देहरादून: उत्तराखंड में कांग्रेस के हालात बदतर होते जा रहे हैं. कांग्रेस संगठन की निष्क्रियता के चलते सड़कों पर संघर्ष अब बीते दिनों की बात हो गई है. प्रदेश में कांग्रेस का न तो कोई संगठन दिखाई देता है और न ही सत्ता को कोसती विपक्ष की धारदार आवाज.
यूं तो देशभर में ही कांग्रेस मूर्छा सी हालात में है, लेकिन उत्तराखंड में कांग्रेसियों की बेहोशी का आलम थोड़ा ज्यादा है. यहां न तो सक्रिय संगठन है और न ही इसको संचालित करने वाले दमदार नेता.
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कौन कहेगा की ये देश पर आजादी के बाद सबसे ज्यादा राज करने वाला दल है. कौन कहेगा की इसी संगठन ने उत्तराखंड में कांग्रेस को कई बार सत्ता तक पहुंचाया है. नेताओं से गुलजार रहने वाला कांग्रेस भवन आज कार्यकर्ताओं और राजनेताओं की कमी को भलीभांति महसूस कर रहा है.
आप अंदाजा लगाइए कि उत्तराखंड कांग्रेस में पिछले 28 महीनों से कांग्रेस कमेटी का गठन नहीं हो पाया है. पार्टी का संघर्ष पार्टी कार्यालय से 20 कदम दूर या तो एस्लेहॉल चौक और या फिर गांधी पार्क तक ही दिखाई देता है. इतना ही नहीं सरकार विरोधी कार्यक्रमों में उन्हीं गिने-चुने चेहरों के भरोसे गिने चुने विरोध प्रदर्शन आहूत किये जाते हैं. कमेटी की निष्क्रियता के चलते कांग्रेस के फ्रंट संगठनों से भी संवाद न के बराबर ही दिखाई देता है. नतीजा यह कि कुछ प्रकोष्ठ के पदाधिकारी अपनी नाराजगी सीधे प्रदेश अध्यक्ष से भी जता चुके हैं.
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हाल ही में प्रदेश अध्यक्ष ने जिलों के प्रभारी बनाए तो इसमें भी जमीनी कार्यकर्ताओं की जगह 16 पूर्व विधायक या विधायक को जिम्मेदारी दी गयी. जबकि संगठन से महज 7 लोगों को ही बतौर प्रभारी जिम्मेदारी सौंपी गई. यही नहीं कांग्रेस के लगातार कमजोर होने के बाद भी प्रदेश अध्यक्ष के स्तर पर ना तो अब तक कमेटी बनाए जाने की कोई चर्चा है और ना ही प्रदेश स्तरीय बड़े कार्यक्रमों का कोई प्लान. हालांकि पार्टी के नेता संगठन का बचाव करते हुए संघर्ष किए जाने का दावा कर रहे हैं.