साहित्य के अनमोल रत्न कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल को राष्ट्रीय स्तर पर वो सम्मान प्राप्त नहीं हो सका है, जिसके वह हकदार थे. उनकी कर्मस्थली, पांवलिया जंगल का वह घर जहां मृत्यु से पहले उन्होंने अपना सर्वात्तम काव्य लिखा था, आज खंडहर हो रहा है. हालांकि प्रशासन कई बार दावा कर चुका है कि वहां संग्राहलय और पर्यटन स्थल बनाया जाएगा.